आस्तिकता, आत्मिकता और आध्यात्मिकता हमारे जीवन को सुचारू रूप से चलाने के लिए बहुत ही मजबूत स्तंभ है. जितना जरूरी अन्न और जल हमारे भौतिक शरीर को चलायमान रखने के लिए है, उससे कहीं ज्यादा जस्ती आध्यात्मिक यात्राएं हमारे मन और मस्तिष्क को सक्रिय और जिन्दा रखने के लिए जरूरी है. आध्यात्मिक यात्रा के इसी क्रम में पहला दिन यात्रा में बिताने के बाद दूसरे दिन हरिद्वार पहुंचे. यहाँ हरिद्वार से ही हम सात लोगों को मिलाकर कुल २८ तीर्थ यात्रियों के साथ आगे की यात्रा प्रारम्भ होनी थी.
यहाँ भीमगौडा मंदिर (जहाँ भीम द्वारा गंगा को लाया गया) के दर्शन करते हुए प्राचीन गलियों, घाटों का भ्रमण बहुत अच्छा महसूस कराता है. हर की पौड़ी पर गंगा स्नान, लाइव माँ गंगा आरती के साक्षी बने. घर के वरिष्ठ सदस्यों और बच्चों का साथ परंपरा और आधुनिकता का एहसास दिलाता है.
गंगा मैया की जय बोलते हुए, सबका कल्याणा हो भाव के साथ आगे प्रस्थान किया, आध्यात्मिक यात्राएं केवल देव-देवी दर्शन करना मात्र ही नहीं है. यह हमारे पुरखों द्वारा हमें उपहार स्वरुप दिया गया पर्सनल डेवलपमेंट (व्यक्तित्व विकास) का संपूर्ण कोर्स है... जिसमें एक उद्देश्य पर फोकस रखते हुए विभिन्न पहलुओं में सामंजस्य बैठाते हुए एक संपूर्ण बदलाव के साथ घर लौटना होता है ताकि शेष जीवन को एक विस्तृत नजरिये के साथ बिना तनाव के जी सके.
तीसरे दिन हरिद्वार से खरादी पहुचे , यहां कोई तौर्य स्थल नहीं बल्कि एक पड़ाव स्थल है और यहां से यमुनोत्री के लिए आगे की यात्रा शुरू होनी थी.
रास्ते में परशुराम मंदिर पूजा, लंगर में खुले आसमान के नीचे भोजन व्यवस्था (लंगर गाड़ी साथ में ही अलग से चल रही थी). पहाड़ो की सीढ़ीदार खेती का विस्तृत अवलोकन और बरसात के साथ उतार चढ़ाव भरा लम्बा सफर. बस इन्हीं सब अनुभव के साथ दिन की यात्रा समाप्त हुई.
चौथे दिन यमुनोत्री जी धाम पहुंचना था. खराडी से सुबह तीन बजे चाय के बाद यमुनोत्री जी के लिए रवाना हुए और ७ बजे के आसपास जानकीचट्टी पहुंचे जहाँ से आगे ५ किलोमीटर लम्बा दुर्गम मार्ग शुरु होता है... यह मार्ग दुर्गम क्यों है या कौन-से कारक इसे दुर्गम बनाते है आगे चर्चा करूँगा.
जानकीचट्टी से आगे यमुनोत्री तक ५ ख्श् का रास्ता अनेक प्रकार से पार किया जा सकता है.
१. पैदल
२. पीठू वाले भैया
३. घोड़े/खच्चर
४. पालकी
विस्तार पूर्वक व्याख्या:
१. पैदल धैर्य, संयम और आपकी मानसिक और शारीरिक शक्ति की असली परख इसमें होती है. हम ७ लोगों में से ५ ने यही वाला चुना. एक मौका आता है जब थकान भी थक जाती है और हमें चलने की प्रेरणा माता यमुना जी मिलती रहती है. वापसी में थोड़ा आसान होता है लेकिन फिसलन के दौरान गिरने की प्रायिकता भी ज्यादा रहती है.
