वसुंधरा पुष्कर
हे परमपिता! निराकार हो, कण कण में समाए रहते हो हर पत्ते- बूटे में तुम ही तुम दिखते हो तुम तो जग की व्यवस्था हो पीड़ित मन की आस्था हो कोई कहाँ ढूँढे तुमको तुम हर प्राणी के अंदर में हो तुमसे सबको आस लगी है तुम जल थल और समंदर हो
पंडित केशव मंदिर के परिसर में बैठे अपनी तीनों बेटियों को देखकर आनंदित हो रहे थे। बेटियाँ घर की रौनक होती हैं। आंगन में चिड़ियों सी चहकती बेटियाँ मंदिर की घण्टियों की रुनझुन में बस जाती हैं। एक ही पिता की ये तीनों संतानें ईश्वर भक्ति में रची बसी थीं और पिता के लिए पूजा पाठ की सामग्री जुटाते हुए आपस में भी चुहल करती रहतीं। देव शृंगार के लिए उनके आकर्षण अलग-अलग देवों के लिए थे।
मंझली पुत्री वरमुद्रा दसवीं उत्तीर्ण हो चुकी थी। सुबह के सात बजे श्रीराम-जानकी को सजाते हुए वह सहज बोल में गुनगुनाती रहती।
हे रामजी, तेरो नाम है अपरंपार
भवसागर में नैया पार लगा दे
मैं करती हूँ रघुनन्दन का शृंगार
होंठों पर मुस्कान सजा दे
शर तूणीर है आभूषण जिनका
वे बुराई भगाते हैं
आपकी कृपा से हनुमत
लंका में आग लगाते हैं
हे रघुनंदन, नाम है तेरो अपरंपार
उधर दूसरे कक्ष में नौवीं में पढ़ने वाली मृणमयी अपनी पसन्द के देव श्रीकृष्ण के शृंगार में व्यस्त थी। उसकी मधुर स्वरलहरी परिसर में गूँज रही थी।
कान्हा ! कान्हा
तेरो सूरत है साँवली
देख राधा हुई बावली
तेरे अलक काले घुँघराले
उसपर मोरपंख मतवाले
मुरलिया अधर पर सोहे
मीठी मीठी धुन सबको मोहे
प्रीत तुम्हारी जग में निराली
तेरी गैया भी होती मतवाली
कान्हा! कान्हा
केशव पंडित की पुत्री वसुंधरा सबसे बड़ी थी। भक्ति से भरपूर , किसी और दुनिया में विचरने वाली जीवन-मृत्यु के रहस्यों से उलझने वाली, ग्रेजुएशन कर रही थी।
कभी कभी वह भी परिसर में गुनगुना उठती।
हे परमपिता!
निराकार हो, कण कण में समाए रहते हो
हर पत्ते- बूटे में तुम ही तुम दिखते हो
तुम तो जग की व्यवस्था हो
पीड़ित मन की आस्था हो
कोई कहाँ ढूँढे तुमको
तुम हर प्राणी के अंदर में हो
तुमसे सबको आस लगी है
तुम जल थल और समंदर हो
केशव पंडित को श्रीराम और श्रीकृष्ण के कक्ष में सफाई, शृंगार और सामग्री की कोई चिंता नहीं करनी थी। अब उन्हें चिंता थी तो वसुंधरा के लगन की। पंडित ने बेटियों को शिक्षा देने में भी कमी न रखी थी। शिक्षा के सानिध्य में आध्यात्म की आभा उनके मुखमंडल पर शोभायमान रहती थी। कोई वैसा ही वर वसुंधरा के लिए मिल जाये तो उन्हें शांति मिले।
