पर्यावरण और पर्यटन
This article explores the impact of tourism on the environment—highlighting pollution, ecological imbalance, and disturbances caused at religious, natural, and educational sites. It also suggests ways to promote sustainable tourism.

जब नेमी कार्य से मन ऊबने लगता है तो कुछ परिवर्तन की आवश्यकता महसूस होती है। सिनेमा, दूरदर्शन, खेल-कूद, अध्ययन, गप्प-सराका, सैर-सपाटा आदि साधनों द्वारा कुछ लोग अपनी ऊब तोड़ने का प्रयास करते हैं। सैर-सपाटा अर्थात् पर्यटन, मनोरंजन का प्रमुख साधन है। पर्यटन से मनोरंजन के साथ ही ज्ञानवर्द्धन भी होता है। इससे सामाजिक-आर्थिक स्थितियों में सुधार की गुंजाइश बढ़ती है और क्षेत्र के विकास पर प्रभाव पड़ता है। पर्यटन से हमें भौगोलिक एवं ऐतिहासिक लाभ भी मिलता है। ये सारी बातें राष्ट्रहित से जुड़ी हुई हैं।
फाहियान, ह्वेनसांग, वास्को-डि-गामा आदि विश्व प्रसिद्ध पर्यटक हो चुके हैं। पर्यटन के दौरान ये पर्यटक जो विवरणियाँ या जीवनियाँ तैयार करते थे, उनका आज भी हम ऐतिहासिक और भौगोलिक उपयोग करते हैं। यह पर्यटन का महत्व ही तो है। पर्यटकों की उपलब्धियों से इतिहास भरा पड़ा है।
पर्यटन का प्रभाव न केवल ज्ञानार्जन, सामाजिक-आर्थिक विकास, भौगोलिक या ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में पड़ता है, अपितु इससे हमारा पर्यावरण भी प्रभावित होता है। अर्थात् पर्यावरण और पर्यटन के बीच गहरा रिश्ता है। पर्यटन का पर्यावरण पर जो सबसे बड़ा प्रभाव पड़ता है, वह प्रदूषण से संबंधित है। बहुत कम ऐसे पर्यटन स्थल हैं, जहाँ का पर्यावरण प्रदूषित होने से बच पाया हो। धार्मिक महत्व के अधिकतर पर्यटन स्थलों का पर्यावरण बुरी तरह प्रदूषित हो जाता है।
धार्मिक महत्व के अधिकतर पर्यटन स्थल नदियों के किनारे अवस्थित हैं। इसका एक स्पष्ट कारण तत्कालीन यातायात के लिए जलमार्ग के अधिकाधिक उपयोग की परंपरा और स्नान तथा जल की सुविधा है। इसलिए धार्मिक स्थलों पर जो भीड़ जुटती है, उसका सीधा असर निकटवर्ती नदियों पर पड़ता है। मंदिर हो या मेला, दर्शन का प्रावधान हो या स्नान का महत्व- वहाँ पर उमड़ने वाली भीड़ के कारण कुछ देर बाद ही नदियों का पानी मटमैला हो जाता है। लेकिन धर्म की आड़ में पर्यटकों को न तो उस गंदे पानी से परहेज हो पाता है और न गंदगी फैलाने से ही। कुंभ जैसे विशाल धार्मिक मेले की तरह नदियों के किनारे छोटे-बड़े अनेक मेले लगते रहते हैं। इसी लिए नदियों की सफाई के सारे अभियान ऐसे मेलों के एक बार के आयोजन से ही बुरी तरह प्रभावित हो जाते हैं।
पर्यटकों द्वारा पर्यटन स्थलों पर मुख्यतः दो तरह से गंदगी फैलाई जाती है- एक तो अपने साथ लाए हुए सामानों को बिखेरकर और दूसरे शौच आदि द्वारा। ऐसा देखा जाता है कि पुरातात्विक महत्व के पर्यटन स्थलों पर गंदगी से प्रदूषण नहीं या कम फैलता है। मगर धार्मिक स्थलों पर आए पर्यटक इस तरह गंदगी बिखेरते हैं जैसे उन्हें इसका धार्मिक अधिकार प्राप्त हो।
पर्यटन महत्व के प्राकृतिक स्थलों पर भी पर्यटकों की अच्छी भीड़ जुटती है। वनों की प्राकृतिक छटा देखने वालों की कमी नहीं है। वनों की हरियाली और झील-झरनों का आनंद लेने वाले पर्यटकों के मानस पटल पर उसकी याद बहुत दिनों तक छाई रहती है। स्वाभाविक है कि वनों के अंदर यातायात की कोई नियमित व्यवस्था नहीं रहती। पर्यटक निजी व्यवस्था द्वारा वहाँ भ्रमण करने जाते हैं। गाड़ियों की घरघराती कर्णकटु आवाज से वनों की निस्तब्धता टूटती ही है, लघु आकार की अनेक वनस्पतियों का भी विनाश हो जाता है। इसके बाद शुरू होता है वहाँ पर अपने साथ खाने-पीने के लिए लाए हुए सामानों के अवशिष्टों का बिखराव। यह देखने या सुनने में भले बहुत कम लगे मगर इसमें दो मत नहीं हो सकता कि सूक्ष्मग्राही प्रकृति पर पर्यटकों की छोटी-बड़ी हर गतिविधि का सीधा असर पड़ता है। यह दूसरी बात है कि आम निगाहों से यह असर तुरंत दिखाई नहीं दे पाता।