२. पीठू वाले मैर्या: जब बहुत छोटे थे तो दादी, नानी से सुनते थे कि कई मैया लोग होते हैं जिनके कंधे पर टोकरी बंधी होती है और उस टोकरी में सवारी को बैठाते है. विश्वास नहीं होता था लेकिन आज जब इन्हे देखा वो भी सवारी को बैठकर सरपट दौड़ते हुए तो यकीन मानिये इस बार इन्हे अपनी आँखो से देखकर भी विश्वास नहीं होता. रॉकेट से सेटेलाइट भेजे जा रहे है इधर हम पीठू भैया की पीठ से उतरने को तैयार नहीं है.. खैर..
३. घोड़े /खच्चरः इसमें साधारण ही हैं, आप खच्चर पर बैठो, लगाम खचर मालिक के हाथ में होती है. लेकिन कई सवारियों को गिरते पड़ते देखा. वाकई रिस्की है. क्योंकि इसमें बैठने वाले ग्राहक को खच्चर के साथ अपना एडजस्टमेन्ट करना पड़ता है.. और उसी के हिसाब से अलाइनमेंट बैठाते हुए बैठना होता है. (यमुनोत्री से वापिस लौटता हुआ खच्चर ज्यादा खतरनाक होता है)
४. पालकी: २ या ४ लोग सवारी के हिसाब से पालकी रखते हैं, सवारी बैठाते हैं और रवाना हो जाते हैं.. इसमें यात्री के पैर मुठे हुए रहते हैं तो थकान हो जाती है.
दुर्गम रास्ता क्यों है?
१. पूरी यात्रा का मार्ग बहुत संकरा है, कहीं कहीं से तो बस २. ही लाइन बनती है जहाँ पर जाम लगता ही लगता है. इसी संकरे रास्ते से उपरोक्त चारों केटेगरी यथा पैदल, पौठू, खच्चर, पालकी सभी निकलती है. और वापसी में तो सभी भागते हुए आते हैं. इसलिए साधारण हो हल्ला बहुत आम है.
२. जगह जगह पर इन खच्चरों की लीद भी जमा रहती है जो कि रास्ता बाधित करती है.
३. बरसात भी अपना रोल निभाती है और पानी इन खच्चरों की लीद के साथ मिलकर और काम बिगाड़ता है.
४. बिना एडवांस में बुकिंग किये भीड़ का पहुंचना
५. और अंत में, रास्ते की चढ़ाई पूरी खड़ी है और इस संकरे रास्ते के एक तरफ गहरी खाई भी है.
दुर्गम सफर के बाद मुख्य मंदिर में प्रवेश किया जहां पर `तप्त कुंड की महिमा के बारे में जो सुना वह सही था. इसमें प्राकृतिक गर्म पानी के झरने का बना छोटा तालाब है... जहां नहाते ही एकान दूर हो जाती है... वही कच्चे चावल को पानी में उबालने का उपक्रम किया जिसकी घर जाकर खौर बनाने की परम्परा है. उसके बाद यमुना माता के दर्शन किए... बड़ी ही मनमोहक छवि माता रानी की है... उनके दर्शन के साथ ही यमुनोत्री धाम यात्रा पूरी हुई.
खच्चरों के लिए अलग से खच्चर शाला बनी हुई है लेकिन पालकी वालों के लिए कोई व्यवस्था नहीं है... तीर्य यात्री के उत्तरने के बाद पालकी को घाटियों की तरफ लटका दिया जाता है और दर्शनार्थी जब तक लौट कर आते है, यह सभी लोग अपने रिस्क पर कहीं ना कहीं सुस्ता लेते हैं.
यात्री संघ के सदस्यों का बिउठना आम बात है... मोबाइल नेटवर्क नहीं होने की वजह से समस्या हो ज्यादा हो जाती है... अनाउंसमेंट पर अनाउंसमेंट हो रहे थे. मिसिंग होने का डर नहीं है लेकिन चूंकि रास्ता थोड़ा मुश्किल है और दूरी थोड़ी ज्यादा है और मोबाइल नेटवर्क भी होला नहीं है तो सदस्य का ढूंढना मिलना बड़ा मुश्किल हो जाता है और तनाव के कारण यात्रा और बड़ी लगती है. जो लोग हमारे दर्शन का माध्यम बनते हैं, यानी पालकी वाले, खच्चर वाले और पीठू वाले भैया... यह सब दिखने में औसत से भी कम होते हैं लेकिन इनका स्टैमिना, धैर्य जबरदस्त है. साधारण दिनों में यह दो चक्कर लगाते हैं यानि १० किलोमीटर की चढ़ाई और १० किलोमीटर की वापसी वह भी कंधों पर वजन के साथ.