कहते हैं कि ईश्वर बस मनुष्य की इच्छा की प्रतीक्षा करते हैं। ज्योंहि उन्हें ज्ञात होता है, वे किसी न किसी प्रकार से उसे पूरी करने में लग जाते हैं।
आज केशव पंडित बहुत प्रसन्न थे। निकट के गाँव से निमंत्रण आया था। पंडितों की महासभा होने वाली थी। वहीं संस्कृत महाविद्यालय के छात्रों को शिक्षा पूरी होने पर सर्टिफिकेट दिया जाना था। इस के बाद नियमपूर्वक उन्हें मंदिर में कार्यभार दिया जाना था।
श्लोक,चारों वेद, उपनिषद, पुराणों की शिक्षा पाकर बालकों के चेहरों पर आभा झलक रही थी। एक ही प्रकार के परिधान से सुसज्जित वे सभी सभागार में मंच पर बुलाये जाने की प्रतीक्षा में बैठे थे। केशव पंडित अन्य स्थानों से आये पंडितों के साथ मंच पर विराजमान थे। कार्यक्रम का आरम्भ हुआ। स्वागत भाषण के बाद प्रमाण पत्र वितरण का कार्यक्रम आरम्भ हुआ। उन्हीं छात्रों के बीच एक छात्र वह भी था जिसके पिता मंच पर उपस्थित थे। यह तब पता चला जब उसने मंच पर पिता के पाँव छुए और पिता ने खुशी से उसे गले लगाया। पंडित केशव के मन में कुछ विचार किया। सभा समाप्ति के बाद वह पुष्कर के पिता के पास गए, अपना परिचय दिया और अपने गाँव में अपने घर सपरिवार आने का निमंत्रण दिया। भास्कर पंडित ने उसे सहर्ष स्वीकार किया।
अक्षय तृतीया का शुभ दिन आ गया। भास्कर पंडित सपरिवार आने वाले थे। केशव पंडित के यहाँ हलचल मची हुई थी। आज मंदिर प्रांगण की विशेष सजावट की गई थी। गेंदा के फूल से बनी माला तथा आम्र पल्लवों से सभी देवों के कक्ष को सौंदर्य दिया गया था। परिसर में ही एक ओर हलवाई की व्यवस्था भी की गई थी। केशव पंडित स्वयं सभी कार्यों का निरीक्षण कर रहे थे।
विभिन्न प्रकार की मिठाइयों की सुगंध फैलने लगी थे। बालूशाही, बूँदी, मुरब्बा, रसगुल्ला, गुलाबजामुन, इमरती, खाजा से बड़े बड़े टोकने भरे जा रहे थे।
समय पर भास्कर पंडित जी अपनी पत्नी व पुत्रों के साथ पधारे। अतिथि सत्कार में कोई कमी न रखी गयी। वसुंधरा, वरमुद्रा व मृणमयी आकर्षक लहँगा-चुन्नी में बड़ी निपुणता से सब कुछ परोस रही थीं। भास्कर पंडित जी के दोनों पुत्रों, पुष्कर व जुष्य से उनकी दोस्ती हो गयी। दोनो परिवार भोजन के पश्चात् एक स्थान पर बैठकर वार्तालाप करने लगे।
भास्कर पंडित ने वसुंधरा से पूछा,’ बिटिया, तुमने स्नातक में कौन सा विषय लिया है ?”