वन और वन्य प्राणी पर्यावरण की सर्वाधिक जीवंत इकाई हैं। कहावत प्रसिद्ध है कि ‘जंतु विहीन भी क्या कानन!’ वनों के अंदर वन्य प्राणियों का होना स्वाभाविक है। जहाँ वन्य प्राणियों के लिए आश्रयणियाँ बनी हुई हैं, वहाँ उन्हें देखने वालों की संख्या बहुत अधिक होती है। प्रति वर्ष हजारों पर्यटक अपनी छुट्टियों के कुछ दिन वन्य प्राणी आश्रयणियों में और उसके आसपास बिताते हैं। वन्य प्राणियों की चंचलता, चपलता और आकर्षक सुंदरता बेशक अतिदर्शनीय होती है। उन्हें देखने आए पर्यटकों को अनेक तरह की सीखें भी मिल जाती हैं। मगर साथ ही जाने-अनजाने पर्यटकों द्वारा अनेक तरह की गलतियाँ भी हो जाती हैं। सर्वप्रथम तो वे वनों और वन्य प्राणियों की प्राकृतिक स्थिति को बाधा पहुँचाते हैं, दूसरे, उन्हें पर्यटकों की अनचाही छेड़खानियाँ भी सहनी पड़ती हैं। यह सब कुछ बिना किसी प्रयास के स्वाभाविक तौर पर हो जाता है। वनों में वन्य प्राणियों के प्राकृतिक विचरण में पर्यटकों की उपस्थिति से बाधा उत्पन्न होती है। उसका उनके जीवन पर काफी बुरा असर पड़ता है।
पर्यटकों द्वारा वन्य प्राणियों की प्राकृतिक स्थिति में छेड़छाड़ करने का सीधा असर उनकी प्रजनन पर पड़ता है। वन्य प्राणियों का शिकार नियम अनुसार अपराध है, मगर पर्यटन की आड़ में अवैध शिकार होते ही रहते हैं। आश्रयणियों के आसपास के ग्रामीणों की इस कार्य में अधिक अंतर्लिप्तता रहती है। प्रकृति की एक व्यवस्था वन्य प्राणियों के लिए बहुत घातक है। किसी एक जानवर की हत्या का असर उसके जीवन तक सीमित नहीं होता। एक की हत्या देखने से दूसरे जानवरों का प्रजनन प्रभावित हो जाता है और उनकी संख्या-वृद्धि में रुकावट आ जाती है। ऐसी स्थिति में प्रकृति के मुख्य धरोहर होने के बावजूद वे अपने प्राकृतिक स्वरूप में नहीं रह पाते हैं। उनका जीना हराम हो जाता है। यह सोचने की बात है कि जब उनका प्रजनन ही प्रभावित हो जाए और उनकी प्रकृति ही बाधित हो जाए तो उनका भविष्य क्या होगा और फिर हमारे पर्यावरण पर इसका कितना बुरा असर पड़ेगा?
शैक्षणिक पर्यटन हेतु भी कुछ स्थलों का महत्व होता है। जैसे पटना का खुदाबख्श का पुस्तकालय और कोलकाता का राष्ट्रीय पुस्तकालय। चिड़ियाघरों, जैविक उद्यानों आदि जगहों पर भी शैक्षणिक दल आते रहते हैं। ऐसे स्थलों पर आये पर्यटकों की जो भीड़ होती है, उससे वहाँ का वातावरण प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। यदि आसपास उपयुक्त हरियाली नहीं रहे तब वायु प्रदूषण का खतरा भी बना रहता है।
दरअसल पर्यटकों को पर्यटन की नियमावली नहीं मालूम होती और वे पर्यटन स्थलों पर लगाए गए सूचना पट्टों को पढ़ना नहीं चाहते। इसका एक प्रमुख कारण है- सभी पर्यटक शिक्षित या सुशिक्षित नहीं होते। पर्यटन का शौक और आर्थिक सुविधाओं के चलते लोग पर्यटक बन जाते हैं। मगर हर पर्यटक पर्यटन के सारे पहलुओं से अवगत नहीं होता। उन्हें यह पता नहीं होता कि पर्यटन बहुआयामी होता है और पर्यटन स्थलों के प्रदूषण का प्रभाव दूरगामी होता है।
पर्यावरण केवल हमारी धरती से नहीं, बल्कि पूरे अंतरिक्ष से जुड़ा विषय है। ऐसे महत्वपूर्ण विषय की जानकारी हर किसी को मिल सके यह व्यवस्था अत्यावश्यक है। पर्यटकों द्वारा पर्यावरण को कुप्रभावित नहीं किया जाए इसके लिए उन्हें आवश्यक जानकारियाँ प्रदान करने की व्यवस्था होनी चाहिए।
पर्यटकों को संगठित करना तो आसान नहीं है, मगर पर्यटन स्थलों पर आए पर्यटकों को पर्यटन संबंधी नियमों से अवगत अवश्य कराया जा सकता है। बड़े-बड़े पर्यटन स्थलों या पर्यटन नगरों के प्रवेश द्वार पर ही इसके लिए सूचना टांग दी जाए, सूचना-पर्ची दी जाए और मौखिक जानकारी भी दी जाए तो इसका लाभ अवश्य मिलेगा। पर्यटन को उद्योग का दर्जा दिया गया है। मगर पर्यटकों को संगठित तौर पर पर्यटन संबंधी जानकारियों एवं सावधानियों से अवगत कराने की सुविधा कुछ पुरातात्विक स्थलों को छोड़कर प्रायः कहीं नहीं दिखाई देती है। यह स्वीकार्य है कि उसी पर्यटन को लाभकारी कहा जाएगा जिससे हमारा पर्यावरण प्रभावित नहीं हो। बिगड़ते हुए पर्यावरण को देखकर प्रकृति पर्यटकों से यही अपेक्षा करती है।
अंकुश्री
राँची, झारखंड
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