सबसे पहले हम संत शब्द को जान लेते हैं, फिर संत साहित्य की चर्चा करेंगे। संत शब्द संस्कृत के “सत्” शब्द की उत्पत्ति है। सत् का अर्थ है सज्जन अर्थात् वह व्यक्ति जो सत् से प्रेरित हो, और लोकोपकारी हो वही सज्जन “संत” कहलाता है। संत के संतत्व का मानदंड उसका लोकहितकर कार्य ही है।
संतों के विषय में विचार करें तो गीता में श्री कृष्ण ने संतों की चर्चा करते हुए कहा है-
“समदुःख सुखः स्वस्थ समलोष्टाश्यम काञ्चनः।
तुल्य प्रियाप्रियो धीरस्तुल्य निन्दात्म संस्तुतिः।।”
अर्थात् जो सुख और दुःख दोनो में समान भाव से देखता है, जिसे अपने मान-अपमान, स्तुति एवं निंदा की चिंता नहीं रहती जो धैर्य से काम लेता है, वही संत है।
हिन्दी साहित्य में जो निर्गुणिए भक्तों द्वारा रचा गया साहित्य है, वह संत साहित्य के रूप में जाना जाता है, किन्तु तर्क की दृष्टि से देखा जाए तो यह जरूरी नहीं है, कि जो केवल निर्गुण उपासक हो उसे ही संत माना जाए। संत के अंतर्गत् लोक कल्याणकारी सभी निर्गुण-सगुण उपासक संत की श्रेणी में आते हैं। भले ही आधुनिकता वादी ने निर्गुण भक्तों को ही संत माना हो।
भारत में संत मत का प्रारंभ 1267 ई0 में “संत नामदेव” के द्वारा किया गया माना जाता है। मूल रूप से संत साहित्य को विषयवस्तु की दृष्टि से तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है—1.जिसमें अपने विचारों का प्रतिपादन किया गया हो ।
2- जिसमें विभिन्न धर्मों व संप्रदायों की रूढ़ियों का खण्डन किया गया हो।
3- जिसमें कवि ने वाद-विवाद और खण्डन-मंडन से उपर अपनी मौलिक अनुभूतियों का प्रकाशन भावपूर्ण शब्दों में किया है।
हिन्दी साहित्य के अधिकांश निर्गुणिए संत अल्पशिक्षित या अशिक्षित थे। जिन्हें साहित्य का शास्त्रीय ज्ञान नहीं था, अतः उनकी रचनाओं में अनुभव और विषय को महत्व दिया गया , भाषा गौण है। परिणामतः इनकी भाषा पूर्ण साहित्यिक ना हो कर गंवई (बोल चाल की गंवारू भाषा) है। किन्तु भावों की प्रगाढ़ता और प्रधानता के कारण कई संतों की रचनाएँ उत्तम कोटि की रचनाओं में रखी जाती हैं। सच्ची और खरी बातों को कहने का इन संतो का अपना निराला ही अंदाज़ है । इन्होंने परोपकार, लोकहित और ईश्वर भक्ति को ही अपना विषय आधार मान कर रचनाएँ की हैं।
संत काव्य धारा भक्ति काल की आरंभिक काव्य धारा है। इस काव्य धारा की विशेषता इसका दार्शनिक आधार है । इन संतों पर नाथों के हठयोग, सूफ़ियों के तसत्वुफ़ और वैष्णवों के प्रपतिवाद का प्रभाव भी है। संत काव्य में ब्रह्म निर्गुण है, जिसे जानने के लिए गुरु को ईश्वर से ऊंचा स्थान दिया गया है, क्योंकि ईश्वर को प्राप्त करने का मार्ग दिखाने वाला गुरु ही है—
“गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काको लागूं पाय।
