लोकनायक तुलसीदास

तुलसीदास जी से पूर्व सन्त कवियों ने सारे भारत मे भावनात्मक एकता स्थापित करने का प्रयास किया, किन्तु तुलसीदास जी ने इस विषमता को दूर करने के लिये समन्वय का अनूठा प्रयास किया। समन्वय भारतीय संस्कृति की महत्वपूर्ण विशेषता है, समय समय पर इस देश में कितनी ही संस्कृतियों का आगमन और आविर्भाव हुआ परन्तु वे घुल-मिल कर एक हो गई।

Jun 23, 2024 - 11:38
Jun 27, 2024 - 09:06
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लोकनायक तुलसीदास
Loknayak Tulsidas
भक्तिकाल के महान रामभक्त, कवि, साहित्य शिरोमणि श्री तुलसीदास जी का प्रादुर्भाव ऐसे समय मे हुआ जब धर्म, समाज, राजनीति आदि सभी क्षेत्रों मे विषमता, विभेद एवं वैमनस्य व्याप्त था।  तुलसीदास जी से पूर्व सन्त कवियों ने सारे भारत मे भावनात्मक एकता स्थापित करने का प्रयास किया, किन्तु तुलसीदास जी ने इस विषमता को दूर करने के लिये समन्वय का अनूठा प्रयास किया।  समन्वय भारतीय संस्कृति की महत्वपूर्ण विशेषता है, समय समय पर इस देश में कितनी ही संस्कृतियों का आगमन और आविर्भाव हुआ परन्तु वे घुल-मिल कर एक हो गई। समन्वय को आधार बनाने वाले ‘लोकनायक तुलसीदास’ ने अपनें समय की जनता के हृदय के स्पन्दन को पहचाना और ‘रामचरितमानस’ के रूप मे समन्वय का अदभुत आदर्श प्रस्तुत किया। तुलसीदास जी ने समाज, धर्म, आचार-व्यवहार एवं भक्ति के क्षेत्र मे व्याप्त विषमताओं को दूर कर उनमें समन्वय लाने का अदभुत प्रयास किया।  समन्वय का अभिप्राय-पारस्परिक विरोध दूर करके समरसता उत्पन्न करना। वैषम्य और विछिन्नता के उस युग में लोकमंगल केवल सामंजस्य और समन्वय के लेप से ही संभव था।  समन्वय से ही उन गहरी खाईयों को पाटा जा सकता था और तुलसी के काव्य मे विविध क्षेत्रों में समन्वय का प्रयास किया गया।
तुलसीदास जी के इस अनूठे प्रयास और योगदान की प्रशंसा करते हुए हिन्दी साहित्य के स्तंभकार आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने उन्हें भारत का सबसे बडा लोकनायक मानते हुए कहा है-
‘‘लोकनायक वही हो सकता है, जो समन्वय कर सके क्योंकि भारतीय जनता में नाना प्रकार की परस्पर विरोधनी संस्कृतियां, साधनाएं, जातियां, आचार, निष्ठा और विचार पद्धतियां प्रचलित है।  तुलसी का सारा काव्य समन्वय की विराट चेष्टा है।  लोक और शास्त्र का समन्वय, भक्ति और ज्ञान का समन्वय, भाषा और संस्कृति का समन्वय, निर्गुण और सगुण का समन्वय, पांडित्य और अपांडित्य का समन्वय है।  रामचरित मानस शुरू से अंत तक समन्वय-काव्य है।’’1  (डा. हजारी प्रसाद द्विवेदी-हिन्दी साहित्य की भूमिका पृष्ठ-1012)
सगुण और निगुर्ण का समन्वय-तुलसीदास जी ने सगुण और निगुर्ण के प्रश्न पर व्याप्त विद्वेष एवं वैमनस्य को दूर करते हुए उन दोनों मे समन्वय करने का प्रयास किया।  यद्यपि ब्रह्म निगुर्ण, निराकार, अनघ, अद्वैत, अव्यक्त, अविरल, अनामय, अमल है तथापि वह दयालु, दीनबन्धु, करूणावत्सल, भक्तवत्सल है तथा भक्तों पर कृपा करने के लिये, धर्म की संस्थापना के लिये सगुण रूप मे प्रकट होता है।  भक्तों के प्रेम के वशीभूत होकर वही निगुर्ण ब्रह्म सगुण साकार हो जाता हेै।  तुलसीदास जी कहते है कि जैसे जल, बर्फ, और ओले बाहर से अलग-अलग दिखकर भी मूलतः एक ही तत्व ‘जल’ के विविध रूप में दिखाई देता है।  इस तरह सगुण और निगुर्ण की व्याख्या करके दोनों का समन्वय करने की चेष्टा की गई।