वसुंधरा ने मीठे स्वर में उत्तर दिया,” हिन्दी साहित्य लिया है चाचा जी।”
“अरे वाह! तब तो आपने भक्तिकाल के बारे में अवश्य पढ़ा होगा,” पुष्कर ने पूछा।
“जी, पढा है। यह हिंदी साहित्य का श्रेष्ठ युग है जिसको जॉर्ज ग्रियर्सन ने स्वर्णकाल, श्यामसुन्दर दास ने स्वर्णयुग, आचार्य राम चंद्र शुक्ल ने भक्ति काल एवं हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लोक जागरण कहा,” वसुंधरा ने मुस्कुराते हुए कहा।
“इस काल की विशेषता क्या थी,” वसुंधरा से सटीक उत्तर पाकर पुष्कर को अच्छा लगा था।
“भक्तिकाल को पूर्व मध्यकाल भी कहते हैं। वीरगाथा काल में कवि अपने राजा और राज्य की प्रशंसा में काव्य सृजन करते थे किन्तु भक्तिकाल में कवियों ने राजस्व को स्वीकार नहीं किया।सभी कवियों ने स्वतंत्र रहकर काव्य का सृजन किया। इन कवियों ने किसी राजा की स्तुति या प्रशंसा नहीं की।”
“तो फिर वे किस तरह के काव्य लिखते थे,” पुष्कर ने बात आगे बढ़ाने के उद्देश्य से पूछा।
उधर वरमुद्रा और मृणमयी को इन बातों में कोई आकर्षण नहीं था तो वे दोनों जुष्य को लेकर मंदिर परिसर घुमाने ले गईं। दोनों पण्डिताइनें अपनी बातचीत में व्यस्त हो गईं।
“पिताजी ने बताया है कि आपने संस्कृत महाविद्यालय से अपनी पढ़ाई पूरी की है।आप बताएँ कि भक्तिकाल की मुख्य विशेषताएं क्या थीं,” वसुंधरा ने पुष्कर की ओर देखकर मधुर स्मित से कहा।
पुष्कर ने मुस्कुराकर कहा, “ आप मेरी भी परीक्षा ले ही लें। मैं बताता हूँ;
भक्ति की मुख्य विशेषताएं हैं: भक्त और उसके व्यक्तिगत भगवान के बीच एक प्रेमपूर्ण संबंध । व्यक्तिगत पूजा तथा लिंग, जाति या पंथ के आधार पर किसी भी भेदभाव को त्यागना।”
“जी, सही कहा। भक्तिकाल के कवि गुरु को बहुत सम्मान देते थे। मिथ्या आडंबरों और रूढियों का वे विरोध करते थे,” वसुंधरा ने कहा। उनदोनों के वार्तालाप के बीच भास्कर पंडित भी बोल उठे, “ भक्ति काल दो भागों में बांटा जा सकता है। सगुण भक्ति धारा और निर्गुण भक्ति धारा। सगुण भक्ति का अर्थ है आराध्य के रूप, गुण, आकार की कल्पना कर उसे अपने बीच व्याप्त देखना । सगुण भक्ति में ब्रह्म के अवतार रूप की प्रतिष्ठा है और यही कारण है कि ब्रह्म के दो अवतार राम और कृष्ण जन-जन के हृदय में अपना स्थान बना सके । सगुण भक्ति काव्य की रचनाओं का आज भी बड़ी श्रद्धा से भजन - गायन एवं श्रवण किया जाता है। सगुण भक्ति काव्यधारा को आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने दो शाखाओं में विभाजित किया है, राम भक्ति शाखा और कृष्ण भक्ति शाखा।”
आगे केशव पंडित ने कहना आरम्भ किया, “भक्तिकाल में सगुणभक्ति और निर्गुण भक्ति शाखा के अंतर्गत आने वाले प्रमुख कवि हैं - कबीरदास,तुलसीदास, सूरदास, नंददास, कृष्णदास, परमानंद दास, कुंभनदास, चतुर्भुजदास, छीतस्वामी, गोविन्दस्वामी, हितहरिवंश, गदाधर भट्ट, मीराबाई, स्वामी हरिदास, सूरदास मदनमोहन, श्रीभट्ट, व्यास जी, रसखान, ध्रुवदास तथा चैतन्य महाप्रभु, रहीमदास।”
थोड़ी देर के लिए सभी मौन हो गए।
