हर दौर में समाज सुधारक हुए और उन्होंने समाज में फैली कुरीतियों के खिलाफ़ आवाज उठाई और समाज की बेहतरी के लिए काम किया जिसकी वजह से उन्हें कड़ा विरोध झेलना पड़ा। 19वीं शताब्दी में एक ऐसे ही समाज सुधारक हुए जिन्हें हम ज्योतिबा फुले के नाम से जानते हैं।
ज्योतिबा गोविंदराव फुले का जन्म 11 अप्रैल 1827 को पुणे के एक माली परिवार में हुआ था। परिवार द्वारा फूलों का काम करने के कारण इन्होंने फुले उपनाम अपनाया। एक वंचित वर्ग में जन्म लेने के कारण उन्हें समाज में तिरस्कार का सामना करना पड़ता था। उच्च वर्ण के लोग माली जाति का होने के कारण इनके साथ भेदभाव किया करते थे।
19वीं सदी में स्त्रियों का शिक्षा लेना जरूरी नहीं समझा जाता था। वे महिलाओं और पुरुषों के बीच इस भेद को मिटाना चाहते थे। महिलाओं की दशा देखकर उन्हें बहुत दुःख होता था। जिसे बदलने का उन्होंने निर्णय लिया। एक कहावत है कि अंधेरा मिटाने की शुरुआत सबसे पहले अपने घर से करनी चाहिए तभी हम बाकी जगह रोशनी कर पाएंगे बस इसी से प्रेरित होकर ज्योतिबा फुले ने इस बदलाव की शुरुआत सबसे पहले अपने घर से की और उन्होंने अपनी पत्नी सावित्रीबाई फुले को शिक्षित किया।
समाज में फैली कुरीतियों की वजह से किसी भी वर्ग की महिलाओं को शिक्षा लेने का अधिकार नहीं था। शिशु हत्या चरम पर थी। ज्योतिबा फुले बहुत ज्यादा पढ़े लिखे नहीं थे लेकिन उन्होंने कन्याओं को शिक्षित करने के लिए पुणे में पहला विद्यालय खोला।
नवजात शिशुओं की हत्या रोकने के लिए अनाथ आश्रम खोले। इन्होंने हिंदू धर्म के सभी वर्गों को साथ लाने का प्रयास किया। इसके लिए उन्हें अपने देश और स्थानीय लोगों के अलावा अंग्रेजी शासन से भी टकराना पड़ा। इसके अलावा उन्होंने बाल विवाह का विरोध किया और विधवा विवाह को भी समाज में स्वीकार्य बनाने के लिए प्रयास किए। वे समाज को अंधविश्वास और पुरानी कुप्रथाओं से मुक्त करना चाहते थे।
ज्योतिबा फुले ने 1848 में महाराष्ट्र के पुणे में पहला बालिका विद्यालय खोला क्योंकि ज्योतिबा फुले का मानना था कि देश और समाज की तरक्की तभी हो सकती है जब महिलाएं शिक्षित हों। जिस समय ज्योतिबा फुले ने इस विद्यालय की शुरुआत की उस समय उनकी उम्र मात्र 21 वर्ष थी। जब महिलाओं का विद्यालय खोलने के लिए ज्योतिबा फुले को जगह नहीं मिल रही थी तब उनके मित्र उस्मान शेख ने अपने घर का एक कमरा विद्यालय खोलने के लिए उपलब्ध करवाया। बालिका विद्यालय के लिए जब कोई शिक्षिका नहीं मिल रही थी तो ज्योतिबा फुले ने अपनी पत्नी सावित्रीबाई फुले को ये जिम्मेदारी दी। इसमें इनका साथ उस्मान शेख़ की बहन फ़ातिमा शेख़ ने भी दिया। अफसोस की बात यह थी कि उनके समाज के लोगों ने भी उनके इस क्रांतिकारी प्रयास में साथ देना तो दूर उनका और उनकी पत्नी का लगातार विरोध ही किया। उच्च वर्ण के तो अधिकांश लोगों ने सारी हदें पार कर गाली, गलौज, धमकियां दीं।कीचड़, मैला तक फेंका और फिकवाया क्योंकि उनके अनुसार नारी शिक्षा और शूद्रों की शिक्षा का काम तो धर्म विरुद्ध था।