शैव और वैष्णव का समन्वय-सनातन धर्म मे सृष्टि के रचियता के रूप मे ब्रह्मा, पालनहार के रूप मे विष्णु एवं शिव संहार के देव के रूप मे जाने जाते है।  विष्णु के भक्त वैष्णव एवं शिव के भक्त शैव कहलाये लेकिन कालान्तर मे भक्तों ने अपनें-अपनें देवता को महिमामण्डित करते हुए बडा बनाने की चेष्टा करते हुए एक लम्बी-चैडी खाई अपने मध्य मे खडी कर ली।  तुलसी के समय मे यह विद्वेष अपने चरम पर था, अतः उन्हांेने ‘रामचरित मानस’ मे शिव को विष्णु के अवतार राम का उपासक दिखला शिव से कहलवाया-‘ सोई मम इष्ट देव रघुवीरा।  सेवत जाहि सद मुनि धीरा।।  राम को शिव का अनन्य भक्त सिद्ध करते हुए तुलसी ने शैव और वैष्णव मतों का अनूठा समन्वय किया है।  
‘‘संकर प्रिय मम द्रोही, शिव द्रोही मम दास।
ते नर करहिं कलप भरि, घोर नरक मह वास।।’’2
(तुलसीदास कृत रामचरितमानस के लंकाकाण्ड से उदधृत अंश)
ज्ञान और भक्ति का समन्वय-तुलसीदास जी ने रामचरितमानस मे ज्ञान और भक्ति का समन्वय भी किया है।  ज्ञानीजन ज्ञान मार्ग को और भक्त जन भक्ति के मार्ग को लेकर अपनी-अपनी राह पर चल रहे थे किन्तु तुलसी ने भक्ति के लिये ज्ञान की कठिनता का उल्लेख करते हुए भक्ति के लिये ज्ञान की महत्ता प्रतिपादित की और इस प्रकार दोनों का समन्वय किया।  वे कहते है कि ज्ञान मार्ग तलवार की धार के समान पैना है जबकि भक्ति मार्ग सरल, सहज और सुगम है लेकिन भक्ति और ज्ञान दोनों ही सांसारिक कष्टों से मुक्ति दिलाने मे समर्थ है।  रामचरित मानस के उत्तरकाण्ड मे निरूपित ज्ञान भक्ति प्रसंग में तुलसी ने ज्ञान को दीपक तथा भक्ति को ‘मणि’ माना है ओर यह बताया है कि ज्ञान का दीपक बडी मुश्किल से प्रज्जवलित होता है परन्तु विषय रूपी वायु के चलने पर बुझ जाता है जबकि भक्ति रूपी मणि निरन्तर देदीप्यमान रहती है, विषय विकार रूपी वायु उसे बुझा नहीं पाती।  
‘‘ भगतिहिं ग्यानहिं नहिं कछु भेदा।  
उभय हरहिं भव सम्भव खेदा।।’’3
(तुलसीदास कृत रामचरित मानस के उत्तरकाण्ड से उदधृत)
दार्शनिक क्षेत्र मे समन्वय-तुलसी से पूर्व सभी विचारकों ने शंकर द्वारा प्रतिपादित ‘अद्वैतवाद’ का खण्डन किया।  रामानुजाचार्य ने ‘विशिष्टाद्वैतवाद’ का, मध्वाचार्य ने ‘द्वैतवाद’ का, विष्णुस्वामी ने ‘शुद्धाद्वैतवाद’ का तथा निम्बार्काचार्य ने ‘द्वैताद्वैतवाद’ का प्रचार करके अद्वैतवादी विचारधारा का खण्डन किया किन्तु तुलसीदास जी ने अद्वेैतवाद एवं विशिष्टाद्वैतवाद मे समन्वय स्थापित करने का प्रयास किया। उस समय धर्म की आड में ही सामाजिक शोषण और सामाजिक सुधार होता था।  तुलसी के दार्शनिक समन्वय को स्पष्ट करते हुए शिवदान सिंह चैहान कहते है-
‘‘तुलसीदास के दार्शनिक समन्वय को देखते हुए यह नहीं भूल जाना चाहिये कि तुलसी लोकमर्यादा, वर्ण-व्यवस्था, सदाचार-व्यवस्था और श्रुति-सम्मत होने का ध्यान सदा रखते है।  चाहे वह राम की भक्ति का प्रतिपादन करे, चाहे अद्वैतवाद का, चाहे माया का निरूपण करे या जीवन का विवेचन, चाहे शिव की वंदना करे या राम की, किन्तु वह अपनी इन बातों को किसी न किसी रूप में याद रखते है इसलिये तुलसी समकालीन परिवेश मे मुक्ति-प्राप्ति के दो मार्ग प्रचलित थे- ज्ञानमार्ग और भक्तिमार्ग।  ज्ञानमार्ग के समर्थक ज्ञान को मुक्ति प्राप्त करने का उत्कृष्ट साधन मानते थे और भक्तिमार्ग के समर्थक इस दृष्टि से भक्ति को अधिक महत्व प्रदान करते थे।  दोनों मे अपने-अपने मत की उत्कृष्टता को लेकर पर्याप्त विवाद चलता रहता था।  तुलसी ने अपने साहित्य के माध्यम से इस विवाद को समाप्त करने का सफल प्रयास किया है। उन्होंने अपने काव्य में जंहा एक ओर ज्ञान को सृष्टि का सर्वाधिक दुर्लभ तत्व घोषित किया-