वसुंधरा ने सारगर्भित वार्तालाप को आगे बढ़ते हुए कहा, “निर्गुण भक्ति धारा के कवि ईश्वर के निराकार स्वरूप की उपासना पर जोर देते थे। इस भक्ति धारा के प्रमुख कवियों में कबीर, नानक, दादू दयाल, रैदास, मलूकदास आदि प्रमुख कवि थे।निरगुन भक्ति धारा का सबसे बड़ा ग्रंथ गुरु ग्रंथ साहिब है , जिसमें 6 सिख गुरुओं और ,18 हिन्दू संतो की वाणी का संग्रह है ।”
वसुंधरा के ज्ञान और उसकी विनम्रता से भास्कर पंडित प्रभावित हो रहे थे।
साँझ होने को आई थी। संध्या आरती का समय हो गया था। वरमुद्रा और मृणमयी अपने अपने देवों के कक्ष में आरती की तैयारी में लग चुकी थीं।केशव पंडित ने सबसे आरती में सम्मिलित होने का अनुरोध किया।
वसुंधरा बस अस्ताचलगामी सूर्य को निहारने लगी। सभी आरती में जा चुके थे। कोई आसपास न था तो वह गुनगुनाने लगी।
जग सागर में काया घट है
बाहर पानी अंदर पानी है
घट जिस दिन यह फूटेगा
दोनो पानी मिल जाएँगे
वही तो परम कहानी है
बाकी सब आनी जानी है।
पुष्कर कब वहाँ पर आ गया, वसुंधरा को पता ही नहीं चला| जब वसुंधरा ने गुनगुनाना छोड़ा तो पुष्कर ने मुस्कुराते हुए कहा,” बहुत मधुर गायन है आपका|”
“जी, धन्यवाद!”
“आप आरती में क्यों नहीं आईं ?”
“मुझे प्रकृति का सान्निध्य बहुत पसंद है| जो संदेश प्रकृति देती है, उसे आत्मसात करके हम जीवन को अधिक समझ सकते हैं| ईश्वर में आस्था रखती हूँ, कन्तु जनजीवन के सत्य मुझे आकर्षित करते हैं|”
पुष्कर ने कहा,” गुरु के बिना ज्ञान नहीं हो सकता- यह सन्तों का विश्वास है । गुरु के लिए उन्होंने प्रायः सद्गुरु या सतगुरु शब्द का प्रयोग किया है, जो एक गुरु की गरिमा का सूचक है, तो दूसरी ओर गुरु के प्रति सच्ची श्रद्धा का|”
अभी वे बातें कर ही रहे थे कि केशव पंडित और भास्कर पंडित वहाँ पर आ गये| भास्कर पंडित अब विदाई लेना चाहते थे|
भास्कर पंडित ने केशव पंडित से कहा,” आपकी तीनों पुत्रियाँ बहुत गुणी है। एक संत धारा सी प्रवाह विद्यमान है मंदिर परिसर में।
“सही कहा पंडित जी, छोटी दोनो सगुन धारा की अनुयायी हैं, एक राम भक्त और दूसरी कृष्ण भक्त और बड़ी वसुंधरा निर्गुण धारा में विश्वास रखती है,” केशव पंडित ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया।
“केशव जी, मैं चाहता हूँ मेरा भक्ति-भवन आपकी निर्गुण धारा से पावन हो जाये। वसुंधरा का हाथ अपने पुष्कर के लिए माँग रहा हूँ।”
केशव पंडित के मन की इच्छा पूर्ण हो गयी। वे भी वसुंधरा के लिए मन ही मन पुष्कर को पसन्द किये बैठे थे।
“जी भास्कर जी, पुष्कर को दामाद के रूप में पाकर मैं अति प्रसन्न होऊँगा। मैंने देखा कि वसु और पुष्कर भी आपस में खूब हिलमिल कर बातें कर रहे थे। उन्हें भी बताता हूँ।”
वसुंधरा और पुष्कर सकुचाये से खड़े थे। दोनो पिताओं ने अपने बच्चों को संकेत से कुछ कहा।
वसुंधरा ने भास्कर चाचा के पाँव छुए और पुष्कर ने केशव चाचा के। पुनः आने के लिए अतिथि परिवार ने विदाई ली और दोनों पढ़े लिखे संस्कारी बच्चों की आंखों में नव जीवन के सुखद स्वप्न मुस्कुराने लगे।
ऋता शेखर मधु
What's Your Reaction?