ठहरा हुआ आदमी

This story explores the journey of a man and a shadow—the stagnant one. Through regret, inner voice, and forgotten values, it reveals how a person becomes a mere shadow of himself. A reflective tale on life and identity.

Jul 8, 2025 - 16:06
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ठहरा हुआ आदमी
Social reflection story

Social reflection story : ठहरा हुआ आदमी... एक दिन शाम का समय। रोज की तरह आज भी शाम को नित्य ३००० क़दम और तीस मिनिट चलने की उतावली में सड़क के किनारे किनारे चला जा रहा था। संध्या ढलने को तैयार थी, भगवान भास्कर सारे दिन की तपन और थकान मिटाने दक्षिण से पश्चिम की तरफ विहार कर स्वयं आकाश की गहराइयों में छुप जाने, चिड़िया और चीड़े अपने अपने घोंसले में नन्हें-नन्हें परिंदो को छाती से लगाकर प्यार का चुम्मा देने चावल और मुंग के दाने चोंच में भरकर जंगल के घने पेड़ की हरी भरी हरियाली के बीच तिनका तिनका जोड़ बरसात के जुगाड़ू अपने प्यारे शीश महल में उड़-उड़ जाने की तैयारी में आपस में बतियाते जा रहे थे। पास के तालाब में मछलियां तैरती हुई मछुआरों को छकाने अपना मुंह बंद खोल कर प्रतीक्षा में थी कि कब ये जाल हटे फटे कि मन्दिर को जाने वाले श्रद्धालु के डाले गए मुरमुरे मुंह में रख कर गहरे पानी में डुबकी की बाट जोह ही रही थी। उनकी पूरी बात तो समझ नहीं आई मगर एक बात समझ में आ गई कि ये इन्सान भी न जाने किस मिट्टी का बना हुआ है कि एक भोजन देकर हमें पाल पोस कर अपना दया धर्म निभाता है तो दूसरा हमें जाल में फंसा कर उसका और उसके परिवार के पेट भरने का परिवार धर्म निभाता है। कई सुन्दर-सुन्दर दृश्य और अनेक विचार की लहरें मानो समुद्र तट से टकराकर मां धरती को चूमने को आतुर थी।  


चलते-चलते यह क्या हुआ? अंधेरा पसर रहा था, वापस लौटने का मन हो ही रहा था कि एक आदमी की परछाईं पेड़ों के झुरमुट से बाहर झांकती दिखाई दे रही थी, मुझे लगा वो मेरी तरफ ही बढ़ रही थी हल्का-सा मन संशय ओर डर से भरने को ही था कि थोड़ी दूर मन्दिर की घंटियां और हनुमान जी की आरती की रुनझुन मेरे मन और दिलो-दिमाग को एक गजब की ताकत का अहसास कराती जा रही थी। अपने आप को सहेजा, वो युवा दाढ़ी मूंछ वाली परछाई मेरी परछाई को छूने को तैयार थी। मुझे एक आवाज सुनाई दी ‘सुनो राहगीर, तुम चलते हुए आदमी हो और मैं ठहरा हुआ युवा आदमी हूं, रोज तुम्हें चहल कदमी करते देखता रहता हूं, प्रेरित होता हूं चलने की ईच्छा होती है सोचता हूं साथ साथ में चल पड़ूं, कोशिश करूं कि दौड़कर आगे-आगे बहुत आगे निकल जाऊं मगर तब तक तुम आगे बहुत आगे निकल चल पड़ते हो और मैं वहीं ठहर जाता हूं जी' मैं ठहरा हुआ आदमी'। 

