पंद्रहवीं व सोलहवीं सदी भारत के इतिहास में अनेक अर्थ में महत्वपूर्ण रहीं है। इस सदी को भक्ति आंदोलन, समाज सुधार आंदोलन और सनातन धर्म में आई बुराइयों को दूर करने पर चिंतन मनन तथा महान साहित्य सृजन का स्वर्ण युग कहा जा सकता है। तेरहवीं शताब्दी के बाद आक्रांताओं ने भारत में सनातन धर्म को अनेक दृष्टि से नीचे दिखाने का प्रयास किया। जबरदस्ती धर्म परिवर्तन का बोलबाला था। सनातन धर्म संकट में होने के कारण धर्म को बचाने के लिए साधु संतों का प्रार्दुभाव हुआ। क्या उत्तर ? क्या दक्षिण? क्या पूरब या पश्चिम? सभी दिशाओं में सनातनी संतो ने सद्गुण और निर्गुण भक्ति आंदोलन तथा समाज सुधार आंदोलन चलाए।
कबीर दास, तुलसी दास, सूरदास, नंददास, कृष्णदास, परमानंद दास, कुंभन दास, रसखान तथा चैतन्य महाप्रभु आदि के समकालीन और कबीरदास जी के गुरु भाई तथा मीराबाई के गुरु संत रविदास जिन्हें रैदास और रोहिदास के नाम से भी पुकारा जाता है , भक्ति काल के समरसता के सुमेरु कहा जाना सर्वदा उचित होगा। संत शिरोमणि रविदास जी ने उस समय के समाज में समरसता लाने तथा व्याप्त भेदभाव को मिटाने के लिए 'रैदास' पंथ की स्थापना कर सामाजिक समरसता के क्षेत्र में अनुकरणीय कार्य किया है। इस महापुरुष ने 1433 में जनक संतोख दास तथा जानकी कलसा देवी की गोद में जन्म लेकर भक्ति की सच्ची भावना, समाज के व्यापक हित की कामना और मानवता की सेवा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। 'चौदह सौ तैंतीस कि माघ सुदी पन्दरास। दुखियों के कल्याण हित प्रगटे गुरु रविदास।।’
संत रविदास ने एक घटना से सबसे अधिक प्रसिद्धि पाई। कहते हैं कि उनके गांव के साथी गंगा स्नान जा रहे थे और उनको भी अपने साथ चलने के लिए कहा। उन्होंने अपने साथियों से कहा कि 'मैं तो आपके साथ चलने में असमर्थ हूं लेकिन मेरी ओर से यह एक पैसा गंगा मैया को दान कर देना।' कहते हैं कि उन्हें घर बैठे ही गंगा स्नान का पुण्य प्राप्त हुआ और तभी से कहावत चल पड़ी "मन चंगा तो कठौती में गंगा।”
कबीर दास की भांति ही संत रविदास जी ने भी उस समय की कुरीतियों और ऊंच-नीच की भावना को ललकारा और कहा कि 'कृष्ण, करीम, राम, हरी,राघव, जब लग एक न पेखा।
वेद कतेब कुरान, पुरनन, सहज एक नहिं देखा।।
चारों वेद के करे खंडौती।
जन रैदास करे दडौती।।
जातिवाद और अंधविश्वास के खिलाफ आंदोलन के कारण रविदास संपूर्ण भारत के साथ-साथ उत्तरी प्रांत पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और बिहार के खेतिहर मजदूर के जनजीवन पर संत शिरोमणि रैदास जी की भक्ति भावना और रचनाओं की गहरा छाप देखने को मिलती है। रविदास कहते हैं कि जाति को खत्म करें , क्योंकि इंसान तब तक जुड़ नहीं सकता, एक नहीं हो सकता, जब तक की जाति नहीं चली जाती।
"सौ बरस रहो जगत में, जीवित रहकर करो काम ।रेदास करम ही करम है, कर्म करो निष्काम ।।”
संत रविदास जी समरसता दर्शन महान है। आज के भारतीय समाज में 'हिंदूओं' में वर्ण व्यवस्था के कारण गांव गांव में जातिवाद का बोलबाला है। समाज में विद्वेष की भावना विद्यमान है और प्रत्येक समाज अपने आप को एक दूसरे से श्रेष्ठ समझने की होड़ में मानवता और सनातन धर्म की परंपरा को भूल गया है। सालों से एक साथ रहते आए लोगों में भी जाति- धर्म के आधार पर एक दूसरे से घृणा करते हैं। ऐसे में संत रविदास के समरसता भाव में आशा की किरण दिखाई देती है। राजघराने में पली-बढ़ी महारानी मीराबाई ने सतगुरु रविदास का बखान बड़े ही मार्मिक ढंग से किया है ।
यथा:
'खोजत फिरू भेद पा घर को, कोई न करत बखानी।
रैदास संत मिले मोह सतगुरु, दीन्हीं सूरत सहदानी।।
गुरु मिलिआ संत गुरु रविदास जी, दिन्ही ज्ञान की गुटकी ।
मीरा सत गुरुदेव की करै वंदा आस।
जिन चेतन आतम कहया धन भगवान रविदास।।'
संत शिरोमणि और समरसता के सुमेरु रविदास जी के महान विचारों को आदर्श मानते हुए मध्य प्रदेश सरकार ने समरसता यात्रा के माध्यम से जनमानस में समरसता भाव अंकुरित करने और दिनोंदिन प्रगाढ़ करने की दृष्टि से सागर जिले के "बडतुमा" गांव में विशाल मंदिर बनाने का निर्णय लिया है।
आशा की जानी चाहिए कि रैदास जी की
मनोभावना -
" वर्णाश्रम अभिमान तजि ,पदरज बंद हिजासु की।
संदेह खण्डन निपन बानि विमूल रैदास की।।"
के अनुरूप हम सब भारतवासी ऊंच-नीच की भावना को हृदय से उखाड़ फेंकेगें और समरसता की अविरल अनंतकाल तक धारा बहाएंगे। संत रविदास की महानता के कारण उनके समकालीन व गुरु भाई कबीर दास ने 'संतन में रविदास' कहकर उन्हें मान्यता दी है।
डॉ बालाराम परमार