शाम को ३ बजे यमुनोत्री से वापस पैदल जानकी चट्टी आए. बस जानकीचट्टी से रवाना होकर रात्रि में ११:३० बजे वापस खराडी पहुंची जहाँ पर लौकी के कोफ्तों की सब्जी, मूंग दाल, चावल और गरमा गरम रोटी के साथ कैटरिंग टीम हमारा इंतजार कर रही थी. अगले दिन `मातली' पहुंचना था जहाँ से आगे गंगोत्री जी के लिए रवाना होना था.
भान्ति: अपने यहां पर एक गलत धारणा बनी हुई है कि यह तीर्थ स्थल केवल बुजुर्ग लोगों के लिए है, जबकि ऐसा कुछ नहीं है... ऐसी दुर्गम यात्राएं क्या बुजुर्ग कर सकते हैं? हालांकि अभी परिदृश्य पेज हुआ है और छोटे बड़े सभी की भीड थी.
यहाँ खरादी (यमुनोत्री) से मातली (उत्तरकाशी) पहुंचे. रास्ते में ही 'प्रकटेश्वर पंचानन महादेव' के दर्शन किए. यह मंदिर एक गुफा के अंदर स्थित है, इस मंदिर का प्रवेश और निकास द्वार एक ही है जो की बहुत ही संकरा है जिसमें बैठकर ही आना जाना होता है.
अगले दिन सुबह ३ बजे `मातली उत्तरकाशी' से गंगोत्री की ओर प्रस्थान किया. एक दिन के आराम के बाद एक बार पुनः जोश अपने उच्चतम स्तर पर था. भजन कीर्तन करते हुए, सुबह की हल्की गुलाबी ठंडी हवा और साथ में गंगा नदी के बहाव की कल-कल की आवाज. इन तीनों का मिश्रण मानो जैसे कानों में शहद घोल रहा था. यात्रा की सार्यकता भी इस माहौल के साथ पूरी होती प्रतीत हो रही थी.
लगभग ११० किलोमीटर का सफर `गंगा नदी' के साथ-साथ ही पूरा हुआ. बल खाती, इठलाती, अपने में झूमती जैसे कितने ही विशेषण रूपी शब्द गंगा नदी के लिए प्रयोग हो सकते हैं. कई जगह पर इसका रोद्र रूप भी चरम पर था. नदी के साथ साथ इतना लंबा सफर पहली बार ही किया.
रास्ते में `हरसिल' नामक जगह पर कैटरिंग वैन द्वारा नाश्ते में `चाय कचौरी कढ़ी' की व्यवस्था थी जिसकी टाइमिंग भूख के हिसाब से बिल्कुल सही थी.
दोपहर ११:३० बजे के आसपास गंगोत्री धाम पहुंचे. गाड़ी, जीप, बस पार्किंग की कोई व्यवस्था नहीं थी. रोड पर ही साइड में जगह की उपलब्धता के हिसाब से दो-तीन किलोमीटर तक गाड़ियों की लाइन लगी रहती है.
गंगा जी स्नान के बाद दर्शन के लिए लाइन में लगे. लगभग २ घंटे बाद हम गंगा मैया के सामने नतमस्तक थे. और बड़े ही सुकून के साथ हमारी दूसरे धाम की यात्रा पूरी होती हुई महसूस हुई. दर्शन होते ही थकान का नामो निशान नहीं था. यमुनोत्री के अपेक्षाकृत यहां पर भीड बहुत कम थी, बरसात भी नहीं थी और सर्दी का भी कोई माहौल नहीं था. अच्छी धूप भी खिली हुई थी लेकिन पास में ही बहती गंगा नदी कारण मौसम पूरा अनुकूल था.
