Immortal poet of nationalism: - Bankim Chandra Chattopadhyay : राष्ट्रवाद के अमर कवि:- बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय
Bankim Chandra Chattopadhyay is considered the pioneer of modern Bengali literature and cultural nationalism. His timeless works like Anandamath and Vande Mataram laid the ideological foundation of India’s freedom movement. बांग्ला साहित्य में जनमानस तक पैठ बनाने वालों में बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय प्रथम साहित्यकार थे। उनकी प्रथम प्रकाशित बांग्ला कृति `दुर्गेश नंदिना' थी उनका दूसरा उपन्यास `कपाल कुंडला' भी एक महत्वपूर्ण कृति थी। १८७२ ईस्वी में उन्होंने मासिक पत्रिका `बंग दर्शन' का भी प्रकाशन किया। अपनी इस पत्रिका में उन्होंने `विष वृक्ष' उपन्यास का क्रमिक रूप से प्रकाशन किया। इस पत्रिका में रविंद्र नाथ टैगोर भी लिखते थे।

Immortal poet of nationalism: - Bankim Chandra Chattopadhyay : उपन्यासकार, कवि, गद्यकार, पत्रकार एवं राष्ट्रवाद के व्याख्याता बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय का जन्म उत्तरी २४ परगना के कंडाल पाड़ा नैहाटी में एक परंपरागत एवं समृद्ध बंगाली परिवार में हुआ था। उनकी शिक्षा हुगली कॉलेज और प्रेसीडेंसी कॉलेज में हुई। १८५७ ईस्वी में उन्होंने प्रेसीडेंसी कॉलेज से बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की वे प्रथम भारतीय से जिन्होंने प्रेसीडेंसी कॉलेज से ँ.A. की उपाधि ग्रहण की। शिक्षा समाप्ति के पश्चात वे डिप्टी मजिस्ट्रेट के पद पर नियुक्त हुए कुछ समय तक ये बंगाल सरकार के सचिव पद पर भी रहे। इन्हें ब्रिटिश सरकार से राय बहादुर एवं सी.आई.ई. की उपाधियां भी प्राप्त की। १८६९ ईस्वी में इन्होंने क़ानून की डिग्री हासिल की। आजीविका के लिए उन्होंने सरकारी सेवा की परंतु राष्ट्रीयता एवं स्व भाषा प्रेम उनमें कूट-कूट कर भरा हुआ था।
युवावस्था में उन्होंने अपने एक मित्र का अंग्रेजी में लिखा हुआ पत्र बिना पढ़े इस टिप्पणी के साथ वापस लौटा दिया था कि- `अंग्रेजी ना तो तुम्हारी मातृभाषा है और ना ही मेरी। सरकारी सेवा में रहते हुए भी वे कभी अंग्रेजी से दबे नहीं। बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय की पहचान बांग्ला कवि, उपन्यासकार, लेखक एवं पत्रकार के रूप में थी। उनकी प्रथम प्रकाशित रचना `राजमोहन्स वाइफ' थी जो अंग्रेजी भाषा में थी। आधुनिक युग में बांग्ला साहित्य का उत्थान १९वीं शताब्दी के मध्य से प्रारंभ हुआ इससे पूर्व बंगाल के साहित्यकार बंगाल के स्थान पर संस्कृत या अंग्रेजी भाषा में लिखते थे। बांग्ला साहित्य में जनमानस तक पैठ बनाने वालों में बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय प्रथम साहित्यकार थे। उनकी प्रथम प्रकाशित बांग्ला कृति `दुर्गेश नंदिनी' थी उनका दूसरा उपन्यास `कपाल कुंडला' भी एक महत्वपूर्ण कृति थी। १८७२ ईस्वी में उन्होंने मासिक पत्रिका `बंग दर्शन' का भी प्रकाशन किया। अपनी इस पत्रिका में उन्होंने `विष वृक्ष' उपन्यास का क्रमिक रूप से प्रकाशन किया। इस पत्रिका में रविंद्र नाथ टैगोर भी लिखते थे। `आनंद मठ' (१८८२) उनकी महत्वपूर्ण राष्ट्रवादी कृति है। इस उपन्यास में उन्होंने उत्तर बंगाल में १७७३ ईस्वी के सन्यासी विद्रोह का वर्णन किया है। इस पुस्तक में देशभक्ति की भावना है। उनका अंतिम उपन्यास `सीताराम' है, इसमें मुस्लिम सत्ता के प्रति एक हिंदू शासक के विरोध को प्रदर्शित किया गया है। उनके अन्य उपन्यासों में `दुर्गेश नन्दिनी', `मृणालिनी' राधा रानी, कृष्णकांतेर, देवी चौधुरानी और मोचीराम गोरेर जीवन चरित आदि शामिल है। उनकी कवितायें ललिता ओ मानस नमक संग्रह के में प्रकाशित हुई। उन्होंने धर्म, सामाजिक और समसायिक मुद्दों पर आधारित कई निबंध भी लिखे। बंकिम चन्द्र के उपन्यासों का भारत की लगभग सभी भाषाओं में अनुवाद किया गया। बांग्ला में सिर्फ बंकिम और शरद चंद्र चट्टोपाध्याय को ही यह गौरव प्राप्त है कि उनकी रचना हिंदी सहित सभी भारतीय भाषाओं में वर्तमान में भी रुचिपूर्ण ढंग से पढ़ी जाती हैं। बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय बहुमुखी प्रतिभा वाले रचनाकार थे। उनके कथा साहित्य के अधिकतर पात्र शहरी मध्यम वर्ग के लोग हैं। इनके पात्र आधुनिक जीवन की त्रासदियों और प्राचीन काल की परंपराओं से जुड़ी परेशानियों के साथ-साथ जूझते हैं। यह समस्या संपूर्ण भारत के किसी भी प्रांत के शहरी मध्यम वर्ग की समक्ष आती है। फल स्वरुप मध्यम वर्ग का पाठक बंकिम चंद्र के उपन्यासों में अपनी छवि देखता है।
भारत में राष्ट्रीय चेतना कभी भी विलुप्त नहीं हुई है। इसका शाश्वत प्रभाव स्वतः स्फूर्त रूप से गतिशील रहता था। भारत की यह अद्भुत विशेषता है कि संस्कृति और राष्ट्रीय संकल्पना सदैव एक दूसरे की पूरक होकर कार्य करते हैं, किंतु बाह्य् आक्रमणों के समय या विदेशी एक आक्रांताओं के लंबे प्रभाव के चलते इस चेतना को जो कि अंतः प्रवाहित रही को सतह पर लाना पड़ा है। आदिकाल में ऋषि मुनियों ने ही इस व्यवस्था को स्थापित किया था, वही प्रक्रिया मध्यकाल एवं आधुनिक काल में भी सक्रिय रही है। उसी श्रेणी के आधुनिक काल के राष्ट्रवादियों ने संस्कृति को आधार मानकर राष्ट्रीय चेतना का पुनःसंचार किया और भारतीय जनमानस को न केवल स्वतंत्रता के संघर्ष के लिए अभिप्रेरित किया, बल्कि भारत का स्वरूप कैसा हो भारत के साथ हमारा भाव एवं संबंध कैसा हो कि दिशा में सोचने एवं उसे व्यवहार में लाने के उपायों पर भी बल दिया। इसके वैचारिक आंदोलन ने न केवल भारतीय अपितु अंग्रेजों को भी उद्धेलित किया। बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय राष्ट्रवाद के संवाहक थे। उन्होंने अनेक उत्कृष्ट कोटि की सांस्कृतिक रचनायें की। किंतु सर्वाधिक प्रसिद्ध इनकी कालजयी कृति `आनंद मठ' थी। यह उपन्यास उत्तरी बंगाल में १७७३ ईस्वी में हुए सन्यासी विद्रोह से अभिप्रेरित था।
इस उपन्यास में बंकिम चंद्र ने सन्यासियों के माध्यम से वह सब कहलवा दिया जिसको कहना एक ब्रिटिश सरकार में कार्यरत कर्मचारियों के लिए सहज नहीं था। इस उपन्यास में उन्होंने समाज संस्कृति और सत्ता के मध्य अद्भुत समन्वय बनाने का प्रयास किया है, जिसके फल स्वरुप `आनंदमठ' देश भक्ति का पर्याय बन गया और उसने बंगाल को `वंदे मातरम' भी दिया यह गीत राष्ट्रीयता का मंत्र बन गया इस गीत ने न केवल बंगाल के अपितु संपूर्ण देश को राष्ट्रवाद की भावना से प्रेरित किया। सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों के लिए यह गीत अग्रिम श्रेणी का गीत बन गया। वस्तुतः सन्यासी विद्रोह एक ही दिन में नहीं पनपा था बल्कि यह पनपा था शनैः शनैः अंग्रेजों की बढ़ती जा रही कुत्सित नीतियों के विरोध में और अंग्रेजों की प्रगतिशील भूमिका के प्रतिशोध के रूप में। अंग्रेजों की इस भूमिका ने संपूर्ण समाज को उद्धेलित करके रख दिया था, इसलिए जैसे ही `आनंद मठ' प्रकाशित हुआ वैसे ही जनता को अपना अभीष्ट बल मिल गया। `आनंद मठ' जहां एक ओर कांग्रेस के आंदोलन को प्रेरणा दी वहीं दूसरी ओर नवयुवकों को सशस्त्र क्रांति के माध्यम से स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए प्रेरित भी किया। इस प्रकार बंकिम के विचारों ने चतुर्दिक वैचारिक राष्ट्रवादी भावना का प्रसार किया।