उसकी आवाज में निराशा मगर शीतलता मेरे मन को अन्दर तक छू गई। मैंने उस बन्दे की तरफ हाथ बढ़ाया। मगर वो परछाई मेरी परछाई को छू कर पेड़ों के घने अंधेरे में कहीं खो गई। मैं धीरे-धीरे आगे निकल गया और मन्दिर की सीढ़ियों पर बैठ कर आरती की ज्योत लेकर थोड़ा प्रसाद पा घर लौट चला। रात बीत चली, ‘वो परछाई, ठहरा हुआ आदमी बार बार मन मस्तिष्क से आ जा रहा था।' थोड़ा सा प्रभु श्री सुमिरन किया, मन में अपने आप ही निश्चित किया कि ये तो एक काल्पनिक घटना है जी कहां खो गए सो जाओ और थोड़ी सी देर में मां निद्रा देवी ने अपने मधुर शान्त आगोश में ले लिया। आज फिर उसी एकान्त सड़क के किनारे-किनारे चल निकलने की इच्छा हो आयी। एक बार कदम थोड़े से ठिठके, ‘वो ठहरे हुए आदमी की परछाईं' कहीं आज फिर!! फिर याद आया यार ये बातें तो बचपन में बहुत बार सुनने को मिलती थी कि गांव के बाहर गहरे कुएं के ऊपर वो पीपल का सौ साल उम्र का पेड़ उस के खन खन करते पत्ते उस पर जहरीले सांपों का डेरा, ची ची करते उलट-लटक चिमगादड़, घनघोर अंधेरा एक दूसरे पर! झपटा झपटी करते हिंसक जानवर और मध्य रात्रि में नृत्य करते हुए वो काले-काले भूतों की जिंदा भूतों को ढूंढती टोलियों के झुण्ड!! और भी न जाने क्या क्या? फिर बच्चे-बूढ़े सभी को सख्त हिदायत की रात को उधर जाना तो दूर झांकना तक नहीं वरना फिर आफत के पहाड़ सारे गांव पर टूट पड़ेंगे, अब जब सारे गांव की बात हो तो कोई भी कैसे जा सकता था। जब हम सुबह तड़के नदी को पार कर कुएं पर जाते थे तो एक बात रोज जरूर देखते कि एक दो चार गहरे गहरे गड्ढे और उसकी रेत बिलकुल गधे के सींग की तरह गायब हुई जाती थी, हमने एक बार गलती से पूछने की हिम्मत कर ली कि मेहरबान कोई तो बताओ कि ये गड्ढे, ये गायब होते बारीक रेत के कण, रोज कटते नदी के किनारे कटे हुए पेड़.. ये भूत प्रेत इतने खतरनाक कि रेत को ही पूरी की पूरी निगल जाते हैं, पेड़ो की डालियों को सुखा देते हैं, नदी के प्यारे-प्यारे किनारों को उनके तीखे नुकीले सींगों से बौना कर देते हैं। कोई जवाब नहीं देता था सब चुप ही रहते, इतना जरूर कहते थे कि तुम क्यों झमेले में पड़ते हो भूत हो कि उसकी परछाई रेत खा जाए कि नदी के किनारे! हमने भी सुना है, अब भूत नहीं देखे तो क्या हुआ, रेत तो गायब हो ही रही है ना, और तो और वो गांव की ऊंची चोटी वाला पहाड़ भी तो अब नहीं रहा। रात भर भूत प्रेत नाचते हैं कुछ परछाई दिखती हैं और गड़-गड़-गड़ गड़गड़ाहट की चीत्कार भी तो सुनाई पड़ती है। 

