इतिहासबोध : राजनीति में महिला और महिला की राजनीति

ब्रिटेन में कैंब्रिज यानी विश्व प्रसिद्ध विद्याधाम। दुनिया को विज्ञान और मुक्ति का पाठ पढ़ाने वाले कैंब्रिज में शुरू में महिलाओं को पढ़ने के लिए प्रवेश नहीं मिलता था। सदियों बाद उन्हें प्रवेश मिला। पर पढ़ाने वाले अध्यापकों में महिलाओं के होने के बावजूद महिलाओं को शासन की ओर से डिग्री नहीं दी जाती थी।

Nov 6, 2023 - 19:51
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इतिहासबोध : राजनीति में महिला और महिला की राजनीति
वीरेंद्र बहादुर सिंह 
ब्रिटेन में कैंब्रिज यानी विश्व प्रसिद्ध विद्याधाम। दुनिया को विज्ञान और मुक्ति का पाठ पढ़ाने वाले कैंब्रिज में शुरू में महिलाओं को पढ़ने के लिए प्रवेश नहीं मिलता था। सदियों बाद उन्हें प्रवेश मिला। पर पढ़ाने वाले अध्यापकों में महिलाओं के होने के बावजूद महिलाओं को शासन की ओर से डिग्री नहीं दी जाती थी। वेदों में ऋषिकाएं हों और माताजी की पूजा हो रहो हो या दूसरी पत्नी मैत्रेयी के साथ चर्चा करते ऋषि याज्ञवल्क्य की बातों का वृहद आरण्यक उपनिषद हो, गार्गी से जाबादि, गंगा से लोपामुद्रा, सीता से द्रोपदी तक के चरित्र हों, फिर भी अंग्रेज भारत की शिक्षा से सिविलाइजेशन सिखाने की बात करते थे। खैर, ब्रिटेन में तो मताधिकार ही महिलाओं को संसदीय लोकतंत्र के सदियों बाद 1928 के अंत में मिला था। आभार मानिए गांधी, अंबेडकर, सरदार, नेहरू आदि का कि भारत में स्वराज के साथ ही महिलाओं लोकतंत्र में समान हिस्सा मिला। हिंदू कोड बिल द्वारा हिंदू महिलाओं को आत्मनिर्भरता मिली। लेकिन उतनी मुस्लिम महिलाओं को नहीं मिली, यह एक अधूरा काम है।
पर जब ब्रिटेन में महिलाओं को मताधिकार या अमुक समय शिक्षा का अधिकार नहीं था, उस समय भी सब से लंबा और प्रभावशाली शासन करने वाली दो महिलाएं थीं, जिन्होंने ब्रिटेन को ग्रेट बनाया। शेखर कपूर ने जिन पर फिल्म बनाई, वह क्वीन एलिजाबेथ पहली और जिनका असर आज भी भारत पर है, वह क्वीन विक्टोरिया। यानी अगर महिलाओं को मौका मिले तो राजनीति में भी चौका मार सकती हैं। पुरुष प्रधान धार्मिक समाज में भी।
लोकसभा में बारबार आवाज उठाई गई कि महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण होना चाहिए। लेकिन कभी किसी पार्टी ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया। हमारे देश के शासन में केवल एक तरह का आरक्षण हो सकता है- गुणवत्ता, योग्यता, दीर्घदृष्टि, विद्वता, बुद्धिमत्ता, राष्ट्रीयता और ईमानदारी निष्ठा वाले लायक नागरिकों का।
पर अमुक सांसदों का व्यवहार देख कर संसद या किसी भी सभा में महिलाएं बढ़ जाएं तो कम से कम थोड़ी गरिमा तो बढ़ ही जाएगी। बाकी आरक्षण नहीं था, तब भी महिलाएं पुरुषों की मुट्ठी से निकल कर राजनीति में महान बनी हैं।