अगर १०-१५ मिनट एक टक गंगा जी को देखते रहे तो जो विचार आता है की सदियों से यह नदी इतने ही वेग / प्रवाह के साथ बह रही है (अन्य नदियाँ भी) और मानव सभ्यता का विकास भी इनके ही सहारे हुआ है. लाखों करोड़ों लोग इन नदियों के बहाव क्षेत्र पर निर्भर है. कहां से आता है इतना पानी? पहाड़ पर बर्फ, ग्लेशियर्स, वाटर साइकिल सब पढ़ा है लेकिन कुदरत की इस व्यवस्था को मात्र कुछ ब्योरी के माध्यम से समझ कर सतही स्तर पर संतुष्ट होने वाली बात है. वाकई में बहुत ही अद्भुत व्यवस्था है.
इन नदियों को मां मानकर पूजा करने का जो श्रेष्ठ कार्य हमारे पूर्वजों ने शुरू किया इसके लिए वे अभिनंदन के उत्तराधिकारी हैं. पता नहीं कितने ही झरने और नाले इस गंगा नदी में समाहित होकर लोकहित में कार्य कर रहे हैं. रास्ते में ही `भैरव घाटी' नामक जगह पर लंच की व्यवस्था थी. यहां पर भैरव जी की प्रसन्नचित मुद्रा में मंदिर दर्शन किए. लगभग २ घंटे का जाम भी हमें रास्ते में मिला. रात्रि में ९ बजे हम वापस मातली, उत्तरकाशी पहुंचे जहाँ पर एक बार पुनः कैटरिंग टीम द्वारा गरमा गरम खाने की व्यवस्था की हुई थी.
अगले दिन सुबह ६ बजे चाय नाश्ते के बाद हमारे तीसरे धाम `श्री केदारनाथ जी' की ओर रुख किया.
यहाँ मातली, उत्तरकाशी से नारायण कोटी (रुद्रप्रयाग) और यहाँ रात्रि भोजन के बाद गुप्तकाशी पहुंचना था. वहीं से फिर अगले दिन की यात्रा शुरू होनी थी. दोपहर में टिहरी बांध (जो की भागीरथी नदी के ऊपर बना भारत का सबसे बड़ा बांध है) के आसपास कहीं दोपहर के भोजन की व्यवस्था टीम द्वारा की गई थी. पास में एक नदी बह रही थी, जिसमें खाना बनने तक 'फोटो खींचाई की रस्म भी निभाई गई. शाम को ठीक समय पर गंतव्य पर पहुंचे.
पहले दिन शाम के भोजन के समय ही अगले दिन की योजना को विस्तार से बता दिया था. रात्रि में १ बजे चाय आ गयी और ठीक २ बजे हम लोग बस में थे. नौद अपने चरम पर थी, लेकिन शेड्यूल के हिसाब से यही समय अनुकूल था. सुबह ४ बजे के करीब बस सीतापुर पहुंचे, वहाँ से पैदल ही सोनप्रयाग पहुंचे. यहाँ पर सिंगल लाइन की व्यवस्था थी जिसे पुलिस वाले बहुत अच्छे से निभा रहे थे. (यहां यूरीन स्मैल आपको समानांतर रूप से पूरे रास्ते में परेशान करती रहती है) यहाँ इसी जगह से खच्चर, घोड़ा पालकी, पीठू हम बुक कर सकते हैं. आगे भी एक पॉइंट है लेकिन वहां बहुत औड रहती है.
नोट १: रास्ता वाकई में बहुत दुर्गम है. पैदल चलेंगे तो पूरा दिन लगेगा यानी मिनिमम १०-१२ घंटे. इसलिए माइंडसेट पहले ही फिक्स करना सही रहता है कि हमें घोड़ा या पालकी करना है, क्योंकि लगभग १५ किलोमीटर की पैदल यात्रा, वह भी सीधी चढ़ाई, दिल, दिमाग, कमर और घुटने सब को तोड़ कर रख देता है. फिर भी कई लोग पैदल आ-जा रहे थे. डराना मकसद नहीं है.