खैर वो बात तो बचपन की सुनी सुनाई थी लेकिन हां अब न वो नदी, ना किनारा ना वो कुआं जो पूरे गांव को बारह मास शीतल, मीठा जल पिलाते पिलाते कभी न सूखा वो आज कहीं भी दिखाई नहीं देता तो अब मानना ही पड़ेगा ना कि वहां भूत प्रेत नाचते हुए नजर आए ही होंगे। मैं चलते-चलते उसी सड़क के किनारे किनारे थोड़ा सहमा हुआ पर उस परछाई से मिलने की इच्छा भी मन में न जाने क्यों आंख मिचौली कर रही थी। मैंने एक बार एक राम कथा में सुना भी था कि भूत प्रेत या उनकी परछाइयां केवल डरावनी ही नहीं होती वो व्यक्ति को दिशा दर्शन कराने वाली और यदि जिजीविषा तीव्र हो तो ईश्वर के साक्षात दर्शन भी करा देती हैं। तुलसी जी को प्रभु श्री राम के दर्शन की बड़ी गजब की लालसा, उत्कंठा दिल में भरी हुई थी, वो रोज सुबह सवेरे गांव से दूर घने जंगल में नित्य क्रिया से निवृत होकर निम महुआ आम बबूल आक के दातुन घिस रेत के बारीक कणों से नदी में नहा धो एक लोटा पानी भरकर ले आते और वो जल रास्ते में  किनारे खड़े घने पीपल की जड़ों में परिक्रमा करते हुए अर्पित कर देते और मन ही मन राम दर्शन की अभिलाषा करते राम राम जपते गांव की तरफ बढ़ चलते।

एक दिन वो ही सुबह सवेरे का समय लोटा जल चढ़ाते चढ़ाते उन्हें लगा कि कोई परछाई उनका पीछा कर रही है। तुलसी जी तो राम नाम भजन में मगन तभी आवाज सुनाई पड़ी तुलसी ओ तुलसी मांगो, आज जो चाहो मांग लो जब तुलसी जी ने आवाज को अनसुना कर दिया तो वही आवाज सुनाई पड़ी।' मांगो जी मांगो मैं तुम पर प्रसन्न, तुलसी मैं जन्मों का प्यासा, तुम्हारे एक लोटे जल से ही तो प्यास बुझाता हूं। तुलसी कुछ मांगे कैसे, मांगने की तो कभी आदत नहीं रही और न ही कभी जरूरत आ पड़ी। तब तक फिर आवाज गूंज उठी, सुनो ध्यान से सुनो राम कथा के पांडाल में अन्तिम पंक्ति में आकर एक कोड़ी दुर्गन्ध से भरा बूढ़ा सा जीर्ण शीर्ण फटे मेले कुचैले कपड़ों में बैठा हुआ व्यक्ति तुम्हें तुम्हारे ईष्ट के दर्शन का रास्ता बताएगा उसके चरण पकड़ लेना, वो बहुत ही चालाकी से तुम्हारा पीछा छुड़ाने की कोशिश करेगा तुम्हारे चरण पकड़ते ही वो अपने दिव्य स्वरूप में केवल तुम्हें दिखाई देगा, इधर मेरी बंधी आत्मा की प्रेत मुक्ति भी हो जाएगी। आज कथा का अन्तिम भाग होगा तुलसी मौका चूके तो तुम्हारी ईच्छा। आज मेरी ईच्छा मुक्ति का दिन है तुलसी पुण्य कमा लो। बस वो परछाई न जाने हवा में कहां विलुप्त हो गई। अब तो तुलसी भागे-भागे पांडाल में अन्तिम पंक्ति में कथा शुरू होने के घंटो पहले आसन जमा हंस दृष्टि से बूढ़ी सूरत को तलाशने में लग गए। कथा शुरू होने से पहले जो कथा प्रेमी पांडाल में आते देखते तुलसी आज ठेठ अन्तिम में बैठे हैं लोग कहते तुलसी आज कथा का अन्तिम दिन और तुम आज ठेठ पीछे... इधर आज तुलसी मौन एकदम मौन क्या कहे कैसे कहें कि हां आज ही तो अन्तिम अवसर है कथा श्रवण के प्रसाद को पाने का जन्म जन्म की प्यासी आत्मा के प्रभु दर्शन की ज्योत जलाने का। कथा शुरू ही हुई कि बड़ी सावधानी से हूबहू वही बूढ़ी सूरत पीछे हट कर कथा श्रवण में आ लगी। बस अब तो तुलसी जी को पूरा पक्का विश्वास हो गया कि आज बस आज!! तुलसी भी धीरे-धीरे आसन खिसका उस बूढ़ी सूरत की तरफ बढ़ चले और धीरे से चरण पकड़ दबाने लगे। वो बूढ़ा शरीर धीमी आवाज में छोड़ो-छोड़ो मुझ बूढ़े आदमी को कथा सुनने दो, मैं मैला कुचैला दुर्गंध से भरा, मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा जी रोज कथा यहीं बैठ कर श्रवण कर राम राम सुमिरन कर लौट जाता हूं। तुलसी मीठी मीठी वाणी में मन ही मन राम राम सुमिरन कर गुनगुनाने लगे बिगाड़ा नहीं तो आज हमारी नौका पार लगा दो प्रभु आप अकेले ही दर्शन करते रहोगे क्या?? हनुमान जी से रामजी का भक्त और भक्ति कैसे छुपी रह सकती है और भक्त की ज्यादा परीक्षा भी कैसे ली जाय। हनुमान जी ने अपने दिव्य विशाल स्वरूप का दर्शन देकर अयोध्या के दिव्य मनोरम राज पुत्रों की कथा सुनाकर चित्र कूट के घाट पर दोनों के दिव्य स्वरूप प्रकट की प्रतीक्षा करने का आशीर्वाद देकर अपनी माया को समेट लिया।

