ग़ज़ल
रात सोते हैं सुबह जगना होता है
तारीख़ बता रही सबको झुकना होता है
महफ़िल में चराग़ फ़रोज़ाँ हुए सारे
कुछ देर के बाद उनको बुझना होता है
चली छोड़ जवानी बुढ़ापा है आया
उसके बाद तो सबको मरना होता है
कोई हमें याद खय़ालों में करता नहीं
याद करने को क्या कुछ करना होता है
कड़ी-राह का पत्थर नहीं हूँ मैं लेकिन
कली बनने को कांटों में खिलना होता है
उम्र बीत जा रही दाग़-ए-फ़िराक़ में
मुस्कुराने को कई मर्तबा सोचना होता है
हमसे कोई वास्ता तो नहीं तेरा
जिनसे था अब उनको ढूंढना होता है
अभिकेत वर्मा
नोएडा
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