कहानी : श्यामल
मेरे पिता को यह नहीं जानते होंगे, न आज और न पहिले ही कभी । मेरे पिता नौकरी के चक्कर में हमेशा गांव बदलते रहे और उनके बारे में उन्हें कहीं का स्थायी कहना कठिन ही होता था। अतः बात टालने की गरज से अपनी ओर से एक प्रश्न, निरन्तर देखते पंडित की ओर रख दिया । आपका लड़का राघव था ना। क्या करता है आजकल।

बाजार से गुजरते मन में आया चलो गली वाले मन्दिर, विशाल पीपल को देख आऊं। जहां बचपन में दिन भर कोड़ियां चिरमियां, माचिस के लेबल्स खेलते या शाम छुट्टन की छत पर चढ़ पतंग की डोर, पतंग लूटना या दो पैसे से खरीदी गुड्डी में दस बारह फीट कागज अथवा कपड़े की पूंछ लगा उड़ाया करते थे। यह सब उस समय बड़ा साहसिक, अद्भुद लगा करता था।
कोई बीसेक वर्ष बाद इस अहाते में आया हूं। छत पर जाने वाली सीढ़ी के आगे कई मकान बन गये हैं, शिव मन्दिर सिमट कोठरी में समा गया, हां शरबत का गोदाम वैसा ही बरकरार है, पीपल की प्रमुख विशाल डालें काट दी गई हैं। प्रसाद लेने की सोचता हूं। मंदिर पर ताला है। फर्श पर पांच-दस रूपये के आठ दस सिक्के बिखरे पड़े हैं। कोने में एक बूढ़ा लम्बी सफेद दाढ़ी, फटी धोती में पड़ा है। उसने घूम कर देखा। उसकी आंखों में असहायता के बावजूद पंडित पुजारियां सी दंभपूर्ण दृष्टि है।
कौन है भाई।
जी। मैं सोमेश हूं। बचपन में दिन भर यहीं खेला करते थे। इधर से जा रहा था सोचा अन्दर दो क्षण देख लूं।
किसका लड़का है?
मेरे पिता को यह नहीं जानते होंगे, न आज और न पहिले ही कभी । मेरे पिता नौकरी के चक्कर में हमेशा गांव बदलते रहे और उनके बारे में उन्हें कहीं का स्थायी कहना कठिन ही होता था। अतः बात टालने की गरज से अपनी ओर से एक प्रश्न, निरन्तर देखते पंडित की ओर रख दिया ।
आपका लड़का राघव था ना। क्या करता है आजकल।
ओम शांति ओम शांति। राघू को जानते हो?
उसकी आंखों में चमक आ गई थी, चंचल हो उठ बैठा था।
राघू की क्या कहूं बेटा। पहिले शक्कर के पताशे वाली दुकान पर काम करता था, फिर गुरदास शरबत वाले के काम करने लगा। मां तो उसकी बचपन में ही मर गई थी। एक दिन शरबत वाले से ठन गयी और राघू ने शरबत की भरी बोतल से गुरदास की कपाल क्रिया कर दी। इस बात को भी नौ साल बीत गये। राघू हत्या के जुर्म में आजीवन जेल काट रहा है।
यहीं जेल में है। चार-छह महीनों में मिल आता हूं। और मेरा है भी कौन।
उसकी बातों के साथ-साथ छत पर बने कमरे को देखता रहा जिसमें कोई बदलाव नहीं आया। बीस साल पहिले सा घास का छप्पर, पुरानी खिड़की। ऊपर शायद अब कोई जाता नहीं होगा।
यही कमरा। श्यामली कोई बारह साल की रही होगी मैं भी इतना ही। उस उम्र के विचारों का उमड़ता ज्वार, यौन के प्रति सहज आकर्षण। याद आ रहा है श्यामली झीने, पेटीकोट, ब्लाउज पहिने मेरे सामने अब तक कई बार आँखों से गुजर गई है।