अमुक अनपढ़ गंवार जो हिंदुस्तान में राजनीति में अपने परिवार की महिलाओं की साड़ी में छुप कर खेलने के गलत स्वार्थ की खातिर अलग ही आरक्षण के बिना भी लालूप्रसाद ने राबड़ीदेवी को बैठा दिया था, इस तरह फैमिली फीमेल को आगे कर के इसमें कोई वीमेन एम्पावरमेंच नहीं है। पावर पुरुष के पास से निकाल न जाए, यही घटियापन होता है। हम ने तो यह भी देखा है कि मायावती और जयललिता जैसी महिलाओं ने अकेले दम पर जीत हासिल की है। बाद में भ्रष्टाचार की वजह से भले ही किनारे लग गईं। आनंदीबेन पटेल या ममता बनर्जी या सीतारामन या रेणुका चौधरी या उमा भारती बिना किसी पारिवारिक पृष्ठभूमि यानी बिना किसी पॉलिटिकल फैमिली बैकग्राउंड के बिना अपनी ताकत से राजनीति में शिखर पर पहुंची हैं। पर सोनिया गांधी, महबूबा मुप्ती, मीरा कुमार शीला दीक्षित, वसुंधरा राजे, डिम्पल यादव आदि को परिवार के नाम का प्लेटफार्म मिला है।
जबकि भारत के भूतकाल पर नजर डालें तो पता चलता है कि बिना किसी पारिवारिक प्लेटफार्म के ही महिलाओं ने राजदंड धारण किया है। वह भी ऐसे समय में जब महिलाएं केवल घर की शोभा होती थीं। (जबकि यहां राज्याभिषेक के समय पत्नी अनिवार्य होती थी, पर केवल शोभा के लिए) बंगाल आसाम की ओर पूरी तरह से महिला शासित कामरू प्रदेश की कहानियों से डरने वाले पुरुषों ने मध्ययुग में उन्हें तांत्रिक और जादूगरनी बना दिया था। महाभारत में अर्जुन की महिला शासक पत्नी चित्रांगदा की दंतकथा माने तो ठोस इतिहास चाहिए।
1671 में कर्नाटक के मलेनाडु इलाके में राजा सोमशोखर नायक की मित्रद्रोह के कारण अकाल हत्या कर दी गई थी। तब उनकी वैश्य व्यापारी की बेटी फिर भी क्षत्रिय विधवा हुई पत्नी चेन्नम्मा ने शासन संभाल लिया था। राजगद्दी के असंख्य उत्तराधिकारियों के मंसूबों पर पानी फेर दिया था। निसंतान पति के हत्यारे मित्र को देहांतदंड दे कर चेन्नम्मा ने मिर्च और चावल के बदले डच सौदागरों से अरबी घोड़ा और हथियार खरीद कर सेना को मजबूत बनाया था और औरंगजेब से छुप कर भागे शिवाजी के पुत्र राजाराम को मुगल सेने के सामने आ कर आश्रय दिया था और 25 सालों तक शासन कर के दिखाया था। कर्नाटक में ही एक दूसरी चेन्ना भी चेन्नम्मा बनी और जनता की आराध्यनायिका की तरह पूजी गई।
बेलगांव से 8 किलोमीटर दूर किन्नुर के राजा मल्लाराजा की दूसरी पत्नी के रूप में उनके महल में 16 साल की उम्र में आई इस चेन्ना के पति को पेशवा ने बंदी बनाया तो बीमारी की वजह से उनकी मौत हो गई। इसके बाद सौतेले बैटे शिवलोक ने अंग्रेजों की मीठीमीठी बातों में आकर संधि कर ली। शिवलोक की मौत के बाद प्रौढ़ चेन्ना ने गद्दी संभाली। पहला काम अंग्रेजों के पॉलिटिकल हस्तक्षेप को खत्म किया। बातों और विचारों में उस समय महिला सम्मान और महिला उद्धार की बड़ी झंडाबरदार बन कर घूमने वाले ब्रिटिशरों को भारत की इस तरह की प्रगतिशील नारियां जरा भी नहीं अच्छी लगीं।
