'प्रेम' गर्भ है; ध्यान, धारणा एवं समाधि का
हमारा प्रेम चेतना की प्रखर और शुद्धतम अवस्था है। यह बौद्धिक अथवा तार्किक नहीं है। यह सत्य के शिखर पर अवस्थित और अपेक्षा, उपेक्षा एवं आग्रह अथवा आसक्ति और विरक्ति से रिक्त दिव्यतम अनासक्त भाव है।
सुनों वीरा, हमारा जो यह प्रेम है न, यह शुद्धतम चेतना का समग्र बिंब है, जिसका कोई स्थूल, सूक्ष्म अथवा कारण आधार नहीं है और न ही कोई अवधारणागत संरचना। यह बोध है बुद्धत्व को प्राप्त हो चुके योगियों का। हमारा ’प्रेम’ पूर्णता का प्रमाण है। यह सत्य के अन्वेषण से उपजी आभा है। यह चेतना की समग्र यौगिक अनुभूति है, जिसमें लीन तो हुआ जा सकता है पर इसका सोपान संभव नहीं है।
हमारा ’प्रेम' गर्भ है; ध्यान, धारणा एवं समाधि का। यही तो है हमारे साक्षीत्व बोध का 'रस'। हमारे ब्रह्मरंध्र में बहनेवाली अमृतधारा है ’प्रेम'। यही हमारे जीवन का काव्य और संगीत है। द्वैत और अद्वैत, भक्ति और ज्ञान, शून्य और अनंत की हमारी साधना को सींचने वाला द्रव्य है "प्रेम"। ’प्रेम' हमारी आत्मा का प्रकाश है, यह अनहद अनुनाद है। यह हमारे परिपूर्णता की कसौटी और बोध की श्रेष्ठतम अवस्था है।
अभिव्यक्ति से परे हमारे इस प्रेम का, गहरी संवेदनाओं के स्पर्श से थोड़ा आभास भर पाया जा सकता है। सांसारिक सूत्रों और संबंधों के आधार से इसकी कोई व्याख्या अथवा मीमांसा प्रस्तुत नहीं की जा सकती। अहंकार जनित समग्र अस्तित्व के विघटित होकर शून्य हो जाने पर यह चैतन्य अहोभाव स्वतः प्रकाशित होकर समष्टि और व्यष्टि को प्रकाशित कर देता है और अनंत की यात्रा प्रारंभ हो जाती है।
हमारा प्रेम चेतना की प्रखर और शुद्धतम अवस्था है। यह बौद्धिक अथवा तार्किक नहीं है। यह सत्य के शिखर पर अवस्थित और अपेक्षा, उपेक्षा एवं आग्रह अथवा आसक्ति और विरक्ति से रिक्त दिव्यतम अनासक्त भाव है। अगर अपने यौगिक प्रयासों के क्रम में कोई इसे अनुभूत कर पाए तो तृप्ति का अनहद नाद उसके भीतर शीघ्रता से जाग्रत हो जाएगा और निश्चय ही प्रेम के वह दिव्यतम साक्षात्कार उसकी आध्यात्मिक जिजीविषा को पूर्ण कर उसे मुमुक्षुता का आग्रही बना देगा।
सुनों वीरा, प्रेम के गहरे सागर में लीन होकर हम भावात्मक रूप से यह यह जान चुके हैं कि हम केवल शरीर मात्र नहीं अपितु शुद्धतम चेतना का विस्तार हैं। हम दोनों साक्षात्कार के बोध से स्वयं को एक दूसरे से भिन्न अनुभव नहीं करते और एकात्मबोध की दिव्यतम अनुभूति से तृप्त हैं। प्रेम के इस गाढ़े सागर में हमनें स्वयं को देख लेने की प्रज्ञा पा ली है। हमारे लिए हमारा प्रेम ही परमात्मा है जिसके आश्रयभूत होकर हमने आनंद के परम वैभव को पा लिया है। ’प्रेम’ परमात्मा का ऐश्वर्य है और सत्य का प्रकाश है। सत्य के इस अलौकिक प्रकाश में हमनें यह अनुभूत किया है कि
”तुम और मैं संसार में नहीं, संसार के संबंधों में नहीं, शरीर रचना में नहीं, प्राणों में भी नहीं; जीवन के किसी विधान में नहीं बल्कि एकात्मबोध से समस्त पदार्थ प्रपंचों से भिन्न शुद्धतम एवं परम पवित्र परिवर्तन रहित चेतना का विस्तार हैं जो अद्वैत बोध से एक दूसरे में समाहित और आनंदित हैं”।
सादर
आचार्य पावन महाराज
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