मोरपंख के प्रति श्री कृष्ण की प्रीत

‘मोर’ सभी पक्षियों में सुन्दरतम् पक्षी के रूप में धरा पर प्रेम वर्षा की पुकार लिए सभी को मोहित कर देता है। ‘पीव’ ‘पीव’ की पुकार में विरह की टेर है तो ‘नृत्य’ में ‘प्रेम प्राप्ति’ की साधना। आत्मा-परमात्मा की प्राप्ति में जहां अपनी प्रिया के लिए नूतन है तो ‘पीव’पूकार उस प्रकृति में रमे ‘परम्’ की प्राप्ति की प्रीत। मोर का अपने पंखों को खोल नूतन करना अध्यात्म, जीवन दर्शन का गहरा संदेश समाहित है। अपने सारे पंखों को खोज नूतन मनुष्य को मोह, रूढिवादिता से युक्त होने का संदेश है।

Jun 21, 2024 - 13:06
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मोरपंख के प्रति श्री कृष्ण की प्रीत
Shri Krishna's love for peacock feathers

जब हम किसी प्रकृति विशेष के तत्त्व, प्राणतत्त्व का सूक्ष्म विचार करते हैं तो वह ‘मिथक’ का पर्याय बन जाता है। सामान्य रूप से देखें तो मिथक ऐसी परम्परागतता का प्रतीक होता है जिसका संबंध अति प्राकृत घटनाओं और भावों से जुड़ा होता है। यह मानव के समष्टि मन की सृष्टि है जिमसें चेतन की अपेक्षा अचेतन प्रक्रिया का प्राधान्य रहता है। वे परस्पर सहयोग एवं संघर्ष के सूत्रों से बंधे हुए थे और चेतन मानव का मन अज्ञात रूप से प्रकृति की घटनाओं को अपने जीवन की घटनाओं तथा अनुभवों के माध्यम से समझने का प्रयास करता है।
(मिथक और साहित्य- डॉ. नगेन्द्र, पृ. 6, नेशनल पब्लिशिंग हाऊस, नई दिल्ली)
1.जीवन की उमंगता, प्रीत का प्रतीक:- ‘मोर’ सभी पक्षियों में सुन्दरतम् पक्षी के रूप में धरा पर प्रेम वर्षा की पुकार लिए सभी को मोहित कर देता है। ‘पीव’ ‘पीव’ की पुकार में विरह की टेर है तो ‘नृत्य’ में ‘प्रेम प्राप्ति’ की साधना। आत्मा-परमात्मा की प्राप्ति में जहां अपनी प्रिया के लिए नूतन है तो ‘पीव’पूकार उस प्रकृति में रमे ‘परम्’ की प्राप्ति की प्रीत। रंगो की इंद्रधनुषी आभ में प्रकृति के हर रंग, कण का प्रतिनिधित्व करता, जीवन-दर्शन के हर राग, रूप की अभिव्यक्ति लिए हरितिमा धरा की, समृद्धि के रूप में आकाश का नीलापन विराटता जीवन की, नीले की गहराई समुन्द्र की गइराई को संजोए, प्रकाश सी ऊर्जा बैंगनी की रंगत, लाल की लालिमा प्रेम सी लिए, पीला अग्नि की पावकता लिए रंगो की रूनधुन लय में ढला श्री कृष्ण के हृदय में विराजता है। इसी कारण अपने शृंगार में ‘बर्हापीड नटवर वपुः कर्णयो कर्णिकार विभ्रद् वासः कनककपिशं वैयजन्ती च मालाम्।’ मोर के पंखों का मुकुट, कानों में कन्नेर के पुष्प, वैजयन्ती.....चिरमिटियों की माला गले में है, ब्रज छोड़ते समय अन्य उपादान तो पीछे छूट गए किन्तु मोर पंख कान्हा के सिर से ना हटा। ब्रज के गोप-गोपियों, श्री राधा की प्रीति के सम्पूर्ण रंगों को समाहित कर यह मोरपंख सदैव के लिए उनके सिर का सिरमोर बन गया।  