केदारनाथ सिंह - आधुनिक हिन्दी कविता के प्रमुख हस्ताक्षर

अंत में न जाने क्या आया जी में/ कि मैंने एक अजब-सी पीड़ा से/ उस तरफ़ देखा/ जिधर बैठा था वह आदमी/ और छोड़ दी नीम की झुकी हुई टहनी/ फिर लौट आया। कवि की रचनाओं से गुजरते हुए यह महसूस हो रहा कि यहाँ लय को रखा गया है जोकि छंदमुक्त कविताओं की आवश्यकता है। कवि का दार्शनिक अंदाज़ भी बहुत मार्मिक है। गृहलक्ष्मी, जिसके जाने की बेला समीप है या फिर वह जा चुकी है;

May 30, 2025 - 18:38
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केदारनाथ सिंह - आधुनिक हिन्दी कविता के प्रमुख हस्ताक्षर
Kedarnath Singh - A major signature of modern Hindi poetry
केदारनाथ सिंह आधुनिक कवियों में प्रमुख स्थान रखते हैं। उनकी कृतियों पर लिखने से पहले उनका जीवन परिचय, उनकी प्रमुख रचनाओं एवं उन्हें मिले सम्मानों के विषय में जानकारी प्राप्त करना सुखद रहेगा। केदारनाथ सिंह का जन्म ०७ जुलाई १९३४ ई. को उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के चकिया गाँव में एक गौतम क्षत्रिय (राजपूत) परिवार में हुआ था। उन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से १९५६ ई. में हिन्दी में एम. ए. और १९६४ में पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। कुछ वक़्त पडरौना में हिंदी के प्रध्यापक रहे। उन्होंने जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में भारतीय भाषा केंद्र में बतौर आचार्य और अध्यक्ष काम किया था। उनका निधन १९ मार्च २०१८ को दिल्ली में उपचार के दौरान हुआ।
केदारनाथ सिंह की प्रमुख कृतियाँ-
केदारनाथ सिंह की प्रमुख कृतियों में निम्नलिखित रचनाएँ व पुस्तकें विशेष रूप से लोकप्रिय हैं।
कविता संग्रह में,
अभी बिल्कुल अभी (१९६०), जमीन पक रही है (१९८०), यहाँ से देखो (१९८३), बाघ (१९९६), अकाल में सारस (१९८८), उत्तर कबीर और अन्य कविताएँ (१९९५), तालस्ताय और साइकिल (२००५), सृष्टि पर पहरा (२०१४).
आलोचनात्मक रचनाओं में
कल्पना और छायावाद, आधुनिक हिंदी कविता में बिंबविधान, मेरे समय के शब्द, मेरे साक्षात्कार आदि हैं।
केदारनाथ सिंह द्वारा संपादित पुस्तकों में ताना-बाना (आधुनिक भारतीय कविता से एक चयन), समकालीन रूसी कविताएँ, कविता दशक
साखी (अनियतकालिक पत्रिका)
शब्द (अनियतकालिक पत्रिका) आदि हैं।
केदारनाथ सिंह को प्राप्त सम्मान -
केदारनाथ सिंह को मिले सम्मानों पर दृष्टि डालें तो कवि की उत्कृष्टता सहज रूप से दृष्टिगोचर होती है।
केदारनाथ सिंह को हिंदी साहित्य में उनके योगदान के लिए कई सम्मान मिले। सम्मानों का सूचीबद्ध विस्तृत विवरण निम्लिखित है:-
१- ज्ञानपीठ पुरस्कार  (२०१३):
यह भारत का सर्वोच्च साहित्यिक सम्मान है, जो उन्हें २०१३ में दिया गया था. 
२- साहित्य अकादमी पुरस्कार  (१९८९):
उनकी कविता संग्रह `अकाल में सारस' के लिए १९८९ में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था. 
३- व्यास सम्मान:
उन्हें व्यास सम्मान से भी सम्मानित किया गया था. 
४- मध्य प्रदेश का मैथिलीशरण गुप्त सम्मान:
उन्हें मध्य प्रदेश सरकार द्वारा मैथिलीशरण गुप्त सम्मान से सम्मानित किया गया था. 
५- उत्तर प्रदेश का भारत-भारती सम्मान:
उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा उन्हें भारत-भारती सम्मान से सम्मानित किया गया था. 
६- बिहार का दिनकर सम्मान:
बिहार सरकार द्वारा उन्हें दिनकर सम्मान से सम्मानित किया गया था. 