ऐ। सोमू, अन्दर आना।
क्या है - रे।
कहा ना, अन्दर आ। लड्डू खिलाऊँगी।
पतंगों में चल रहे पेंच, पंतग - डोर हाथ लगने का लालच। कट्ग्या गया कट्ग्या गया होय। होय। का कान फाड़ता शोर। मैं भी लपकता हूं। पर दो चार हाथ मांझे के अलावा कुछ नहीं आता। अंगूठे, छोटी अंगुली में गुच्छी बनाता घर के छप्पर वाले कमरे में विजेता सी मुद्रा में घुसता हूं। शाम घिर आयी है।
तू भी एक ही है रे। कब से बुला रही हूं।
देख तो। कितना मांझा लूटा है आज ।
क्या करेगा इसका। रोज तो लूटता हैं कुछ इकट्ठा भी किया। सबका - सब राघू को देता है या वह छीन लेता है। ले लड्डू खा ।
मेरे हाथ पर एक लड्डू रख देती है। आकाश में लगातार पतंगबाजी देखने के चक्कर में भूख लगी नहीं। लड्डू देख मुंह में पानी भर आता है। दो बार में ही पूरा खा जाता हूं ।
और लेगा।
तू, कहां से लायी।
नीचे मन्दिर से। गली में सीताराम रहते हैं न उनके बुढा़ पे में लड़का हुआ था। उन्होंने खूब प्रसाद बांटा। मैंने पांच-सात बार लिया। खूब मजा आया।
मुझे क्यों नहीं बुलाया तूने।
बुलाया तो था। तुझे पतंग से फुर्सत कहां। आ रहा हूं, आ रहा हूं कर रहा था। याद आया। तू ठीक कर रही है। अरे, उस समय तो बहुत बड़ा ढाल कटा था ना, लम्बी डोर थी।
स्टेशन तक भागे थे हम।
फिर मिला क्या तुझे। फालतू ही ना ।
मिला तो कुछ नहीं। राघू ने लूटा था वह ढाल।
चल छोड़ बेकार की बातें। मां तो बाहर गयी है चार दिन के लिये भैया काम पर। भैया रात को देर से आते हैं। मुझे अकेले डर लगता है।
तू डरती है। अरे वाह!
मैं ठहाका मार हंस पड़ता हूं।
अरे! तूने उस दिन राघू की कैसे चटनी बनाई थी। मैं तो डर गया था। तू किससे
डरती है?
अकेली रहती हूं। तेरे घर कह आयी हूं। सोमू मेरे घर ही सोयेगा, रोटी खायेगा। घर मत जाना, थोड़ी देर में खाना खायेंगे। ले पैरों पर कम्बल डाल ले।
हल्की सर्दी शुरू हो गई है। लम्बी-चौड़ी छत पर सांय-सांय करती ठण्डी हवा चल रही है।
कम्बल ओढ़ ले ना।
हां। उढा़ ती तो नहीं है।
दोनों कम्बल ओढ़े लेटे हैं। श्यामली मेरे बालों को संवार रही है। सोमू! शादी के बाद औरत - आदमी क्या करते हैं पता है तुझे।
साथ-साथ रहते है। आदमी नौकरी करता है औरत खाना बनाती है, झाडू लगाती है, सफाई करती है, बच्चों को स्कूल भेजती है ।
और क्या करते हैं।
पता नहीं।
तू नहीं जानता। पूरा लाल बुझक्कड़ है तू मैं बताऊं।
बता।
चल। मैं नहीं बताती।
इसके साथ ही अपने शरीर को मेरे पर डाल देती है। मुझे शरीर में सरसराहट सी होने लगती है। अच्छा लगता है। श्यामली बिलकुल चुप है। अपने उभारों से गुदगुदा रही है मुझे।
श्यामली। आज खूब अच्छा लग रहा है।
उत्तर नहीं देती और कसकर जकड़ लेती है।
अच्छा तो तू सुब्रत बनर्जी का पोता है। अरे बहुत बड़ा हो गया रे तू। जेन्टरमैन हो गया है। पहिले तो जान ही नहीं पाया। दिमाग पर जोर डालने पर याद आया। तू तो छुट्टियां में ही आया करता था ना।