पेरियालवार (7वीं सदी अंतिम दशक) के पदों में कृष्ण इसी रूप में मोरपंख धारी है। वहीं सूफी परम्परा में भी इस मोरपंख से आपके सिरपर ‘थपकी’ दी जाती है। जो नाकारात्मक ऊर्जा से आपको दूर रखने काप्रतीक माना गया है। सामान्य तांत्रिक भी झाड़ा लगाने में मोरपंख काम में लेते हैं। प्रीत का प्रतीक आलवार संत यहाँ नप्पिन्नै (कृष्ण की प्रेयसी, तमिल साहित्य में राधा के समान समादृत) को सुंदर मोर पंख सदृश कहा है। कृष्ण को मोरपंख का चंद्र भी प्रिय रहा।
2.जीवन दर्शन का संदेश:- मोर का अपने पंखों को खोल नूतन करना अध्यात्म, जीवन दर्शन का गहरा संदेश समाहित है। अपने सारे पंखों को खोज नूतन मनुष्य को मोह, रूढिवादिता से युक्त होने का संदेश है। जीवन में ‘मध्यम वर्ग’ अथवा सैंद्धातिक रूप को, दो अतियों के मध्य में खड़ा जीव ही मुक्त हो सकता है। तभी जीवन की धुन लय, सुर साधी जा सकती है।
योगः- कर्मसु कौशलम
बिना आसक्ति के कर्म करते रहो।
‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन’
‘प्रत्येक कर्म से बंधन होता है। वह बात नहीं है। कर्म करके उसके फल की इच्छा से ही मन का बन्धन
वे पैदा होता है।’(भारतीय संस्कृति आधार और परिवेश - कलानाथ शास्त्री पृ. 135 श्याम प्रकाशन, जयपुर। )
“अन्वेषण श्रीकृष्ण का करना था-एक बहुआयामी, प्रत्येक श्वास के साथ प्रतीत होने वाले प्रिय व्यक्तित्व
का, क्षण-भर में सुनील नभ को व्याप्त कर, दूसरे ही क्षण गहरे काले अवकाश के उस पार जानेवाले, भार रहित ब्रह्माण्ड को व्याप्त करने वाले एक ऊर्जा-केन्द्र के भी केन्द्र, मोरपंखी, कालजयी, अजर व्यक्तित्व का था यह अन्वेषण!“
(युगन्धर, शिवाजी सावन्त, पृ. 10, भारतीय ज्ञानपीठ )
3.प्रकृति के सन्निकटता का:- साहित्य में जिस तरह आकाश अन्तरिम और पृथ्वी में व्याप्त शक्तियों को देवत्व प्राप्त हुआ है और वह प्राणी के प्राण तत्त्व से जुड़ विशेष तारतम्यता का सौन्दर्य प्राप्त करते हैं खण्ड सौन्दर्य को विराट की पीठिका पर रखकर देखने का संस्कार गहरा है, अतः देवत्व से अभिसिक्त न होने पर भी वे खण्ड अपनी स्वतः दीप्ति से दीपित हो उठते हैं। पृथ्वी, नदी, अरण्य आदि अपनी सत्ता विशेष के कारण ही जीवन के सहचर और किसी व्यापक अखण्ड के अंशभूत रहकर सार्थकता पाते है। वैदिक चिन्तक की तत्त्व-स्पर्शी दृष्टि, सृष्टि की असीम विविधता को पार कर एक तत्त्वगत सूत्र खोज लेती है। मोर पंख के मध्य बना ‘चंद्रोबा’ प्रकृति को (चन्द्र) आभुषण रूप में धारण कर महत्ता प्रदान करता है। पर्वत पर चरती गायें, पर्वत से बहते नदी, झरने, पर्वत पर उगी औषधी रूपी को जीवन में महत्वपूर्ण मान पूजनीय बना दिया कृष्ण ने। गोवर्धन को लोक हृदय में गहरे  बैठा दिया।(भारतीय संस्कृति के स्वर-महादेवी, पृ. 95, राजपाल एंड संस-दिल्ली)
