मजदूर
दिनभर का हांफता हुआ मजदूर इन्तजार करता है शाम का पैरों की बिवाई साफ करने के लिए पीठ की जकड़न ठीक करने के लिए सोचता है रोटी के साथ गुड़ ले लूंगा नमक की जगह

दिनभर का हांफता हुआ मजदूर
इन्तजार करता है शाम का
पैरों की बिवाई साफ करने के लिए
पीठ की जकड़न ठीक करने के लिए
सोचता है रोटी के साथ गुड़ ले लूंगा
नमक की जगह
सोचता है मजूरी के पैसे में कितना बचा लूं
ब्याहूत बेटी का जीवन संवर जाए
सोचने की अवस्था में निरंतर सोचता है
दिन की ढलान तक
उम्र की ढलान तक
सोचते हुए शरीर के साथ मन को भी
पसीने से भर देता है
पसीने में सिर्फ दर्द इकट्ठा कर पाता है
शाम तक सर का पगड़ी खोलकर
बिखरे भाग्य बटोरने घर आता है
चाहता तो है शब्दों के कुछ टिकोले
परिवार में बांटकर हंस ले
चाहता तो है भाषा में थकान के बजाय
उन्मुक्त सरसता हो जीवन का संचय लिए
मजदूर मिट्टी में जन्म लेकर
मिट्टी को ही तरसता
दुर्भाग्य के सिरहाने पसर जाता है
रात विरहन-सी शरीर से लिपटी रहती है
दुःख उसके बर्तन में खेलता रहता है
सुबह सोचता है बेवजह सोचता हूं
सोचने से शब्दों का भार देह पर गिरता है
देह पर तो मालिक का असर होता है
रमेश श्रीवास्तव
What's Your Reaction?