सन 1851 में ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले ने दूसरा विद्यालय खोला। इसी तरह से लगातार 5 विद्यालय फुले दंपति ने खोले थे। ये विद्यालय हर वर्ण की महिलाओं की शिक्षा ग्रहण करने के लिए थे।
उस समय समाज में विधवाओं की हालत बहुत ही ज्यादा खराब हुआ करती थी। ज्योतिबा फुले ने विधवा विवाह के लिए भी अथक प्रयास किया। विधवा महिलाओं को उनके घर से निकाल दिया जाता था। उन्होंने गर्भवती विधावाओं के लिए एक घर शुरू किया। जहाँ समाज से निकाली गई ऐसी महिलाएं आकर रह सकें और अपने बच्चे को जन्म दे सकें। उनकी देखभाल सावित्रीबाई फुले किया करती थीं।
एक ब्राह्मण विधवा महिला जिसका नाम काशीबाई था और जो कि गर्भवती थी जब उसके गर्भ गिराने के सारे प्रयास नाकाम हो गए थे तो अपने बच्चे को जन्म देने के बाद उसने अपने हाथों से उसे कुएं में फेंककर मार दिया था। इस घटना ने ज्योतिबा फुले को काफी व्यथित किया। उसके बाद उन्होंने अपने मित्र सदाशिव भल्लाल गोविंदे और पत्नी सावित्रिबाई के साथ मिलकर शिशु हत्या को रोकने के लिए विशेष प्रयास और प्रचार किया जिसमें विधवाओं से अपील की गई थी कि वे उनके बताए घर में आकर अपने बच्चे को सुरक्षित रूप से जन्म दे सकती हैं।
ज्योतिबा ने दलितों और वंचित तबके को न्याय दिलाने के लिए 1873 में 'सत्यशोधक समाज' की स्थापना की। यह एक छोटे से समूह के रूप में शुरू हुआ और इसका उद्देश्य शूद्र एवं अस्पृश्य जाति के लोगों को कुरीतियों से मुक्त कराकर उन्हें शिक्षा और सामाजिक समानता प्रदान करना था। ज्योतिबा फुले ने 'गुलामगिरी' एक किताब लिखी जो ऊंच नीच के भेद को मानने वाले विचार को हर पल कटघरे में खड़ा करती है और उस पर अपना चाबुक चलाती है।
यह भी पढ़े -
हिंदी से हृंग्लिश बन गई वो
https://sahityanama.com/It-became-english-from-Hindi
ज्योतिबा फुले कहते थे कि मंदिर का मतलब होता है, मानसिक ग़ुलामी का रास्ता और विद्यालय का मतलब होता है जीवन में प्रकाश का रास्ता। मंदिर की घंटी जब बजती है तो हमें गुमराह करती है कि हम धर्म, अंधविश्वास, पाखंड और मूर्खता की ओर बढें इसी से इहलोक और परलोक सुधरेगा। वहीं जब विद्यालय की घंटी बजती है तो हमारा आह्वान करती है कि हम तर्कपूर्ण ज्ञान और वैज्ञानिकता की ओर बढें तभी हम प्रगति कर सकेंगे, तभी हम सच्चे मनुष्य बन सकेंगे और तभी हम किसी भ्रम के शिकार हुए बिना बेहतरीन जीवन जी सकेंगे। तय आपको करना है कि आपको जाना कहाँ है।
ऐसे महान विचारक, मौलिक चिंतक, निर्भीक समाजसुधारक का परिनिर्वाण 28 नवंबर 1890 को पुणे में हुआ।
यह रचना मौलिक और अप्रकाशित है।
नाम- प्रतिमा चक
पता- बर्रा, कानपुर नगर