अंग्रेजों से खुलेआम युद्ध लड़ कर एजेंट थैकरे को चेन्ना ने 1824 में हराया और मारा। याद रहे कि 1857 के स्वाधीनता संग्राम के 33 साल पहले ब्रिटिशरों के सामने विप्लव का झंडा भारत भर में पहली बार उठाने वाली एक महिला शासक थी। वह किसी आरक्षण की लाठी के सहारे के बिना खुद्दारी से सिंहासन तक पहुंची थी। आखिर ब्रिटिशरों ने इस चिनगारी को बुझा ही दिया था। 23 साल की झांसी की वीर साम्रज्ञी महारानी लक्ष्मी की तरह ही आधुनिक माने जाने वाले अंग्रेज बालराजा को तो स्वीकार कर लेते थे, पर विधवा रानी को नहीं मानते थे। इन दोनों चेनम्मा के बीच के समय में 1730 के आसपास पैदा हुए इंदौर के पाटवीकुंवर की रानी बनने वाली अहिल्याबाई ने ससुर मल्हारराव होल्कर और प्रयत्नों के प्रताप पति और ससुर के निधन के बाद इस तरह आसानी से अकेले शासन किया कि उनकी वीरगाथाएं और स्मृतियां अभी भी लोकजीवन में फैली हैं और इन सभी घटनाओं के शताब्दियों पहले 1233 में रूढ़िवादी और महिला समानता के मुद्दे पर जो आज भी आलोचना के पात्र हैं- और ईरान में हिजाब को जरूरी मानने के मुद्दे पर कट्टरवादी मुल्ला मार डालते हैं, उस इस्लाम में हिंदुस्तान में रजिया सुल्तान नाम की प्रथम नारी शासक का उदय देखा था। धर्म, परंपरा, कायदा-कानून, दुश्मन और जनता के मत से बाहर जाकर एक समय गुलाम रह चुके दिल्ली नरेश इल्तुमश ने सभी के विरोध के बावजूद विरोधियों के मुंह पर तमाचा जड़ते हुए बेटी रजिया के हाथ में हिंदुस्तान की कमान सौंपी थी। पर रजिया ज्यादा दिनों तक गद्दी पर टिक नहीं पाई। रानी दुर्गावती से नायिकादेवी तक अनेक चरित्र अपने पास हैं।
महिलाएं राजनीति में पति, पिता या परिवार के जोर पर आ तो सकती हैं, पर अगर खुद में क्षमता होगी तभी अपनी पहचान बनाकर अपनी स्वतंत्र मिसाल प्रज्ज्वलित कर इतिहास के अविनाशी पृष्ठों पर अपनी छवि अंकित कर सकती हैं। पिछले दशकों में दूनिया भर में सशक्त और सर्वसत्ताधीश या फरमुख्त्यार मिजाज की महिला भाग्यविधात्री देखी हैं। अभी न्यूजीलैंड में दुनिया भर में लोकप्रिय होने के बाद परिवार के लिए इस्तीफा देने वाली जेसिंडा आर्डन या फिनलैंड में मात्र 34 साल पार्टी करते करते प्रधानमंत्री होने वाली साना मरीन हार गईं। अभी जी-20 में आने वाली तमाम भारतीयों का दिल जीत लेने वाली इटली की अपेक्षा युवा प्रधानमंत्री जीओजया मेली की प्रधानमंत्री के साथ पार्क में जोशीली मुलाकात कर के छा जाने वाली डेनमार्क के मेटे फ्रेडरिक्शन तो याद होंगी ही। ब्रिटेन में भी क्वीन एलिजाबेथ द्वितीय के समय में ही वहां की संसद में विंस्टन चर्चिल जिनका स्टेच्यू है, वहां तमाम सांसद झुकते हैं। वह मार्गरेट थेचर आयरन लेडी के रूप में लीजेंड बन गईं। इसके बाद थेरेसा में या जिज ट्रस को ऐसी प्रसिद्धि नहीं मिल पाई। पर यूरोप में बेजोड़ अविजित शासक के रूप में जर्मनी में एंजेला मार्केल का शासन ऐसा था कि जब तक वह निवृत्त नहीं हुईं, उन्हें कोई हरा नहीं सका अंर जर्मनी एक बार फिर स्ट्रांग शासक बन गया। इजरायल में पड़ोसी अरब राष्ट्रों ने अचानक युद्ध में आने पर धूल चटाने वाली लेडी गोल्डी मीर पर फिल्म आने वाली है।