नोट २: हालांकि घोड़े पालकी की व्यवस्था बीच रास्ते में भी आपको उपलब्ध रहते हैं लेकिन पैसे ज्यादा लगते हैं, हो सकता है कि अपने आधी यात्रा पैदल पूरी कर ली, फिर भी बाकी बची हुई आधी यात्रा के लिए भी ज्यादा पैसे दे रहे हो, क्योंकि यहां पर मजबूरी हावी हो जाती है और बीच रास्ते में लौटने का कोई ऑप्शन नहीं होता)
यहाँ पर भी गौरी कुण्ड या तप्त. कुंड है जिसमें प्राकृतिक रूप से गर्म पानी भरा रहता है. इसमें नहाना धार्मिक महत्व तो रखता ही है लेकिन क्योंकि हम थके हुए रहते हैं और यह एरिया भी ठंडा है तो गर्म पानी बहुत सुकून देता है.
यहां से दरअसल आगे की चढ़ाई शुरू होती है. घोड़े पर बैठकर भी यात्रा भी आसान नहीं है. कभी आगे वाली टांगे कभी पीछे वाली टांगे स्लिप होती रहती है, दो लोगों को गिरते देखा जिनको मेडिकल रिलीफ के लिए अलग से कैंप में लेकर जाना पड़ा, क्योंकि हमारे पैर दोनों साइड में हुक में फिक्स रहते हैं यदि घोडा लड़खड़ा जाता है तो सिवाय गिरने के कोई ऑप्शन नहीं है. बैठने की सीट भी आरामदायक नहीं रहती और जिस कड़ी को दोनों हाथों से पकड़ कर बैठना होता वह भी परेशान करती है. घुटने तो ८ से १० बार भिडते हैं जिसके कारण यात्रा की वाह-वाह पर आह आह ज्यादा प्रभावी रहती है. कहने का मतलब गर्दन और कमर इस पर भी अकड़ जाते हैं. लेकिन यहां एक बार फिर यमुनोत्री की तरह ही घोडे, पालकी और पिट्ठू वाले भैया लोगों की तारीफ जितनी की जाए कम है. ना जाने कितने ही अनगिनत लोगों के लिए केदारनाथ जी के दर्शन का माध्यम बनते हैं, उनकी मजबूरी कहो या हिम्मत लेकिन गजब व्यवस्था बनी हुई है.
सभी सदस्य केदारनाथ से पहले फाइनल स्पोट `नंदी बेस कैंप' लगभग दोपहर में ४ बजे पहुंचे. वहां पर पहले से ही बुक एक टेंट हमें अलॉट हो गया. बहुत सारी कैंप साइट्स / टैट रूम यहां उपलब्ध है. ओवरऑल साफ सफाई इन टेंट के आसपास इतनी ज्यादा नहीं है.
रात्रि में बजे १:३० बजे (वैसे अगले दिन कि सुबह) सभी अपने अपने तम्बूओं से निकले और बाबा के दर्शनार्य प्रस्थान किया. सुबह के लगभग २:१५ बजे हम पंक्ति में लग गए. कपाट ५ बजे खुलने थे तो सभी लोग लाइन में ही आलयी पालयी मारकर बैठ गए. कई लोग पूरा होमवर्क करके आये थे, इसलिए लाइन में आराम से सो रहे थे क्योंकि वह अपने साथ दरी, फोम शीट भी साथ लाये थे.
सुबह ५ बजे शंखनाद के साथ आरती का आगाज हुआ... सभी सक्रिय हो गए और `हर हर महादेव' का नारा गुंजायमान हो गया.... बम बम भोले, ओम नमः शिवाय जैसे मंत्र उच्चारण से भक्ति अपने चरम पर थी... ठंड का तो क्या ही कहना... बिल्कुल जमाव बिंदु पर तापमान था. (केदारनाथ जी से १७ किलोमीटर नीचे गौरीकुंड तक गर्मी ही रहती है... फिर ऊपर चढ़ाई करते वक्त ठंडक एहसास नहीं होता... लेकिन ऊपर मंदिर के १ किलोमीटर के दायरे में ठंड जबरदस्त रहती है... इसलिए ऊनी कपड़ों की बराबर व्यवस्था उचित रहती है)
२०१३ उत्तराखंड त्रासदी दिमाग में आ रही थी... कल्पना मात्र से सिहरन उठ रही थी... और आज इस भीड़ को देखकर लग रहा था जैसे कुछ हुआ ही ना हो... भक्ति, आदर और श्रद्धा भाव से बढ़कर इस दुनिया में कुछ नहीं... और बात जब शंकर भोले की हो तो क्या कहना... बम भोले.