बलिहारी गुरु आपनो ,गोविन्द दिया बताय।।”
वैष्णवों के प्रपतिवाद में-
“लाली मेरे लाल की, जित देखूँ उत लाल।”
लाली देखन मैं चली, मैं भी हो गयी लाल।।”
कबीर जैसे संत कवियों ने अपने व्यंग प्रहारों से धार्मिक रूढ़ियों व सामाजिक असमानताओं पर चोट की है-
“जाति-पांति पूछे नहि कोई।
हरिको भजे सो हरि को होई।।”
संत काव्य क्रांतिकारी व परिवर्तनशील मानसिकता का प्रतीक है। संत बहुधा घुमक्कड़ प्रवृत्ति के थे, इसलिए उनकी भाषा में भिन्न-भिन्न स्थानों के शब्द जुड़ गए हैं। ऐसी भाषा को सधुक्कड़ी कहा गया है। हठयोग के कारण इनकी भाषा में उलटबांसियों का प्रयोग हुआ है, जैसे-"बरसे कंबल भीजै पानी।”
संत कवियों में कबीर, नामदेव, नानक, धर्मदास, रज्जब, मलूकदास, दादूदयाल, सुन्दरदास, चरनदास, सहजोबाई आदि उल्लेखनींय हैं। सुन्दरदास को छोड़कर सभी कामगार तबके से आते हैं। संत कवियों में एक भक्त, युग चिंतक, और प्रखर व्यक्ति के रूप में कबीर का स्थान अनन्य है। भक्तिकाल में सगुण और निर्गुण शाखा के अंतर्गत् आने वाले प्रमुख कवि हैं- कबीरदास, तुलसीदास, सूरदास, नंददास, कृष्णदास, परमसंस दास, कुंभनदास, चतुर्भुज दास, छीत स्वामी, गोविन्द स्वामी, हितहरिवंश, गदाधर भट्ट, मीराबाई, स्वामी हरिदास,सूरदास मदनमोहन,श्री भट्ट, व्यास जी, सरखान, ध्रुवदास, चैतन्य महाप्रभु, और रहीमदास आदि..।
संत कबीर की रचनाओं की विशेषताएँ-
कबीर का मूल ग्रंथ बीजक है, इसके तीन भाग हैं, पहला साखी है जिसमें दोहे हैं। कबीर काव्य की विशेषताएँ- 1-कण-कण में ईश्वर की व्याप्ति। 2- मूर्ति पूजा का विरोध। 3- धार्मिक आडंबरों का विरोध। 4-गुरु की महत्ता। 5- नारी की निंदा। 6- पुस्तकीय ज्ञान का विरोध। 7- सदाचार की शिक्षा। 8- आत्मा-परमात्मा का एकत्व ।
संत रैदास के काव्य की विशेषताएँ-
1- ईश्वर के समस्त रूप का ऐक्य।
2- मूर्ति पूजा और तीर्थ यात्रा का विरोध।
3- आंतरिक साधना पर बल। रैदास मीराबाई के गुरु भी माने जाते हैं।
गुरु नानक की प्रमुख रचनाएँ-1- जपुजी। 2- असादी वार। 3-रहिदास,
4- सोहिला।
5- नसीहत नाम। (जपुजी नानक दर्शन का सार माना जाता है।)
संत दादू दयाल की प्रमुख रचनाएँ-
1-हरडेवाणी।
2-अंगवधू।
3-दादूदयाल।
संत सुन्दर दास की रचनाएँ
1-ज्ञान समुद्र।
2- सुन्दर विलास ।
संत मलूक दास की रचनाएँ-
1- ज्ञान बोध ।
2- रतन खान ।
3-भक्त वच्छाली।
4- भक्ति विवेक।
5-ज्ञान परोछि।
6- ध्रुवचरित।
7- बारह खड़ी।
8- ब्रज लीला।
9- विभवभूति,
10, सुखसागर,
11-स्फुट पद।
12- रामअवतार लीला।
संतों का संपूर्ण साहित्य सदुपदेश के रूप में वर्णित है जो जीवन का सार रूप है। जिसे संतों की बानी के नाम से भक्ति भाव से आज भी स्वीकारा जाता है। यहाँ भाषा पर भाव का विशेष महत्व कालजयी है। जिसने सामान्य से प्रबुद्ध सभी को अपना मुरीद बना लिया है।
मंजुला शरण