इस कथा का सुमिरन करते-करते मैं फिर उसी एकान्त सड़क से गुजर ही रहा था कि मुझे अहसास होने लगा कि कोई परछाई आज फिर मेरा पिछा कर रही है, मैंने पहले तो पीछे मुड कर दिखने की हिम्मत नहीं कि पर मुझे लगा मानो वह तेज कदमों से मुझसे आगे निकल कर मुझसे बात करना चाह रही है, मद्धिम गति से कुछ ध्वनियां मुझे सुनाई दे रही थी लग रहा था कि ये ध्वनियां तो बहुत दूर से आ रही हैं ‘आवाजें दूर से और परछाई अब बिल्कुल करीब साथ साथ चल रही थी। थोड़ा-सा डर और थोड़ा कौतूहल।' वो मुझसे बात कर रही थी कि मुझसे डरो मत मैं तुमसे मित्रता करना चाहती हूं जी, मैंने किसी को भी नुकसान नहीं पहुंचाया है आज तक फिर भी न जाने क्यों लोग मुझसे मेरी परछाई से दूर दूर रहते हैं।' हालाकि मैं हूं तो परछाई ही।'। लोग दुनियां में बहुत कुछ खोकर भी खुश रहते हैं बस उनकी बात को कोई सुनने वाला होना चाहिए। सुने और थोड़ी सी सहानुभूति व्यक्त कर दे तो उसका क्या बिगड़ जाता है तुम्हीं बताओ। मेरे मुंह से निकल पड़ा हां हां जी यदि दो मीठे बोल से यदि किसी की पीड़ा दुःख दर्द कम होता है तो जरूर यह तो पुण्य कार्य है लेकिन भाई आजकल कौन किससे बात करे सब दौड़े जा रहे हैं, भागम भाग, बस धन, दौलत, पद प्रिया नाम कमाने की मारा मारी मची है। आजकल ये मित्र शब्द का तो मानो  ही हो गया है। अभी तुमने जब मित्र शब्द बोला ना तो मेरे कानों में मिश्री का मिठास घुल गया। दुनियां में लोग बहुत-बहुत पा कर खुश कम होते देखे हैं पर थोड़ा-सा कुछ भी खो जाए तो हा हा हा कार ओर चित् कार मच जाती है। अब ये तो प्रकृति का अटल सत्य नियम है कि जो आयेगा वो जाएगा, जो साथ में रहकर दुल्लाती पाएगा वो खोएगा। अच्छा एक बात बताऊं भाई आजकल हर कोई अगले वाले को शक की दृष्टि से देखने लगा है भाई ये बड़ी ही दुःख की बात है। साथ में रहकर दुल्लती मार देता है। हां हां तुम्हारी बात सही है, आजकल तो परछाई से भी लोग बहुत दूर भागते हैं। मैंने कई लोगों को अपनी कहानी सुनाने की प्रतीक्षा की। पर कोई सुनना ही नहीं चाहता ये तो तुम भले आदमी निकले हो कि मित्र शब्द का अर्थ समझे। मैंने सब कुछ खो दिया, आदमी बहुत बड़ा था मगर यह क्या हुआ कि जब तक दौलतराम और लोगों के लिए मलाईदार था। मैं भी अभिमान से गर्दन कभी नीचे नहीं झुकाता था क्योंकि बड़ा आदमी, बड़ा नाम, लोग घेरे ही रहते और चमचों का जमघट इतना कि माता पिता, भाई भतीजों, अपने गांव खेत खलिहान वार व्यवहार को भी भूल गया। अपने पराए कौन मित्र कौन शत्रु का भेद करना तो दूर सत्य कथन को दुत्कार में आनन्द की अनुभूति होने लगी। अरे भाई क्या कहें बिना मूंछ के मुच्छड़ बन मर्जी के बादशाह बन घमंड के झूले में झूलने लगे। पत्नी बेचारी टोका टोकी करती तो हम मारा मारी पर उतर आए। 

