गर्मी से तप्त धरती का प्यास बुझाने के लिए जब बरसात की रिमझिम बूंदे उसे आलिंगनबद्ध करती है तो प्रकृति हरितिमा की चुनरी ओढ़े नाचने लगती है और यही आगाज होता है सावन के आने का। सावन के साथ झूला का सदियों पुराना रिश्ता है। सावन का झूला भारत में सावन महीने (जुलाई-अगस्त) के दौरान मनाया जाने वाला एक सांस्कृतिक और धार्मिक उत्सव है, जो विशेष रूप से उत्तर भारत में लोकप्रिय है। यह परंपरा हिंदू धर्म और लोक संस्कृति से जुड़ी है, जिसमें झूले (झूलन) का विशेष महत्व है। सावन का महीना हिंदू पंचांग के अनुसार भगवान शिव और माता पार्वती को समर्पित होता है।यह महीना वर्षा ऋतु के साथ आता है, जब प्रकृति हरी-भरी हो जाती है, और लोग उत्साह के साथ उत्सव मनाते हैं। सावन में झूला झूलने की परंपरा को माता पार्वती और भगवान शिव के प्रेम और राधा-कृष्ण की लीलाओं से जोड़ा जाता है। कृष्ण राधा के संग झूला झूलते और गोपियों के संग रास रचाते थे। प्रेमी का अपने प्रेम का इजहार करने के लिए प्रेमिका के झूला झूलते हुए पेंग बढ़ाने में सहायता करना प्रेम की घनिष्ठता का प्रतीक है। परस्पर सरस प्रेम का यह चुहल दोनो को निकट लाने का अवलंब बनता है।
एक समय था जब सावन आते ही घर-आंगन से लेकर दुआर तक आम नीम के पेड़ पर झूले टँग जाते थे। सावन में लोग पेड़ों पर रंग-बिरंगे झूले बांधते हैं, जिन्हें फूलों, पत्तियों और रंगीन कपड़ों से सजाया जाता है। गाँवों और शहरों में खासकर महिलाएं और युवतियाँ झूला झूलने का आनंद लेती हैं। झूला झूलते समय घर की महिलाएं उन झूलों पर पेंग बढ़ाती हंसी ठिठोली के बीच झूला झूलती और खुद को खुशी की ऊर्जा से भर लेतीं थीं। मेंहदी की भीनी खुशबू से हाथों को रचित कर लोकगीत की मधुर स्वर लहरी से वातावरण गुंजयमान कर देती थीं। लेकिन अब समय के साथ आधुनिकता के नाम पर बदलाव आया और इस बदलाव की गाज पेड़ो पर पड़ी। आसपास से पेड़ गायब होते गए हैं। फ्लैट संस्कृति में घर आंगन विस्मृत हो गया है और फिर सावन के झूले किदवंती बनकर रह गए हैं। अब रस्सी और पटरी वाले वे झूले नहीं दिखते। लोग अपनी बॉलकनी में लोहे के झूले पर ही झूल कर झूले को याद कर लेते हैं।
जबकि पहले स्त्रियां बड़े बड़े पेड़ों पर रस्सियों की मदद से झूला डालकर दिनभर झूला झूलती हुई तीज, मल्हार और सावनी गीतों से रस विभोर रहती थीं। सारा वातावरण हरितिमा हो जाता था। स्त्रियां झूला झूलते समय कजली गीत बहुत उमंग से गाती थीं। इन गीतों में भाई-बहन का प्यार, सास-बहू की नोंक झोंक,ननद-भौजाई का हास-परिहास समाहित होता था। विवाह के बाद पहले सावन में नवविवाहिता पीहर आकर सावन के गीतों के साथ झूला झूलकर इस परंपरा को निभाती थीं। चुहल भरी शरारतें करती थी। सावन के महीने में वे साज-श्रृंगार, हरी चूड़ियां और मेंहदी की रौनक से मतवाली हो जाती थीं। घर-घर सेवइयों की मीठी सुगंध बिखरने लगती थी।
अफ़सोस है सावन की रंगीली अब कहीं दिखाई नहीं देती। झूले और लोकगीतों की परंपरा विलुप्ति के कगार पर है। मेंहदी लगाने, गीत गाने झूला झूलने की परंपरा अब मोबाइल और वीडियो में तब्दील होती जा रही। एकल परिवार की बढ़ती प्रवृत्ति, पाश्चात्य संस्कृति का अंधानुकरण, वृक्षों की कटाई और कंक्रीट के जंगलों में बसे अपार्टमेंट आदि ने सावन की महत्ता को घटाया है। आज इंटरनेट, सोशल मीडिया के माध्यम से इन पर्वो की खानापूर्ति की जा रही। ऐसा लगता है सारी पारंपरिक खुशियां मॉल संस्कृति में सिमटकर रह गई हैं। आज के समय मे क्लबों में सावन थीम की पार्टी होती है। सावन का रस्म निभाने का यही जरिया बचा है। सावन का पुराना उल्लास खत्म होता जा रहा।
दरअसल आज हम विकास व आधुनिकता की अंधाधुंध दौड़ में अपनी संस्कृति व लोकपरंपराओं से दूर होते जा रहे। सावन का झूला, जो कभी भारतीय ग्रामीण संस्कृति का एक जीवंत हिस्सा था, अब आधुनिकता और बदलते जीवनशैली के कारण विलुप्ति की ओर बढ़ रहा है। यह परंपरा सावन महीने में पेड़ों पर झूले बांधकर, खासकर महिलाओं और बच्चों द्वारा झूलने और सावन के लोकगीत गाने की थी। यह परंपरा अब धीरे-धीरे कई कारणों से विलुप्त हो रही है।
विलुप्ति के कारण :
१.आधुनिकता का प्रभाव : शहरीकरण और बहुमंजिला इमारतों के निर्माण ने बगीचों और आंगनों को सीमित कर दिया है, जहां पहले पेड़ों पर झूले बांधे जाते थे। अब जगह की कमी के कारण यह परंपरा शहरों में लगभग खत्म हो चुकी है। गांवों में भी पेड़ों की कटाई और पर्यावरणीय बदलाव ने झूलों के लिए उपयुक्त स्थान कम कर दिए हैं।
२.जीवनशैली में बदलाव : पहले संयुक्त परिवारों में बुजुर्गों के मार्गदर्शन में सावन के उत्सव हर्षोल्लास से मनाए जाते थे, लेकिन अब एकल परिवारों और व्यस्त जीवनशैली ने इस परंपरा को प्रभावित किया है।लोग अब समय की कमी और आधुनिक मनोरंजन के साधनों (जैसे टीवी, मोबाइल) के कारण सावन के झूलों और गीतों को 'समय की बर्बादी' मानने लगे हैं।
३.सांस्कृतिक बदलाव : पहले नवविवाहिताएं सावन में अपने मायके आकर सखियों के साथ झूला झूलती थीं और सावन के गीत गाती थीं, लेकिन अब यह प्रथा कम हो रही है। रक्षाबंधन के लिए एक दिन का दौरा मायके तक सीमित रह गया है।गांवों में सावन के मेले और चौपालों पर गाए जाने वाले गीत अब कम सुनाई देते हैं, जिससे सामुदायिक एकता और उत्साह में कमी आई है।
४.बच्चों पर पढ़ाई का दबाव : बच्चों पर पढ़ाई और प्रतियोगिता का बढ़ता दबाव इस परंपरा को पीछे छोड़ रहा है। पहले बच्चे भौंरा, कबड्डी और झूलों का आनंद लेते थे, लेकिन अब उनकी प्राथमिकताएँ बदल गई हैं और वीडियो गेम की लत लग गई है।
विलुप्ति का प्रभाव :
१.सांस्कृतिक नुकसान: सावन का झूला केवल एक मनोरंजन नहीं, बल्कि सामाजिक एकता, प्रकृति से जुड़ाव और भक्ति का प्रतीक था। इसके लुप्त होने से ग्रामीण संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा खो रहा है।
२.आनंद और स्वास्थ्य पर प्रभाव: झूला झूलना न केवल आनंददायक था,बल्कि यह मानसिक तनाव कम करने, शारीरिक व्यायाम और एकाग्रता बढ़ाने में भी सहायक था। इसकी कमी से लोग इन लाभों से वंचित हो रहे हैं।
डॉ. सुधा मौर्य
रायबरेली रोड, लखनऊ