७- केरल का कुमार आशान सम्मान:
उन्हें केरल सरकार द्वारा कुमार आशान सम्मान से सम्मानित किया गया था. 
८- साहित्य अकादमी महत्तर सदस्य:
साहित्य अकादमी ने उन्हें महत्तर सदस्य बनाकर सम्मानित किया था. 
कविताएं, भाव एवं सार्थकता -
कुछ अहसास मन को खुशियाँ देते हैं। दुनिया को सुन्दर देखने की अभिलाषा ने कवि की कलम से कोमल भाव की निम्नलिखित पंक्तियों को उद्धृत किया है।
उसका हाथ
अपने हाथ में लेते हुए मैंने सोचा
दुनिया को
हाथ की तरह गर्म और सुंदर होना चाहिए।
किसी प्रिय का आना और उसे दिल से महसूस करके खूबसूरत बिम्ब में ढाल देना कवि की विशेषता रही।
तुम आईं
जैसे छीमियों में धीरे-धीरे
आता है रस
महानगर में कवि का होना किसी शोर को इंगित नहीं करता बल्कि वहाँ तो एक मौन, एक चुप्पी रहती है। कवि के अंदर शब्दों के काफ़िले होते हैं जो चुप से बाहर आते हैं और पाठकों के बीच हलचल पैदा करते हैं।
इस इतने बड़े शहर में, कहीं रहता है एक कवि/ वह रहता है जैसे कुएँ में रहती है चुप्पी....
पर्यावरण के प्रति कवि की चिंता सबकी चिंता बन जाएगी जब पाठक उनके उकेरे शब्दों को आत्मसात कर पाएंगे। ये सृष्टि, ये पृथ्वी सदैव रहेगी किन्तु क्या उसी रूप में रह पाएगी जिस रूप में जगत के निर्माता ब्रह्मा ने मानव को दिया है या फिर मानवीय विनाशक कृत्य रूपी दीमक के कारण एक क्षत विक्षत अवस्था मे मिलेगी।
मुझे विश्वास है- यह पृथ्वी रहेगी/ यदि और कहीं नहीं तो मेरी हड्डियों में/ यह रहेगी जैसे पेड़ के तन में/ रहते हैं दीमक/ जैसे दाने में रह लेता है घुन/ यह रहेगी प्रलय के बाद भी मेरे अंदर-
अपना घर आंगन छोड़कर बाहर भटक रही नई पीढ़ी पर कम शब्दों में विस्तृत भाव भरने वाले केदारनाथ सिंह की अभिव्यक्ति पर स्वतः ही वाह कहने का मन हो जाता है। जिस घर को माता अपनी आध्यामिकता तुलसी के रूप में रखती है, पिता घर को छाया देने के लिए बरगद बनते हैं, उसी घर का बच्चा गुलाब रूपी स्वप्न को लेकर इधर उधर घूम रहा है। अपना आँगन उसे उपयुक्त नहीं लगता। पंक्तियाँ देखिए...
छोटे-से आँगन में/माँ ने लगाए हैं/तुलसी के बिरवे दो
पिता ने उगाया है/ बरगद छतनार
मैं अपना नन्हा गुलाब/कहाँ रोप दूँ!/मुट्ठी में प्रश्न लिए
दौड़ रहा हूँ वन-वन/पर्वत-पर्वत
रेती-रेती...बेकार!
कवि की दृष्टि विध्वंसक रोबोटों पर भी है। कवि की कल्पना में वे पक्षी हैं जो खास मौसमों में आते हैं और सबको लुभाते हैं। मगर मशीनी पक्षी का आना विनाश का सूचक बन गया।
एक छोटे-से पक्षी के /लौट आने का विस्फोट था/ जो भरी सड़क पर/मुझे देर तक हिलाता रहा।
कवि के मन में नीम का पेड़ है जो दतुअन देता है। उनका मन है कि  पुनः वह उस दतुअन को तोड़ें। किन्तु उनसे एक छोटी टहनी भी नहीं त्ाोड़ी गयी क्योंकि कोई पेड़ की छाया में सुस्ता रहा था। एक छोटी टहनी तोड़ने पर कोई फर्क नहीं पड़ता लेकिन कवि ने स्वयं पर अनुशासन बनाये रखा और नहीं तोड़ा। पर्यावरण सुरक्षा के लिए मनुष्य जब स्वयं कटिबद्ध हो गया तभी यह यह सृष्टि बच सकेगी, इसका उदाहरण प्रस्तुत करती कविता `नीम' सार्थक कविता है।
अरे, यह कौन?/नीमतले बैठा है/ आँख मूँदे मौन!