लगभग २-३ घंटे में हमारा नंबर आया... अंदर गर्भ गृह तक गए... और शिक्षा पर जलाभिषेक किया, अंदर आराम से ५ से १० मिनट लग रहे थे... यह टाइम कम किया जा सकता है ताकि बाहर भीड़ को समस्या ना हो... लेकिन शाम होते होते हमारे ही किसी सदस्य द्वारा पता चला कि अब केवल जल्दी-जल्दी बाहर से ही दर्शन करवा रहे है... मतलब भीड और समय के हिसाब से व्यवस्थाएं बदलती रहती है. सुबह ६-७ बजे के आसपास सूर्य की पहली किरण जब पर्वत शिखर पर पड़ती है तो क्या ही कहना.. जैसे किसी ने मुकुट रख दिया हो... या फिर जैसे कोई लाइट एंड नाइट शो शुरू होने वाला हो.
मंदिर के बाहर आकर नदी के दर्शन किए और उन्हें घी का तिलक लगाया... फिर सभी बाबाओं से आशीर्वाद प्राप्त किया.. फिर मंदिर के ठीक पीछे स्थित भीम शिला के दर्शन किए.
इस भीम शिला का संबंध २०१३ में आई भयंकर त्रासदी से है. (जब पानी का बहाव अपने चरम पर था, और उसे पानी से मंदिर को नुकसान हो सकता था, इस समय यह चट्टान ऊपर से लुढ़कती हुई आई और ठीक मंदिर के २५-३० फीट पहले आकर रुक गई, पानी की रास्ते में उसने एक बाधा का काम किया, और पानी से टकराकर, मंदिर को बचाते हुए साइड से निकलता रहा)
इस घटना के पीछे सभी बुद्धिजीवी अपना अपना दिमाग लगा सकते हैं, लेकिन फिर भी हमारे धर्म के अनुसार बचाने वाले का बड़ा महत्व है, इसलिए इसका नामकरण भी `भीम शिला' कर दिया गया है. फिर पूरे मंदिर प्रांगण में घूम कर हर कोने से बाबा का आशीर्वाद लेने की कोशिश की. फिर बाहर निकले... तो जो भीड़ देखी विश्वास नहीं हुआ... जितनी दूर तक नजर आ रही थी वहां तक श्रद्धा भाव के साथ, नतमस्तक खड़े श्रद्धालु गण ही दिख रहे थे.
सबसे मुश्किल काम अब शुरु होने वाला था... वापस नीचे उतरने का. हेलीपैड पास में ही था, वहां काउंटर पर जाकर खूब कोशिश की हेलीकॉप्टर के लिए.. लेकिन कोई फायदा नहीं था.
उत्तरने के लिए दो ही ऑप्शन दिख रहे थे या तो पैदल जो कि लगभग असंभव सा था या फिर घोडे-खच्चर (पिठू वाले भैया का ऑप्शन हमने सिरे से नकार दिया था, जबकि पालकी बहुत लिमिटेड थी),
गिरते हुए घोडे हमने देख रखे थे, और पैदल चलना थकान की वजह से संभव नहीं था... और अगर थोड़ा चलने की कोशिश भी करते.. तो बीच रास्ते में घोड़े वाले डबल पैसा लेते.
दोपहर करीब ३:३० हम गौरीकुंड पहुंचे, वहाँ से सोनप्रयाग और फाइनली ५ बजे सीतापुर बस स्टैंड, फाइनली शाम को ८ बजे सीतापुर से नारायण कोटि की और प्रस्थान किया जहां पर होटल में ठहराव था, और यही से अगले दिन बद्रीनाथ के लिए प्रस्थान करना था.
