The pinnacle of meaningful cinema - Marathi cinema : सार्थक सिनेमा का सिरमौर - मराठी चित्रपट

The Marathi film ‘Bhonga’ powerfully explores noise pollution, religious traditions, and social justice. Through the story of a sick child, it challenges our collective sensitivity and conscience. एक ऐसा विषय जिस पर या तो ध्यान ही नहीं दिया जाता अथवा जिस पर बात करने से विवाद की गुंजाइश हो, उन विषयों को छूने से अक्सर लेखक-कलाकार लोग घबराते हैं, मगर लेखकद्वय ने न केवल इसे लिखा, बल्कि पर्दे पर भी इस प्रकार उतारा कि इस समस्या का समाधान विचारपूर्वक करने से कोई भी असहमत हो ही नहीं सकता।

Jul 7, 2025 - 14:58
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The pinnacle of meaningful cinema - Marathi cinema : सार्थक सिनेमा का सिरमौर - मराठी चित्रपट

The pinnacle of meaningful cinema - Marathi cinema :वर्ष २०१८ में एक मराठी फिल्म आई थी, जिसका नाम था- ‘भोंगा’। सर्वप्रथम यह टाइटल स्वयंमेव ही आकर्षित करता है। दरअसल भोंगा, एक चिमनीनुमा ध्वनि-विस्तारक यंत्र होता है, जिसे ध्वनि को विस्तारित करने के लिए प्रयोग किया जाता है। यह चीज़ आपको अनेकों जगहों पर देखने को मिली ही होगी। मगर, क्या मात्र इतनी-सी चीज़ पर कोई पूरी की पूरी फ़िल्म बना सकता है? उत्तर है- हाँ, क्योंकि इसके उद्देश्य में एक व्यापकता है, एक सामाजिक सौद्देश्‍यता है, एक अलग दृष्टिकोण है।


मराठी फ़िल्मों के विषयों की विविधताओं को देखकर यह स्पष्टतया कहा जा सकता है कि फ़िलहाल मराठी फ़िल्मों की उत्कृष्टता का कोई मुक़ाबला नहीं किया जा सकता। एक समय में साहित्य-सिनेमा में जो कार्य बंगाल में हो रहा था, उसकी जगह अब मराठी चित्रपट ने ले ली है। बंगाल अपने इस शीर्ष पद से क्योंकर च्युत हुआ, यह एक अलग शोध का विषय है। इस फ़िल्म की कहानी को फिल्‍म के निर्देशक शिवाजी लोटन पाटिल और निशांत नाथाराम धपसे ने लिखा है। एक ऐसा विषय जिस पर या तो ध्यान ही नहीं दिया जाता अथवा जिस पर बात करने से विवाद की गुंजाइश हो, उन विषयों को छूने से अक्सर लेखक-कलाकार लोग घबराते हैं, मगर लेखकद्वय ने न केवल इसे लिखा, बल्कि पर्दे पर भी इस प्रकार उतारा कि इस समस्या का समाधान विचारपूर्वक करने से कोई भी असहमत हो ही नहीं सकता। फिल्‍म में कोई बड़े नामी कलाकारों को नहीं लिया गया, बल्कि इनमें सामान्‍य से दिखने वाले असली कलाकारों को लेकर ही यह कथा बुनी गई है। कहानी महाराष्‍ट्र के किसी छोटे से ग्रामीण परिवेश की है, जहॉं पर हिन्‍दू और मुसलमान दोनों समुदायों के लोग रहते हैं। फिल्‍म का केन्‍द्रीय पक्ष भोंगे (ध्‍वनि प्रदूषण) एवं इसके दुष्‍परिणामों को लेकर है। घरेलू झगड़ों की वजह से दो मुस्लिम भाईयों में से छोटा भाई अपने पुराने घर, जो कि मस्जिद के सामने है, में रहने चला जाता है।


दूसरे ही दिन भोंगे द्वारा अत्‍यंत तेज़ आवाज़ में दी जा रही अज़ान की आवाज़ को सुनकर उसका बच्‍चा सिहरकर रोने लगता है और यह लगभग रोज़ की बात हो जाती है। शहर में डॉक्‍टर को दिखाने पर पता चलता है कि बच्‍चे को ‘सेरिब्रल हायपोक्सिया’ नामक बीमारी है, जिसके कारण बच्‍चा तेज़ आवाज़ को सहन नहीं कर पाता। बच्‍चे का पिता मस्जिद जाकर मौलवी से बात करता है कि इतनी तेज़ आवाज़ में अज़ान न दिया करें, बच्‍चे को तकलीफ़ होती है, तो मौलवी उसे मज़हब का हवाला देकर भगा देता है। बच्‍चे की तकलीफ़ को देखकर उस मुस्लिम युवा के कुछ हिन्‍दू दोस्‍त अज़ान के समय गॉंव की बिजली बंद कर उसकी अस्‍थायी सहायता करते हैं, मगर मौलवी बैटरी के रूप में उसका भी हल निकाल लेता है। अंतत: लगातार कानफोड़ू आवाज़ों से बच्‍चे की मौत हो जाती है। बच्‍चे को द़फनाते समय जब मौलवी भी वहां आता है, तो उस बच्‍चे का पिता उसे यह कहकर वहां से भगा देता है कि उसी ने भोंगे के माध्‍यम से उसके बच्‍चे की जान ली है। फिल्‍म के कई दृश्‍य आपको सोचने पर मजबूर कर देते हैं। मसलन जब एक हिन्‍दू की शादी की बारात जब मस्जिद के सामने से गुज़रती है, तो हिन्‍दू समाज मस्जिद को सम्‍मान देने के लिहाज़ से उस पूरी गली में बैण्‍ड बंद कर दिया जाता है, मगर उसी मोहल्‍ले में जब एक हिन्‍दू के घर मृत्‍यु होती है, तब नमाज़ की ध्‍वनि को न तो कम किया जाता है और न ही रोका जाता है। यह किस तरह का सेकुलरिज्‍़म है कि सिर्फ एक ही पक्ष इसे लगातार निभाये?
फिल्‍म कुछ इस तरह से लिखी और फिल्‍माई गई है कि इससे किसी भी पक्ष को चोट नहीं पहुँचती और यही बात कहने का सार्थक तरीक़ा होता है, बशर्ते हम समाज की ज़रूरतों के हिसाब से रीतियों-कुरीतियों की समय-समय पर समीक्षा कर उनमें सुधार करने की सलाहियत पैदा करें। बहरहाल, इस फिल्‍म ने महाराष्ट्र सरकार के ५६ वें फिल्म पुरस्कारों में सर्वश्रेष्ठ फिल्म का पुरस्कार मिला था। इसे राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों में फ़ीचर फिल्म की श्रेणी में सर्वश्रेष्ठ मराठी फ़िल्म का पुरस्कार भी जीता था।

दुर्गेश कुमार ‘शाद'
इन्‍दौर

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