दिव्या : स्त्री चेतना
पुरुष संस्कृति पितृसत्ता के माध्यम से पुरुष को अर्थ संपन्नता और स्वामित्व के अधिकार सौपे हैं और स्त्री को मिली है अधीनता,अर्थ पर निर्भरता और दासत्व।'१ बौद्ध धर्म के समय नारी की स्थिति समाज में बहुत ही मार्मिक थी। नारी की आर्थिक,सामाजिक और नैतिक बन्धनों को लेखक ने उपन्यास में दिखलाया है। उपन्यास की मुख्य नारी पात्र दिव्या की स्थिति समाज में स्त्रियों की स्थिति को व्यक्त करती है। सामंती व्यवस्था में स्त्री भोग्या और संतान उतपन्न करने वाली वस्तु तुल्य थी। यह स्थिति कमोवेशी लगभग सर्वत्र थी-

‘दिव्या' यशपाल की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर लिखी गई बहुचर्चित उपन्यास है। इस उपन्यास में बौद्धकालीन समाज को आधार बनाया गया है। `दिव्या'की कथा नारी केंद्रित है। नारी पर होने वाले अत्याचार एवं शोषण पुरानी परंपरा है। पुरुष प्रधान समाज नारी को अपने समकक्ष स्वीकार कभी नहीं किया, भले ही स्त्री सर्वपूजिता बनी रही है। पुरुष समाज नारी को उनके अधिकारों से वंचित कर भोग की सामग्री में परिणत करता रहा है। उनके लिए ऐसे ऐसे नियम बनाए जो उनके अधिकारों को सीमित करते गए। उन्हें आर्थिक दृष्टि से अधीन और कमज़ोर कर दिया है,' पुरुष संस्कृति पितृसत्ता के माध्यम से पुरुष को अर्थ संपन्नता और स्वामित्व के अधिकार सौपे हैं और स्त्री को मिली है अधीनता,अर्थ पर निर्भरता और दासत्व।'१ बौद्ध धर्म के समय नारी की स्थिति समाज में बहुत ही मार्मिक थी। नारी की आर्थिक,सामाजिक और नैतिक बन्धनों को लेखक ने उपन्यास में दिखलाया है। उपन्यास की मुख्य नारी पात्र दिव्या की स्थिति समाज में स्त्रियों की स्थिति को व्यक्त करती है। सामंती व्यवस्था में स्त्री भोग्या और संतान उतपन्न करने वाली वस्तु तुल्य थी। यह स्थिति कमोवेशी लगभग सर्वत्र थी- `विश्व के अधिकांश भागों में स्थापित पूँजी व्यवस्था, पितृ सत्तात्मक व्यवस्था ने सामाजिक ढाँचा इस प्रकार निर्मित किया गया कि स्त्री व्यक्ति से वस्तु में बदल गई। परिवार में उसकी स्थिति सम्पति और घर से बाहर वस्तु के रूप में आँकी गई।'
यशपाल ने उपन्यास में नारी विषयक सभी पहलुओं को बहुत ही बारिकी रूप में चित्रित किया है। उपन्यास के प्राक्कथन में ही यशपाल ने उपन्यास के पृष्टभूमि के बारे में स्पष्ट किया है- `मनुष्य से बड़ा है- केवल उसका अपना विश्वास और स्वयं उसका ही रचा हुआ विधान। अपने विश्वास और विधान के सम्मुख ही मनुष्य विवशता अनुभव करता है और स्वयं ही वह उसे बदल भी देता है। इसी सत्य को अपने चित्रमय अतीत की भूमि पर कल्पना में देखने का प्रयत्न `दिव्या' है।' ३ लेखक ने दिव्या के माध्यम से नारी चरित्र की सार्थकता को व्यक्त किया है। दिव्या का किरदार ही स्वयं को साबित करना है। दिव्या कथा की मुख्य पात्र है। वह एक अभिजात ब्राह्मण कुल की कन्या है, अपनी नृत्यकला में पारंगत हासिल कर `सरस्वती पुत्री' का सम्मान प्राप्त करती है। वह श्रेष्ठ खड्गधारी दास पुत्र पृथुसेन से प्रेम करती है। उसके संतान की माँ बनती है। दिव्या समाज के नियमो का उल्लंघन करती है। वह अपनी नियति स्वयं निर्धारित करती है। उसे इसके लिए अनेक यातनाएं सहनी पड़ती है। उसे समाज से उपेक्षित होना पड़ता है। अपने समाज से बाहर होते ही वह दास व्यापारियों के चुंगल में फस जाती है। वह अनेक प्रकार के यंत्रणाओं को सहती है। दिव्या अपने जीवन संघर्ष में अपने एकमात्र पुत्र को खो देती है। वह अपने जीवन को समाप्त करने का निर्णय लेती है। दिव्या अपने श्रेष्ठ गुणों के बावजूद भी समाज में एक स्त्री के रूप में अपने को स्थापित नही कर पाती है। अंत में वह वेश्या बनने को विवश होती है।