इंडिया इज इंदिरा जिन्हें कहा गया, उनके लिए अटलबिहारी वाजपेई ने बांग्लादेश बनने के बाद 1971 में दुर्गा कहा था वह इंदिरा गांधी। नेहरू की बेटी होने की वजह से कैबिनेट में आईं गूंगी गुड़िया की अपनी पहचान को खत्म कर देश पर एकछत्र शासन कर दिखाया। कटाक्ष में कहा जाता था कि भारत की राजनीति में इंदिरा ही एकमात्र 'मर्द' हैं। हमारे पड़ोस में रुढ़िवादी मुस्लिम देश माना जाने वाला पाकिस्तान आखिर है तो भारत का ही हिस्सा, इसलिए वहां भी बेनजीर भुट्टो ने भी अपने दम पर सत्ता प्राप्त की और अब उनकी पार्टी पर बेटा राज कर रहा है। पाकिस्तान से अलग हुए बांग्लादेश में तो खालिदा जिया और शेख हसीना के बीच ही सत्ता की जंग थी। जिसमें हसीना आगे निकल गईं। श्रीलंका में तो मां-बेटी सिरिमावो भंडारनायके और चंद्रिका कुमारतुंगा देश की प्रमुख बनीं। म्यानमार में आंग सान शू की आज भी जेल में हैं, पर उनकी क्रांति से इतिहास अंजान नहीं है। थाइलैंड और साउथ कोरिया ने भी आलरेडी इक्कीसवीं सदी में महिला नेतृत्व देख लिया है। 
पर पूरी दुनिया में फ्रीडम और इक्धालिटी का झंडा ले कर घूमने वाला अमेरिका अभी भी फीमेल प्रेसीडेंट के लिए रूढ़िवादी है। हिलेरी भी उसकी सीढ़ी तक इसलिए पहुंचीं कि पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की पत्नी थीं। पर हार गईं। कमला हेरिस तो जो बाइडन की अपेक्षा बहुत तेज हैं और हमारे लिए गौरव की बात है कि वह मूल भारतीय हैं। पहले गवर्नर रह चुकी और प्रेसीडेंट बनने की इच्छा रखने वाली हेली और तुलसी गबार्ड भी मूल भारतीय हैं। इसका मतलब यह है कि भारतीय महिलाओं के खून में राजनीति रचीबसी है, बस चांस मिलना चाहिए। बीसवीं सदी के इन नामों के उपरांत कोरीजोन इक्विनो (फिलीपींस), डा.मारिया दा लुर्द पिंटाचिल्गो (पोर्टुगल), मेरी रोबिंसन (आयरलैंड), पिडिसन फिन भोगेडोटार (आइसलैंड), ग्रो हार्लेम ब्रुटलैंड (नाॅर्वे), अडी फुइनी बावद्रा ( फिजी), इसिबेन एजेने (चिली), क्रीम काम्पबेल (कनाडा), तान्सु सीलर (तुर्की), अगाथा अनरीलीबजयाम्बी (रवांडा), मारिया एस्टेला (अर्जेंटीना), वायोलेटा बारिओस (निकारागूआ) जैफी फीमेल के पावर का अनुभव किया है। अभी यह लिस्ट और लंबी हो सकती है। इस सूची में दक्षिण एशिया के तीसरे विश्व के पुराने परंपरावादी, नारीमुक्ति के नाम पर मुंह बिचकाने, गरीब और भ्रष्टचारी पश्चिमी लेबल के लिए इन राष्ट्रों ने प्रतिकूल बहाव के बीच भी एक दो ऐतिहासिक महिलाओं को प्रधानमंत्री पद पर पहुंचते और टिके रहते देखा है। पर बात विगतवार की जाए तो आधुनिक और नारी स्वतंत्रता में पृथ्वी ग्रह पर सब से आगे रहने वाले अमेरिका के प्रमुख पद पर आज तक कोई महिला नहीं बैठी है।