बद्रीनाथ जी की कुल दूरी १९० किलोमीटर थी. आज का पूरा दिन सफर ही होना था, और मंदिर दर्शन अगले दिन के लिए तय था. राम-राम के १०८ नाम की माला और हनुमान चालीसा के साथ यात्रा का श्री गणेश हुआ. भले किसी भी प्रकार की यात्रा हम कर रहे हो, अगर सफर में माहौल उसी तरह का है तो यह आसान हो जाती है. आज दिमाग में अलग तरह की संतुष्टि थी शायद यात्रा अपने अंतिम पड़ाव पर थी और सभी सदस्य स्वस्य थे. करनप्रयाग चमोली के आस पास दोपहर के लंच की व्यवस्था टीम ने करी हुई थी. वहीं पर एक पवित्र नदी `गरुड़ गगा' का प्रवाह भी था, और ऐसी मान्यता है कि वहां से कम से कम एक कंकर लाकर घर में पूजा स्थल पर रखना चाहिए. बीच रास्ते में मेडिकल हेल्थ चेकअप के लिए व्यवस्था थी जिसमें ५० साल से ऊपर व्यक्तियों का परीक्षण हुआ.
थोड़ी दूर चलने पर हनुमान चट्टी का मंदिर था, जिसमें `रघुपति राघव राजा राम' भजन चल रहा था लेकिन बहुत ही अलग सा, मधुर सा लग रहा था. साथ में गुनगुनाने का तो अलग ही मजा था.
शाम को ५:३० हम बद्रीनाथ पहुंचे और थोड़ा रिलैक्स महसूस किया. हमारे पास समय पर्याप्त था, सभी बाबा के दर्शन हुए निकल लिए,
बढ़ी धाम अन्य चार धाम की तुलना में कुछ अलग है जैसे:- मंदिर के लगभग अंतिम छोर तक बस जाती है, इसलिए पैदल चलने का कम है.
- यहां का वॉकिंग एरिया बहुत ज्यादा है.
- मंदिर परिसर के आसपास ही बहुत सारी धर्मशालाएं और होटल है जो यात्रा को और आरामदायक बनती है,
- क्योंकि यह चार धाम यात्रा का अंतिम पड़ाव होता है. इसलिए पहले से ही दिमाग रिलैक्स मूड में रहता है, क्योंकि अगले दिन के लिए भागा-दौड़ी नहीं करनी होती.
- प्रकृति की खूबसूरती मुझे यहां ज्यादा महसूस हुई.
यहां पर भी यमुनोत्री के तप्त कुंड, और केदारनाथ के गौरी धाम की तरह तप्त कुंड में गर्म पानी रहता है. यह एकदम प्राकृतिक है. अपेक्षाकृत इसमे पानी बहुत ज्यादा गर्म है और नहाना बहुत मुश्किल है. भगवान बद्रीनाथ के यज की अग्नि का प्रतीक यह तत्व कुंड पूरी धकान उतार देता है. लगभग किलोमीटर लंबी लाइन पी. ३ घंटे में बाबा के दर्शन हो गए... लाइन में लगकर सत्संग और भजन करते हुए लगातार आगे बढ़ते रहने के कारण ज्यादा टाइम का एहसास नहीं हुआ.
नदी नारायण जी की मनमोहक छवि देखने के बाद एक संपूर्ण संतुष्टि का भाव हम सभी के चेहरे पर था. आज फाइनली चारों धाम का अंतिम धाम था. कहने का मतलब आज चार धाम यात्रा लगभग पूरी हो चुकी थी. लौटते वक्त रास्ते में गरम-गरम दूध और जलेबी का रसास्वादान किया रूम पर वापस पहुंचते ही रात्रि भोज की व्यवस्था हो रखी थी. जब संघ के सभी सदस्य एक साथ मिले.. तो एक संतुष्टि भाव के साथ जोरदार जयकारा चार धाम को समर्पित लगाया. सुबह ६ बजे उठने के बाद एक बार पुनः बद्रीनाथ मंदिर गए, तप्त कुंड में स्नान किया और पंडित जी के पास पहुंचे, जहां पर पिताजी और मामा जी द्वारा पूर्वजों के प्रति श्रद्धांजलि अर्पित की गई... और परिवार की जानकारी उनकी 'बहीं' में अपडेट करवाई गई. फिर बोर्डिंग पॉइंट पहुँच कर सारा लगेज बस में रखकर हमने माना गांव की ओर प्रस्थान किया.