दिव्या का जीवन नारी जीवन के वास्तविकता को व्यक्त करती है। ऐसा नहीं है कि स्त्री अपने अस्तित्व के लिए संघर्षरत नही थी। समय का कोई पड़ाव इतिहास के पन्नों से उठाया जाय तो देखा गया है कि स्त्री हमेशा अपने वजूद के लिए संघर्षरत थी और आज भी संघर्षरत है। दिव्या भी अपने वजूद की रक्षा के लिए संघर्ष करती रही। उसका जीवन न तो प्रेयसी रूप में संपूर्ण था, न दासी रूप में न माता रूप में, न वेश्या रूप में। दिव्या समाज में अपनी स्थिति निर्धारित करने के सभी उपाय करती है पर अंत में असफ़ल रहती है। दिव्या जब तथागत के पास अपने और अपने पुत्र के आश्रय के लिए जाती है, तो स्थविर उसे उसके अभिभावक की अनुमति लाने को कहते हैं- `देवी धर्म के नियमानुसार स्त्री के अभिभावक की अनुमति के बिना संघ स्त्री को शरण नही दे सकता।' ४ अर्थात अकेली स्त्री को बौध्द धर्म में शरण लेने के लिए उसे अपने अभिभावक से अनुमति लेना आवश्यक है। दिव्या के जीवन की यही सबसे बड़ी बिडंबना है कि उसका न तो पिता है, न पति है, न मालिक है और न ही उसका पुत्र उस स्थिति में है कि उसे अनुमति दे सके। उसे वहाँ से भी निराश होना पड़ता है।
दिव्या जब वेश्या बनना चाहती है, तब भी समाज उसे इसकी इजाज़त नहीं देता है। समाज के उच्चकुल उसका विरोध करता है- `मद्र में द्विज कन्या वेश्या के आसन पर बैठकर जन के लिए भोग्य बनकर वर्णाश्रम को अपमानित नही कर सकती।' ५ अर्थात दिव्या की स्थिति समाज में नारी की कारुणिक स्थिति को दर्शाती है। पुरुष वर्चस्व समाज में स्त्री को अपनी भूमिका निर्धारित करना एक बड़ी चुनौती है। यह चुनौती बौध्दकालीन समाज में भी थी और वर्तमान में भी मौजूद है। स्त्री जीवन के चुनौती पर चित्रा मुद्गल का कथन है- `सदियों से चली आ रही पितृसत्तात्मक कुछ चुनोतियाँ आज भी २१वीं सदी में ज्यों की त्यों विद्यमान हैं, क्योंकि पितृसत्ता से मुक्त होने का ताल्लुक मर्दों के मानसिक अनुकूलन से है।' ६ यशपाल ने दिव्या के जीवन संघर्ष के माध्यम से स्त्री जीवन की चुनोतियाँ को दिखाया है। बौद्धकालीन घटना प्रसंग का अन्तर्सम्बंध वर्त्तमान समय में ज्यो की त्यों बनी हुई है, जिसे हम दिव्या के माध्यम से देख सकते हंै। पुरुष प्रधान समाज द्वारा नारी के लिए बनाई गई सामाजिक परिपाठी तब भी थी और आज भी है। पृथुसेन दिव्या से प्रेम करता है और वह विवाह करना चाहता है लेकिन उसके पिता श्रेष्ठी उसे समझाते हुए स्त्री को पतन का द्वार कहते हैं '- पुत्र स्त्री भोग्य है। मति -भ्रम होने पर मोह में पुरुष स्त्री के लिए बलिदान होने लगता है। वत्स ऐसी ही परिस्थिति में नीतिज्ञ महत्वाकांक्षी और परलोक कामी पुरुष के लिए नारी को पतन का द्वार कहते हैं।' ७ अपने पिता के समझाने पर पृथुसेन अपने प्रेम अर्थात दिव्या के स्थान पर अपनी महत्वाकांक्षा को चुनता है। वह गणपति की पौत्री सीरो से विवाह करता है। बौद्धकालीन समाज में स्त्री समाज की दशा ठीक नही थी, वह केवल भोग की वस्तु के रूप में मान्य थी, उसे पतन का द्वार कहा जाता था। समाज में बहुपत्नी प्रथा का प्रचलन था। यशपाल नारी जीवन की विविधता को यथार्थ के साथ प्रस्तुत किया है। उन्होंने नारी जीवन के संघर्षों को जितनी सजीवता के साथ व्यक्त किया, उतनी ही सजीवता और सच्चाई के साथ नारी मुक्ति के विभिन्न मार्गों को दिखलाते हैं।
यशपाल नारी को स्वतंत्र मनुष्य के रूप में माना है। उनकी अपनी भावनाएं और जीवन होती है। तत्कालीन समाज में स्त्री चाहें जिस कुल की हो वह पुरुषों को सुख देने वाली आलंबन मात्र थी। दिव्या के माध्यम से उपन्यासकार ने स्त्री को भोग्या न मानते हुए, उसे एक संपूर्ण व्यक्तित्व के रूप में स्वीकार करते हैं। मारिश द्वारा दिव्या को अपने जीवन का लक्ष्य मिलता है। मारिश दिव्या से कहता है- `भद्रे नारी सृष्टि का साधन है। सृष्टि की आदि शक्ति का क्षेत्र वह समाज और कुल का केंद्र है।’ ८ यहाँ नारी के विश्वरूप की अभिव्यक्ति उपन्यासकार ने मारिश के शब्दों में किया है। नारी सृष्टि का साधन और शक्ति है, जिसके बिना सृष्टि की कल्पना नहीं की जा सकती है। अतः उपन्यासकार ने `दिव्या' में नारी के जिस उत्थोपतन का चित्रण दिव्या के माध्यम से किया है, उसका एकमात्र उद्देश्य नारी चेतना के पराकाष्ठा को उद्घाटित करना है।
सरस्वती कुमारी
पश्चिम बंगाल
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