शायद राजनीति में आगे आने की प्रेरणा देता चालकबल समानतावादी समाज या अलगाववादी आरक्षण नहीं, खुद की पहचान बनाने के लिए सामंतशाही पुरुषप्रधान मानव के साथ निरंतर किया जाने वाला संघर्ष होगा। जिसे पिछड़े देशों में नारायणी समान नारियों द्वारा पुरुष राजनीतिज्ञों की बकरी की भांति देखा जाता है। क्लियोपेट्रा (इजिप्त) से लेकर मेराइन (फ्रांस) तक का एक भी यादगार महिला नेतृत्व सत्ता की गली में भीख की तरह मांगने नहीं गई। पर उन्हें सत्ता की जरूरत पड़ती तो पुरुषों के हाथ से छीन लेना भी आता था। एनी बेसेंट (1910 तथा 1925) या नीली सेन गुप्ता (1933) कांग्रेस अध्यक्ष रह चुकी हैं। राष्ट्रध्वज की डिजाइन के बारे में विचार करने वाली कामा या राजकुमारी अमृत कौर जैसे व्यक्तित्व ने अपने दम पर नाम कमाया। 1994 में कोर्नेलिया सोराबजी नाम की हिंद प्रथम महिला वकील बनीं, जिन्हें 1923 में प्रैक्टिस करने की मंजूरी मिली। 1926 में महिलाओं को ब्रिटिशरों को शर्ती मताधिकार मिला, बाद में मार्गरेट कजींस द्वारा स्थापित इंडियन वूमंस एसोसिएशन के प्रतिनिधि के रूप में महिला उम्मीदवारों ने विधान परिषद के स्थानीय चुनाव में बिना आरक्षण के हिस्सा लिया। मद्रास लेजिस्लेटिव काउंसिल में डा.श्रीमती मुथुस्वामी रेड्डी उपप्रमुख चुनी गईं। आज तक सैकड़ो महिलाएं राज्यपाल, सांसद, मंत्री, अधिकारी देख चुके भारत ने 1957 में प्रथम स्त्री मेयर या 1950 में प्रथम स्त्री सनदी अधिकारी को पद संभालते देखा है। 1989 में मीर साहब फातिमा सुप्रीम कोर्ट की प्रथम महिला जज बनीं तो सांड्रा या ओ'कुनुर ने अमेरिका में इस तरह का पद संभाला तो दुनिया भर में इस तरह का दूसरा मामला था। अलबत्त 1937 में ही भारत में अन्ना चांडी नाम की महिला को प्रथम मुंसिफ और फिर न्याय आसन संभालते देखा। आनंदीबाई जोशी 19वीं सदी में प्रथम भातीय महिला डाक्टर बनीं। सुमति मोरारजी जैसी साहसी उद्योगपति भी हमने देखा है।
अमेरिका और यूरोप में महिला सांसदों का रेसियो अब सुधर कर 25 से 30 प्रतिशत है। सब से अधिक महिला प्रतिनिधियों में रवांडा या क्यूबा या स्वीडन या मैक्सिको या यूएई जैसे छोटे देश हैं। लेटिन अमेरिका में तो 35 प्रतिशत स्त्रियां ही जनप्रतिनिधि हैं। ऐसे में भारत, चीन, जापान और अमेरिका जैसे बड़े देश उनके सामने बौने दिखाई देते हैं। लेकिन अब भारत नहीं दिखाई देगा। भारत में अब महिला उम्मीदवारों की संख्या बढ़ी है। पर चुनी जाने वाली महिलाओं की संख्या उस हिसाब से नहीं है। आज भी विधानसभा या संसद में ये 10 से 15 प्रतिशत ही होती हैं। ज्यादातर इन्हें महत्वपूर्ण मंत्रालय भी नहीं मिलता। अब 542 में 82 की जगह 181 महिला सांसद होंगी। 