दस्तक
चलो झंझोड़ के जगा दें सोये शहर को
चलो झंझोड़ के जगा दें
सोये शहर को
जमाने नहीं रहे अब कुम्भकरणी नींद के
लगी हुई है आग
नहीं हुई है जाग
सोया पड़ा है रात का पहरेदार
उतार फेंके अपने भरे बाजुओं से
परदे सब धुंध के
लुट रहा है बाजार
बेड़ियों में घिसट रहा है अरमान
सड़कें हो गई हैं वीरान
और शहर है अनजान
चलो अपनी लौह अंगुलियों से
इन बेड़ियों को काटें
इन सड़कों को, इन गलियों को
आत्मज्योति से रौशन कर दें
शहर के बंद दरवाजों पर दस्तक दें
किरण अग्रवाल
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