एक दिन इकलौती बेटी को लेकर थक हारकर न जाने कहां चली गई पता ही नहीं चला आज तक। न जाने कहां होगी, किस हाल में होगी उसकी परछाई भी नहीं देखी। सच कहूं कि वह तो लक्ष्मी थी लक्ष्मी मगर परख तो हम नहीं पाए। थोड़े दिनों में ही हमारी दुनिया लड़खड़ाने लगी। खूंटा ही नहीं रहा तो नौका तो डूबनी तय थी। धीरे धीरे हम दौलत राम कंगाल राम हो गए, वो चेले चपाते भी नौ दो ग्यारह हो गए। अब आते भी क्यों मलाई भी खतम ओर मलाई की खदान भी खतम। हम भी तो सड़क पर चलने की नियमावली भूलकर उलटा ही तो चलते चलते गहरे गड्ढे ख़ुद आ गिरे कोई उठाना तो दूर आवाज नहीं भी सुनने वाला नहीं बचा था भाई। 

परमात्मा ने तो इतना भर भर घर बार पद प्रिया पैसा सब कुछ दिया था मगर अकल बुद्धि का अकाल तो हममें भर गया कि सब कुछ पाप अनाचार अभिमान और मैं मैं की धधकती अग्नि में धूं धूं हो गया। पता ही नहीं चला कि हट्टे कट्टे शरीर का वो सुन्दर शरीर कृष काय हाड़ मांस का पुतला हो गया और हां हम न जाने कब एक चलते फिरते बहुमान वाले आदमी से ठहरे हुए, ठिठके हुए आदमी हो गए। जिनकी परछाई को छूने, देखने से भी लोग आज डरने लगे हैं। लोगों ने तो इस सड़क पर आना ही बन्द कर दिया विरानी ही विरानी। मुझे लगा कि वो और कुछ कहना चाहता है उसके दिल की बात। धीरे धीरे वो परछाई दूर होती चली गई और वो आवाज भी दूर कोसों दूर। मगर उसकी परछाई उसकी व्यथा कथा और बात की शीतलता मुझे बहुत कुछ कह गई। ठहरा हुआ आदमी ठूंठ की तरह खड़ा होकर रोता है, मगर उसकी सिसकी सुने कौन। अगर आदमी में आदमियत न रहे तो चलने वाला तो क्या हवा में उड़ने वाला वो आदमी हां हां वो आदमी भी ठहरा हुआ केवल परछाई बनकर रह जाता है साहब। 

डॉ. प्रकाश गुन्जन
 डूंगरपुर, राज.

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