‘हरि को भजे सो हरि को होई’ और ‘सियाराममय सब जग जानी’ की समता पर आधारित भक्ति का वर्णन करते हुए भी शूद्र और ब्राह्मण के भेद को स्वीकार करते है।’’4 (शिवदान सिंह चैहान-दार्शनिक विचार और समन्वयवाद (आलोचनात्मक लेख) पृष्ठ-36)
राजा और प्रजा का समन्वय- तुलसीदास जी के समय मे राजा और प्रजा के मध्य एक गहरी खाई बनी हुई थी।  राजा अपने कर्तव्य का भलीभांति पालन नही करता था तथा प्रजा अनेक कष्टो को भोग रही थी।  तुलसीदास ने इस स्थिति का निरूपण रामचरितमानस के उत्तरकाण्ड मे ‘कलियुग वर्णन’ के माध्यम से किया है।  रामराज्य की परिकल्पना करते हुए उन्होंने आदर्श शासन व्यवस्था का एक प्रारूप भी प्रस्तुत किया है-
‘‘मुखिया मुख सो चाहिये, खान-पान को एक।
पालइ, पोषइ, सकल अंग तुलसी सहित विवेक।।’’5
(तुलसीदास कृत रामचरित मानस के उत्तरकाण्ड से उदधृत)
पारिवारिक क्षेत्र मे समन्वय- तुलसी ने धर्म और अध्यात्म के क्षेत्र मे ही नही अपितु पारिवारिक क्षेत्र मे भी समन्वय का अनोखा प्रयास किया।  रामचरित मानस पारिवारिक समन्वय का उत्कृष्ट उदाहरण के रूप मे हमारें समक्ष प्रस्तुत है।  रामचरितमानस मे आदर्श पिता, पुत्र, भाई, पति, पत्नि, मित्र, सेवक सभी के उदाहरण प्रस्तुत है। रामचरितमानस मे प्रस्तुत जीवन मूल्य, भारतीय संस्कृति के पोषण करने वाले है। रामचरितमानस मे राज्य को पाने का संघर्ष नहीं वरन एक-दूसरे के प्रति प्रेम, त्याग एव समपर्ण है।  आदर्श पुत्र के रूप राम का वर्णन आज तक भी विश्व मे कंही दिखाई नहीं देता है।
साहित्यिक क्षेत्र मे समन्वय-तुलसीदास जी ने अपने समय मे प्रचलित दोनों काव्य भाषाओं अवधी और ब्रज मे काव्य रचना करके समन्वय का अनूठा प्रयास किया हैं  रामचरितमानस, बरवै रामायण, जानकी मंगल, की रचना शुद्ध साहित्यिक, परिनिष्ठित अवधी भाषा मे की गई तो विनय पत्रिका, कवितावली, दोहावली मे ब्रजभाषा का प्रयोग किया।  तुलसीदास जी ने अपनें समय मे प्रचलित सभी शैलियों मे रचनायें लिखी है।  
नर और नारायण का समन्वय-तुलसी ने ‘राम’ को दशरथपुत्र के रूप में स्वीकार करते हुए परब्रह्म परमात्मा के रूप में भी स्वीकार किया है।  राम भले ही ‘नरलीला’ करते हुए सामान्य मनुष्य की भांति अपनी प्रिय पथगामिनी के हरण हो जाने पर सीता के लिये चिन्तित होते है किन्तु अन्ततः वे अखण्ड, अनन्त, अज, अनवद्य, अरूप एवं अचल है।  भक्तो के हित के लिये वे दीनबन्धु ही असुर संहार करने हेतु पृथ्वी पर अवतीर्ण हुए है।  राम मन, वाणी और बुद्धि से ‘अतक्र्य’ है जो धर्म की रक्षा के लिये तथा असुरों का संहार करने के लिये अवतार लेते है और सज्जनों का दुख दुर करते है ।  
निष्कर्षतः तुलसीदास जी अपने समय के महान समन्वयवादी कवि, साहित्यकार, थे। उन्होंने जीवन और जगत के हर क्षेत्र मे समन्वय करते हुए सबको साथ लेकर चलने का स्तुत्य प्रयास किया।  लोक ब्रह्म तुलसीदास जी ने भारतीय जनता की धडकन को पहचान कर ही ‘रामचरितमानस’ के द्वारा समन्वयवाद का अद्भुत आदर्श प्रस्तुत किया।  वैसे तो हमारी भारतीय संस्कृति में सब्र और समन्वय का भाव पहले भी था और आज भी है किन्तु आज भोग की प्रवृति प्रधान हो रही है।  सामाजिक व्यवस्था के तार भी छिन्न-भिन्न हो रहे है, समाज मे व्याप्त कटुता, विषमता, विद्वेष, वैमनस्य अपनें पांव पसार रहा हे।  इस प्रकार की विषम परिस्थिति में तुलसी की लोकपरक दृष्टि विचारधारा ही मानवजाति को मानसिक एवं आत्मिक शान्ति प्रदान कर सकती है।  तुलसीदास जी सच्चे अर्थो मे महान समाज सुधारक, समन्वयकर्ता एवं लोकनायक थे।
डॉ. गायत्री कोंपल ‘‘चन्नाया’’

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