अतीत से अचानक वर्तमान में लौट आता हूं।
हां। आप ठीक कह रहे हैं। याद आ गया आपको। वही सोमू हूं।
बनर्जी भाई क्या करते हैं अब। बहुत बूढ़े हो गये होंगे।
घर पर ही रहते हैं।
कितने बच्चे हैं तेरे।
तीन हैं। दो लड़के, एक लड़की।
चलो अच्छा है, खुश रहो।
बाबा, आपको याद होगा यहां पाण्डुरंग रहता था ऊपर छप्पर वाले कमरे में।
हां। सो क्या हुआ।
उनके लड़की भी थी बड़ी चंचल। नाम ठीक से याद नहीं आ रहा।
अरे, श्यामली।
हां, वही। अब तो यहां नहीं होंगे।
भगवान रक्षा करें उनकी। दोनों भाई अलग रहते हैं। मां, एक लड़के के यहां हैं। दूसरा शराब पीकर पड़ा रहता है।
और श्यामली।
उसकी मुझ ब्राह्मण से मत कहलवा, पाप होगा।
फिर भी बताओ ना कहां है वह।
कहां बताऊं तुम्हें। मां ने तो लड़का देख उसके हाथ पीले कर दिये थे। पर अब जब भी उसके बारे में सुनता हूं हर बार उसका घर नई जगह होता है। साल-दो साल बाद नया पति, नया घर-बस यों ही सुनता रहता हूं। बेटा कोई अच्छी बात तो नहीं यह।
आप ठीक कह रहे हैं। पर ऐसा क्यों हुआ समझ में नहीं आया।
कर्मों का फल है। अच्छा खाना, अच्छे कपड़ों का खूब शौक था न उसे। पर यह सांसारिक, झूठी मृगतृष्णा है। तू क्या कर रहा है।
पढ़ाता हूं कॉलेज में।
मास्टर हो गया है। अच्छा है।
मैं चलूंगा।
फिर आना। प्रसाद तो ले लो।
मन्दिर खोल तांबे के बर्तन में रखे छोटे चम्मच से शिव चरणामृत तुलसी, मिठाई के टुकड़े देते हैं।
बदले में जेब से पाँच का नोट निकाल उनके हाथ पर रख देता हूं।
अरे, यह क्या ।
नहीं। रखो बाबा।
बिना मेरी ओर देखे बनियान की जेब में नोट रख लेते हैं।
चलूं, बाबा।
हाथ जोड़, अहाते से निकल आता हूं।
........
कोई चार साल बीते उस बात को। सुबह श्यामली आयी थी। शेव करने बैठा ही था।
घंटी की आवाज सुन दरवाजा खोला था। पैंतीस - एक वर्ष की तीखे नाक नक्श, गौरा रगं, हल्की पीली सिल्क की सस्ती साड़ी में सामने खड़ी थी।
नमस्ते!
नमस्ते!
मेरी आवाज में अपरिचय था। सोचने लगा कौन हो सकती है यह महिला।
पहिचाना नहीं था। आप तो सोमेश बनर्जी ही हैं ना।
हां! आप।
मैं। श्यामल। भूल गये होंगे। यह समय है ही ऐसा धीरे-धीरे सबको पीछे छोड़ता चलता है। इसे केवल आज ही साफ दिखाई देता है और कुछ नहीं।
अच्छा! श्यामल हो। आओ बैठो।
बीस वर्ष का अन्तराल, पंडित जी की बातों का चक्र, व्यतीत के स्मृति चित्र मस्तिष्क में घूमते हैं।
आप शेव करते रहें।
हं-अं।
चेहरे पर लगे साबुन का बिलकुल भी ध्यान नहीं रहा।
और कैसी हो?
ठीक हूं। आप।
अच्छा चल रहा है।
भाभी जी कहां है?
बाजार गई है आती होगी। कितने बच्चे हैं श्यामल।
दो लड़कियां बस! बड़ी सत्या जिसकी शादी करनी है दूसरी छोटी है। तुम्हारे वह क्या करते हैं?
कौन से?
