भारतीय समाज मे नारी का स्थान

स्त्री की पूर्ण. स्वाधीनता का मतलब है,उसकी मानसिक और शारीरिक आजादी एवं उसपर उसका बिना हस्तक्षेप अपना निर्णय लेने का अधिकार।हर क्षेत्र मे अपनी श्रेष्ठता साबित करने के लिए उसे विशेष मेहनत करनी पडती है

Mar 7, 2024 - 13:38
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भारतीय समाज  मे नारी का स्थान
Place of women in Indian society

"यंत्र नारी पूज्यते तत्र ,देवता वसते" के वैदिक मंत्र पर आधारित सनातनी समाज आज किस ओर विमुख हो चला है,यह एक चिन्तनीय विषय है।नारी को देवी समझ पूजने वाली मानसिकता कहां खो गई ,इतिहास की धरोहर हो गई। समाज बस उसे लांछित कर भोग्या समझने को तत्पर रहता है।उसकी मान-मर्यादा  को रौंदने के लिए तमाम अटकले लगाये जाते रहे है।शुरु से एक लडकी अपनी पसंद,नापसंद और अपने व्यक्तिगत विचारों को ना समाज को समझा पाती है और न उनपर अपनी भावनापूर्ण चल पाती है।वह रिश्तो मे मनमानियां और ज्यादतियों को झूठे रिवाज और चलन के नाम पर सह तो जाती है पर अपनी मनमर्जियों के लिए खुद को सक्षम नहीं पाती।लोक-लाज के सारे लक्ष्मण-रेखा सीता के जमाने से ही उसका पीछा नहीं छोड रहे है।

भारतीय समाज मे विवाह सबसे पवित्र और बडा संस्कार माना गया है।एक स्त्री-पुरुष का मिलन और रिश्ते पर ही पूरे समाज का कारोबार टिका है।पर दहेज दानव इस रिश्ते की खुबसुरती को निगल जाता है।दहेज लेना और देना दोनों निदनींय अपराध होने बावजुद लडके के लालची परिवार उसकी  शादी मे भरपुर कीमत वसुलता है,लडकी के परिवार से।

कितनी बडी विडम्बना है आज की हर तरह से सक्षम,लायक और मजबूत होते  हुए भी इस अपमान जनक परंपरा को झेलने को विवश है।क्या पुरुषासात्मकसमाज अपनी श्रेष्ठता सिर्फ स्त्री जाति को निम्न दिखाकर ही प्राप्त कर सकता है समझ नहीं आता।कितनी मासूम लडकियों का पिछले दशको मे इस दहेज दानव ने बली ली,गिनती नही कर सकते।समाज के हर वर्ग और तबके मे इसका भिन्न- भिन्न स्वरूप और रूप प्रचलित है  इस तथ्य से  कोई इंकार नही कर सकता। अमीरों की शान है दहेज  तो गरीबों का बोझ..पर किसी न किसी शक्ल मे मौजूद हर जगह और  ,सबके मानसिकता का अंग है...दहेज।

नारी का समाज मे स्थान ,भारतीय समाज को सच्चा आईना दिखाने वाला एक ज्वलंत मुद्दा है।
भारत मे आज इक्कसवीं सदी मे,आज भी स्त्री को समानअधिकार और हक की बातें बेमानी सी लगती है।हमारा समाज इतना परिपक्व और संतुलित नहीं हो पाया हैजो नारी को उसकी जिन्दगी जीने के लिए यथोचित सम्मान और अधिकार दिला दे।इसमे गलत सोच,और असमानता के रवैया का बडा हाथ है।लडकी को बचपन से पूरी स्वतंत्रता नही मिली अपनी जिन्दगी के वो बडे
फैसले ले सके।यदि किसी कारणवश उसकी शादी गलत इंसान से है जाती है या वो विधवा हो जाती है तो उसके सर पर एक समाज की एक तीखी कटारी आ पड़तीं है।

हमारा संकीर्ण समाज उसकी जिन्दगी को कटघरे मे ला खडा करता है।उसपर शक और उपेक्षा की दृष्टि से व्यवहार शुरू हो जाता है,जिसमे उसकी कोई गल्ती नहीं।अतः सुरक्षा ,सम्मान और आदर के साथ जीने के लिए ,चाहे तलाक हो या उसका पति मर जाय,एक स्त्री को पूरा हक है कि वह उसी शान  और हक से अपनी दूसरी शादी करे जिस हक से एक पुरूष करता है।
नारी का स्थान और इज्ज़त अभी हमारे भारतीय समाज मे एक पुरुष सत्तात्मक व्यवस्था से बहुत ऊपर और अलग  नही उठ पाया।कभी  उसकी पहचान उसकी सिर्फ अपनी होगी ,नाम के  कुछ  गिनती और अपवाद छोडकर ,यह विचारनीय विषय है।वह किसी की बेटी,बहन,मां ,फिर पत्नी के अलावा ,खुद मे एक संपूर्ण शख्सियत है,ऐसा सोच पाना अभी भी मुश्किल है।एक अकेली औरत,एक अकेली लडकी होने  का जुमला सदियों से भारतीय जन मानस पर आरूढ़ है,जिसे मिट्टा पाना सहज नहीं है।लोग ताक मे रहते है कि कैसे एक स्त्री मे वो स्वाभाविक स्वाभिमान और साहस बल कम हो जो उसे स्वतंत्र रूप से फैसला लेने का बल देते है।

स्त्री की पूर्ण. स्वाधीनता का मतलब है,उसकी मानसिक और शारीरिक आजादी एवं उसपर उसका बिना हस्तक्षेप अपना निर्णय लेने का अधिकार।हर क्षेत्र मे अपनी श्रेष्ठता साबित करने के लिए उसे विशेष मेहनत करनी पडती है।लोग सहजता से या तो उसे त्याग, करूणा,ममता की देवी बनाना चाहते है या फिर असहाय, अबला और बेचारी की श्रेणी मे ला खडा करना चाहते है।बराबरी का दर्जा द़ेना अभी भी सामान्य प्रचलन मे नही आ पाया है,जबकि आज की नारी हर क्षेत्र मे अपनी विशेष प्रतिभा और कौशल का भरपूर परिचय दे रही है।

दहेज,बलात्कार और छेडछाड की घटनाओं पर पूर्णतः रोक लगा कर और दंडात्मक करवाई करके ही  उसकी
सुरक्षा और सम्मान को बचाया जा सकता है।विधवाओ को भी पूरा जीने का हक देते हुए
पुर्नविवाह  भी एक सर्वमान्य परंपरा के तौर पर स्वीकारा जाना चाहिए।ऐसी शिक्षा सार्वजनिक तौर पर प्रसारित और एक अभियान के रूप मे फैलाना चाहिए कि लोग घर से बेटी को पूरा अधिकार और सम्मान देना सीख और समझ ले।

अर्चना श्रीवास्तव 'आहना'

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