बंगाल एवं देश के राष्ट्रवादी क्रांतिकारी आंदोलन में आज आनंद मठ का महत्वपूर्ण योगदान था। यह आंदोलन इस कृति के प्रभाव की चरम परिणीति है, इसने संपूर्ण भारत में मार्गदर्शक की भूमिका निर्वहन की। इस कालजयी कृति और उसमें लिखित गीत `वंदे मातरम' में नवयुवकों को ही नहीं अपितु समाज के प्रत्येक वर्गों को प्रभावित किया। यह मात्र गीत नहीं था अपितु भारतीय जनमानस की मानसिकता की अभिव्यक्ति थी, कि वह भारत को अपने जीवन में कैसा समझते और अंगीकार करते हैं। वंदे मातरम की व्याख्या बंकिम चंद्र ने इस गीत को जिसे सन्यासी भवानंद ने गाया है वह बहुत ही समर्पित एवं भारत भूमि के प्रति अद्भुत श्रद्धाभाव रखता है,वह महेंद्र से कहता है कि- हम लोग किसी अन्य मां को नहीं मानते। `जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी' अर्थात हमारी माता और जन्मभूमि ही हमारी जननी है, हमारे न मां है ना पिता है ना भाई है, कुछ नहीं है स्त्री भी नहीं है, घर भी नहीं, मकान भी नहीं है अगर कोई है तो वही `सुजला, सुफला, मलयजशीतलाम, शस्य श्यामलां.... इसके बाद महेंद्र भाव को समझ कर भवानन्द से फिर गाने को कहता है- भवानन्द अब संपूर्ण गीत की और तन्मयता से गाता है। इस गीत के कुल चार चरण हैं। इन चारों चरणों में भारत माता के स्वरूप और स्वभाव तथा उसे अपेक्षाओं का वर्णन है। यद्यपि यह गीत बंगाल के संदर्भ में ही गाया गया था, किन्तु भाव और पीड़ा संपूर्ण भारत की समाहित थी। भारत की दुर्दशा को देखकर आदि शक्ति दुर्गा माता में बंकिम आशा की किरण देखकर प्रार्थना करते हुए कहतें हैं कि- तू ही दुर्गा दस हाथों में अस्त्र-शस्त्र धारण करने वाली है। अब तू ही भारत और भारतीयों का कल्याण कर सकती है। १८८२ ईस्वी में आनन्द मठ के लेखन के पश्चात १८८५ ईस्वी में कांग्रेस की स्थापना हुई। अंग्रेजों ने भी आनंदमठ के ताप को समझा और सामाजिक रुप से ही सही भारतीय जनता को सत्ता का हमराह बनाया। बंकिम के दिए `बन्दे मातरम' मंत्र ने देश के संपूर्ण स्वतंत्रता संग्राम को नवीन चेतना प्रदान की। `आनंदमठ' ने न केवल क्रांतिकारियों के लिए एक वैचारिक धरातल प्रदान किया, बल्कि उनको सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की भाव भूमि के लिए भी तैयार किया, जिससे वे अपने संबंधों को भारत भूमि के साथ जोड़कर विश्लेषण कर सके और तदनुरुप अपनी भूमिका का निर्वहन कर सके। आनंदमठ ने तत्कालीन समाज को ही नहीं अपितु भावी पीढ़ियों को भी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के प्रति उद्वेलित करके रख दिया वर्तमान में भी वंदे मातरम का गायन जो कि संस्कृति से अभिप्रेरित है, राष्ट्रवाद का प्रतीक बन गया है। १९वीं सदी के अंत में लिखे गए इस परम यशस्वी गीत ने भारत की भावी पीढ़ियों को इसके प्रभाव से अपने को अछूत नहीं रख सकेगी। भारत के राष्ट्रीय आंदोलन में बंकिम के राष्ट्रवादी विचारों का महत्वपूर्ण योगदान है। अपने वैचारिक दर्शन में उन्होंने सनातन राष्ट्र की ऐतिहासिक परंपराओं तथा आधारों का सम्यक विवेचन प्रस्तुत करते हुए सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की अत्यंत महत्वपूर्ण एवं तार्किक अवधारणा प्रस्तुत की।
बंकिमचन्द्र चटोपाध्याय का राष्ट्रवाद नैतिक मूल्यों में समन्वित है, इसमें अद्भुत मानवता, राष्ट्रवादिता तथा नैतिकता समावेशित है। आधुनिक बांग्ला साहित्य एवं राष्ट्रीयता के जनक बंकिम चन्द्र चटोपाध्याय जी का ८ अप्रैल १८९४ ईस्वी को निधन हो गया।
राष्ट्रीय गीत वंदे मातरम के रचयिता बंकिम चंद्र जी का नाम इतिहास में युगों-युगों तक अमर रहेगा क्योंकि यह गीत उनकी एक ऐसी कृति है जो वर्तमान एवं भविष्य में भी प्रत्येक भारतीय के हृदय को आंदोलित करने की क्षमता रखती है।
डाॅ. जितेन्द्र प्रताप सिंह,
रायबरेली,उ.प्र.
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