पड़ गया सोच में/ दतुअन तोड़ूँ कि न तोड़ूँ
पकड़े रहूँ कि छोड़ दूँ वह टहनी/ जो मेरे हाथ में थी!
अंत में न जाने क्या आया जी में/ कि मैंने एक अजब-सी पीड़ा से/ उस तरफ़ देखा/ जिधर बैठा था वह आदमी/ और छोड़ दी नीम की झुकी हुई टहनी/ फिर लौट आया।
कवि की रचनाओं से गुजरते हुए यह महसूस हो रहा कि यहाँ लय को रखा गया है जोकि छंदमुक्त कविताओं की आवश्यकता है।
कवि का दार्शनिक अंदाज़ भी बहुत मार्मिक है। गृहलक्ष्मी, जिसके जाने की बेला समीप है या फिर वह जा चुकी है; उसके लिए कातर करुण पुकार सी यह रचना अंतर्मन को छू लेती है।
जाना, फिर जाना,/उस तट पर भी जा कर दिया जला आना,/पर पहले अपना यह आँगन कुछ कहता है,/उस उड़ते आँचल से गुड़हल की डाल / बार-बार उलझ जाती हैं,/एक दिया वहाँ भी जलाना;
सिर्फ यहीं नहीं, घर आंगन, चौराहे, बाग, गगरी, फसल रखने के स्थान, बरगद, पालतु कुत्ते को बाँधने का स्थान, सभी जगह पर दिए जलाकर रखने का अनुरोध बताता है कि घर मे स्त्री का क्या महत्व है।
‘मंच और मचान’ केदारनाथ सिंह की लंबी कविता है। इसमें सरकारी आदेश को जब वास्तविक स्थिति का सामना करना पड़ता है तो जाने कितनी चीखें, मार्मिक पुकार शामिल हो जाते हैं। मगर जनता की पुकार का आदेश पालन से कोई मतलब नहीं होता। उच्च पदासीन अधिकारी कभी कभी आदेश देकर भूल जाते हैं, किन्तु पालन करने वालों को भूलने का अधिकार नहीं। 
एक हल्का सा इशारा और ठक्‌ ...ठक्‌
गिरने लगे वे बरगद की जड़ पर
पहली चोट के बाद ऐसा लगा
जैसे लोहे ने झुककर
पेड़ से कहा हो - `माफ़ करना, भाई,
कुछ हुक़्म ही ऐसा है’
कवि का विदा गीत, मर्म छू लेने वाली अभिव्यक्ति है। अर्द्धांगिनी से बिछोह का पल कवि के लिए कितना पीड़ादायक है कि विदा लेती आत्मा के लिए भी सभी प्रथाओं को निभाने की इच्छा है।
रुको, आँचल में तुम्हारे
यह समीरन बाँध दूँ, यह टूटता प्रन बाँध दूँ ।
एक जो इन उँगलियों में
कहीं उलझा रह गया है
फूल-सा वह काँपता क्षण बाँध दूँ !
`हक दो' बहुत प्यारी कविता है। कवि ने प्रकृति के बिम्ब लेते हुए उनको हक देने की मांग की है।
फूल को हक दो, वह हवा को प्यार करे,
ओस, धूप, रंगों से जितना भर सके, भरे,
सिहरे, कांपे, उबरे,
और कभी किसी एक अंखुए की आहट पर
पंखुड़ी-पंखुड़ीr सारी आयु नाप कर दे दे-
किसी एक अनदेखे-अनजाने क्षण को
नए फूलों के लिए!
गीत, नवगीत एवं छंदमुक्त कविताओं पर कवि की पकड़ साहित्य जगत को नया आयाम देती है। कवि उस काल का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं जब छंदों की कठिन साधना से परे जाकर कविताओं का जन्म हो रहा था। अभिव्यक्तियों को छंद के नियमों में नहीं बंधना ठै। उन्मुक्त शब्दों से कई नए क्षितिज का निर्माण करना था। केदारनाथ सिंह ने नवोदित कवियों की राह थोड़ी आसान कर दी । आधुनिक हिन्दी कविता के प्रमुख हस्ताक्षर के रूप में कवि की पहचान बनी रहेगी।
ऋता शेखर ‘मधु’
बैंगलोर (कर्नाटक)

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