2024 के चुनाव के बाद सचमुच ये महिलाओं की चिंता करेंगी तो महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों के लिए तत्काल कानून में संशोधन होना चाहिए। जैसे कि अमुक कौम में महिलाओं के जननांगों को छेदने का रिवाज है या अमुक में विधवा विवाह पर अघोषित प्रतिबंध है। कहीं बुर्का तो कहीं घूंघट जरूरी है। घर में आज भी महिलाएं अंत में खाती हैं, यह कुपोषण है। केवल परंपरागत कपड़े पहनने वाली णहिलाएं ही आदर्श मानी जाती हैं, बाकी की अपनी तरह आधुनिक आनंद करें तो तुरंत उन्हें चरित्रहीन मान लिया जाता है। सांसद बनने वाली नूरजहां या मीमी जैसों को भी जींस पहनने पर सुनना पड़ता है।
स्वयंवर की प्रथा वाले देश में पढ़ीलिखी महिला जीवनसाथी या ससुराल जाने वाली महिला पहनने का निर्णय खुद नहीं ले सकती। वेतन में बराबर काम या नाम होने के बावजूद भेदभाव होता है, महिला अकेली खाने या फिल्म देखने जाने में शरमाती या घबराती है। इस तरह के अनेक मुद्दों पर क्रांति न भी हो तो देख लीजिएगा एक दिन महिलाएं यह हक छीन लेंगी।
बाकी रोटेशन में चलने वाली इस तरह की बैठकें आरक्षण देने का खेल गांव, जिला या नगरपालिकाओं में सालों से चल रहा है। कठपुतली जैसी महिलाएं चुन लिए जाने का नाटक करती हैं, लेकिन उनका काम कोई दूसरा ही देखता है। गरीब या गर्भवती महिला आज भी गांव में रसोई, खेती, सिलाईकढ़ाई, पशुपालन, कपड़ा, सफाई और की देखभाल में 24 घंटे में 18 घंटे बिताती है। महिला सशक्तीकरण के मुद्दे पर मार, क्रूरता या मसाला करने से भारतीय नारी का अन्याय, अत्याचार और असमानता दूर नहीं होगी। इसके लिए साक्षरता ही नहीं, उच्च शिक्षा पर और महिला की सामाजिक-सांस्कृतिक मुक्ति पर ध्यान देना होगा। धार्मिक कारणों से चुन कर आने वाले गोडसेपूजक प्रज्ञा ठाकुर जैसी सांसदों की अपेक्षा अपने बल पर आगे आने वाली बस ड्राइवर नारी जाग्रति का प्रतीक मानी जाएगी। अभी हर क्षेत्र में महिलाएं बहुत पीछे हैं। किसी भी क्षेत्र में हमारे यहां की महिलाएं छोटे से छोटे देशों से पीछे हैं। हमारे यहां अभी भी भ्रूण हत्या होती है। रियल इश्यू सब से बड़ा यह है कि भारत का पुरुष अभी भी रूढ़िवादी है। आज भी घर के कामों की जिम्मेदारी महिलाओं की है। राजनीति में हर राबड़ी के पीछे एक लालू है तो हर जहांगीर के पीछे एक नूरजहां भी है। महिला को परदे के पीछे से राजनीति को प्रभावित करने अगणित घटनाएं इतिहास ने देखा है। पुरुष द्वारा लिए गए असंख्य राजनीतिक निर्णय उसकी मां, पत्नी, बेटी या प्रेयसी द्वारा समझाए या सुझाए देखने को मिलते रहे हैं और मिलते भी रहेंगे। 
तो स्वागत है राजनीति में परदे के पीछे के बदले अधिक महिलाएं आगे आने के श्रीगणेश का। श्वेताश्वेतर उपनिषद तो कहता है शक्तिपूजक भारत का... त्व स्त्री, त्व पुमानसि, त्व कुमार उतवा कुमारी अर्थात
तुम ही स्त्री हो, तुम ही पुरुष हो
तुम्हीं कुमार और कुमारिका भी तुम्हीं हो।

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