माना गांव, भारत के प्रथम गांव के नाम से दर्ज है. (इसके आगे भी और गांव है, लेकिन वहां तक जाने के लिए मिलिट्री परमिशन चाहिए, प्रâी एंट्री वाला माना प्रथम या अंतिम विलेज है). इसके आगे तिब्बत बॉर्डर शुरू हो जाती है. इसके अलावा इस गांव में गणेश गुफा, व्यास गुफा और भीमपुल आदि दर्शनीय स्थल है. यहीं पर सरस्वती नदी का उद्गम स्थल भी है. एक मान्यता के अनुसार पांडव जब अंत समय में स्वरगारोहण कर रहे थे तो वे यही से गुजरे थे.
हमने गणेश गुफा (जहां पर बैठकर गणेश जी ने १८ पुरार्णा की रचना की थी) में धोक लगाई और वापिस बद्रीनाथ पहुंचे. शाम का ठहराव पीपल-कोटी में था. यहाँ से अगली सुबह ऋषिकेश हरिद्वार निकलना था.
सुबह ६:०० बजे हल्के पोहे के नाश्ते के बाद ऋषिकेश की और प्रस्थान किया, वहीं १०८ राम नाम की माला और हनुमान चालीसा से यात्रा का श्री गणेश किया. सभी लोग एकदम शांत चित और धैर्य के साथ बैठे हुए थे, क्योंकि ज्यादातर लोगों की आज रात्रि में ही अपने घर के लिए हरिद्वार से ट्रेन थी. रास्ते में धारी देवी के मंदिर में प्रार्थना की, धारी देवी का मंदिर भी बहुत ही रमणीय है. यह मंदिर अलकनंदा नदी के बीच में स्थित है. यहां पर भी सीढ़ियां ठीक-ठाक है, इसलिए दो-तीन घोड़े की व्यवस्था यहां पर भी थी. दूर से यह मंदिर एक टापू की तरह दिखता है. यहां के अन्य आकर्षण के बिंदु केबल ब्रिज, बोटिंग वगैरह है. फिर आगे चलकर देवप्रयाग, शिव मूर्ति के पास दोपहर के भोजन की व्यवस्था थी.
फिर यहां से सीधे ऋषिकेश पहुंचे. यहां पर भी जबरदस्त भीड़ थी लेकिन धार्मिक यात्रा से संबंधित कम थी. क्योंकि ऋषिकेश एक एंटरटेनमेंट जोन के रूप में भी उभर रहा है तो रिवर राफ्टिंग वगैरा के लिए आसपास के एरिया से लोग आते हैं... (दिल्ली तक के)... यानि समर वेकेशन के रूप में भी ऋषिकेश एक अच्छा विकल्प है. यहां से हमने ऑटो किराये पर किया जिसने हमें `जानकी-ब्रिज’ पर उतारा, जानकी ब्रिज को क्रॉस करते हुए गीता भवन पहुंचे, वहां से प्राचीन भूतनाथ मंदिर, वहां से स्वर्ग आश्रम और अन्य आश्रम देखते हुए गंगा नदी के घाट घाट चलते हुए वापस जानकी ब्रिज तक आये और ऑटो में बैठे.
रास्ते में दक्षिण भारत की व्यवस्था में बने तीन-चार मंदिरों के और दर्शन किए जैसे तिरुपति बालाजी मंदिर, वैकटेश्वर स्वामी मंदिर आदि. फिर सभी लोग बस पर पहुंचे. बस से सीधे हरिद्वार आये. यहां पर गंगाधाम आश्रम में विश्राम के लिए कमरा लिया. यहां से २० लोग आज शाम को यात्रा पूरी होने पर अपने गृह नगर लौट जाने थे. (कोटा, उदयपुर, झालावाड आदि) शाम को खाना खाने के पश्चात, भविष्य में फिर से मिलने की उम्मीद के साथ सभी ने एक दूसरे को अलविदा कहा.
`जिंदगी के सफर में गुजर जाते हैं जो मकां वो फिर नहीं आते’ कल हमें भी अपने घरों की और रवाना हो जाना है, फिर से वही वही आम जिंदगी, वही आम ऑफिस.
प्रमोद कुमार गौड़
चूरू, राजस्थान