4.लोक जीवन की धाति के रूप मेंः-  लोकतत्व - कृष्ण-पूर्ण अवतार है उनका बहुआयामी रूप जो व्यक्ति के समस्त व्यक्तित्व को स्पर्श करता है। कृष्ण के पृथक-पृथक रूप से सब अपने व्यक्तित्व अनुसार उनसे प्रेम करते है। अशिक्षित, ज्ञानी, अधर्मी सभी के वे प्रीतिकर है। इसी रूप में ग्रामीण संस्कृति का नायक, ग्वाले रूप में सबके हृदय में रचे-बसे हैं। ‘मोर पंख’ इसी लोक मन का प्रतिक बन उनके मस्तक पर विराजमान रहता है। उनके प्रति प्रेम व सम्मान को व्यक्त करता उनका यह भाव सम्पूर्ण मानव जाति को जीव, पशु, प्रकृति, के प्रति प्रेम का संदेश देता है। लोक जीवन में रमे मिट्टी की सौंधि सुगन्ध को समेटे जब अहीरों की टोलियाँ सिर पर मोरपंख लगाए गाँवों से नाचते गाते मेलों में पहुँचती तो उनके उल्लास की पराकाष्ठा, जीवन की सरसता सर्वत्र बिखर जाती।
5.धार्मिक रूप से पवित्रता का प्रतिक:-   धार्मिक कर्मकांड की तरह मिथक में जीवन की सार्वभौम एकता की सहजानुभूति और मानव तथा प्रकृति के एकात्म्य की भावना निहित रहती है। जैन परम्परा में लगभग दो हजार वर्ष पूर्व के आचार्य कुंदकुंद को श्वेत पिच्छाचार्य (सफेद मोर की सफेद पंखों से बनी पिच्छी/झाइन का धरक) कहा गया है। दिगम्बर जैन साधु आज भी पिच्छी (हरी-नीली पंख वाली) धारण करते हैं। उनका विश्वास रहा की इससे भूमि झाड़न से जीव हत्या नहीं होती। धार्मिक दृष्टि से मोरपंखमें सभी देवी-देवता और नौ ग्रहों का वास भी माना जाता है। माँ शारदे का वाहन मोर विधा,विनय,
विवेक, ज्ञान का प्रतीक है।(वही मिथक और साहित्य- डॉ0 नगेन्द्र पृ.7)
6. साहित्य में मोरपंख की महत्ताः-  कालिदास इन्द्रचाप के एक खण्ड से सुशोभित मेघ की उपमा चमकते हुए मोर-पंख से भूषित गोपाल के रूप में विष्णु से देते हैं। नारायण जो ब्राह्मण-काल में विकासमान हो परमात्मा बन गया था आगे चलकर वासुदेव बन गया।(भगवत शरण उपाध्याय, कालिदास का भारत पृ. 41)
7.स्त्री के सम्मान को महत्ताः - मोर नृत्य करता है और मोरनी किस मोर को चुनना चयन करती है पर पितृत्त्व सत्ता इसके इतर आज अपना प्रभुत्व रखती है। राधा का कृष्ण से प्रेम, मीरा का कृष्ण को पति रूप में भक्ति स्त्रीत्व मान, अधिकार को अभिव्यक्त करते हैं।मोर पंख प्रेम, सौंदर्य, त्याग, सात्विक भाव, रंगों की खूबसूरत आभ लिए , लोक जीवन से भी गहरा जुडा भाव है। जो हमारे भीतर सूक्ष्म गहरे रूप में समाया है। यह प्रतीक है- भक्ति, भक्त और भगवंत के अभिन्न समीकरण का, प्रतीक है प्रेम की पराकाष्ठा माधुर्य, सर्वस्व समर्पण का।

डॉ. शमा खान

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