मैं कुछ सधी आवाज में पूछता हूं - तुम्हारी बच्चियों के पापा।
बड़ी लड़की सौलह साल की दूसरी बारह-तरे ह की। दोनां में समझ आने के बाद एक घर से दसू रे घर कई पिताओं को देखा है। उनको तो क्या, शायद मैं ही नहीं बता पाऊंगी इनका पिता कौन था।
श्यामल की ओर देखने को झटके से गर्दन ऊपर करता हूं। सर्र से रेजर ठोड़ी काटता निकल जाता है। तेज खून निकल आया है। कटे हिस्से को तौलिये से दबाता हूं।
कट गया आपके।
चलता ही रहता है।
उसका पहली भेंट में अपने जीवन को इस तरह खोल देना मुझे अजीब सा लगता है।
सोमेशजी! कई रंग देखे हैं जिन्दगी के। बहुत थक गयी सबसे। मैंने जिसे जिन्दगी समझा भूल थी वह। वे सब पड़ाव थे उम्र के जहां कभी चार महीने, कहीं साल, कभी दो तीन साल, पर इनसे अधिक कभी नहीं। जब जी चाहा घर बदला। घर बदलने में साथ देने वाली मेरी सुन्दरता और उम्र ही थी। कहीं कोई दिक्कत नहीं आयी।
घन्टी बजती है।
लो तुम्हारी भाभी आ गई। खोलता हूं।
नमस्ते! भाभीजी।
सोमा। ये श्यामल मेरे बचपन से साथ खेली हुई है।
बैठो। अभी आयी।
सोमा रसोईघर में चली गई है।
हाँ! फिर।
रावी, जिसके साथ अब तक रह रही थी ने अपने दोस्त नरेश से कुछ रूपये ले सत्या के कमरे में भेज दिया था। मेरे विरोध करने पर जलती लकड़ी से मुझे बहुत मारा और मेरे व्यतीत की चिन्दी चिन्दी उधेड़ डाली थी। सत्या ने जैसे भी इज्जत बचा ली। उस दिन से आदमी नाम से घृणा हो गई। हर आदमी मुझे वासना का राक्षस दिखाई देता है।
सोमा चाय ले आयी है।
बात हो गई आप लोगों की।
कौन सी बात?
गये दिन में आई थी मुझसे कोई बात कही थी। मैंने आपसे पूछ लेने को कहा था। मुझे
कोई आपत्ति नहीं है इसमें।
अच्छा तो तुम मिल चुके हो।
श्यामल की आंखों से लगातार आँसू बह रहे हैं।
चाय लो श्यामल।
भाभीजी, मन नहीं है।
अरे लो भी, इतने लम्बे समय बाद तो मिली हो।
साड़ी के पल्लु से आंसुओं को पूछती है।
श्यामली ने अपनी बड़ी लड़की के लिये यहीं लड़का देख लिया है। शादी के नौ दिन और हैं। इन्हें उस व्यक्ति से शादी में बाधा डालने का खतरा है जिनके साथ ये अभी रह ही हैं।
तो चाहती है लड़की की शादी यहां अपने घर से कर दें जिससे शादी में कोई विघ्न न आये।
आप क्या सोचते हैं।
तुम क्या सोचती हो।
मैं ठीक ही समझती हूं।
सोमेशजी! यदि यह नहीं होगा तो सत्या को मेरी तरह न जाने कितने घर बसाने होंगे।
मेरी आपसे प्रार्थना है......
मैं सोमा की ओर देखता हूं। उसकी आंखों में असहायता का भाव है।
श्यामल, मुझे और सोमा को कोई परेशानी नहीं है। कब है शादी?
बसन्त पंचमी को।
ठीक है। पूरा घर, हम सब तैयार हैं।
श्यामल तुम सत्या को लेकर परसों आ जाना। कुछ रीति-रिवाज भी तो करने हैं।
सोमेश दा। मैं चलूं। भाभीजी, मैं परसों आऊंगी। नमस्ते।
दोनों हाथ जोड़े नमस्ते किया हैं उसने। उसकी आंखों में असीम श्रद्धा का भाव है। मैं
और सोमा विवश पैरों से चलती श्यामल को दूर तक दरवाजे से खड़े देखते रहते हैं।
प्रफुल्ल प्रभाकर
मेयो लिंक रोड़, अजमेर
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