प्रकृति के सुकुमार कवि- सुमित्रानंदन पंत
पंत जी को प्रकृति के उपासक और प्रकृति की सुंदरता का वर्णन करने वाले कवि के रूप में जाना जाता है। पंत जी को इस तरह की कविताएं लिखने की प्रेरणा उनकी अपनी जन्म भूमि से ही मिली।जन्म के छ-सात घंटे बाद ही माँ से बिछुड़ जाने के दुःख ने पंत जी को प्रकृति के निकट ला दिया। प्रकृति की रमणीयता, सुंदरता ने पंत जी के जीवन में मां की कमी को न केवल पूरा किया बल्कि अपनी ममता भरी छाँव में पंत जी के व्यक्तित्व का विकास किया।

सुमित्रानंदन पंत हिंदी साहित्य के छायावादी युग के प्रमुख स्तंभों में से एक हैं। पंत जी को प्रकृति का सुकुमार कवि कहा जाता है। वह एक विचारक, दार्शनिक और मानवतावादी कवि थे। उनकी रचनाएं प्रकृति के सौंदर्य और मानव जीवन के प्रति गहरी संवेदना को व्यक्त करती हैं।
पंत जी का जन्म उत्तराखंड में अल्मोड़ा जिले के कौसानी गाँव में २० मई सन् १९०० को हुआ था। जन्म के कुछ घंटों के बाद ही उनकी माताजी की मृत्यु हो गई जिसके कारण उनका पालन-पोषण उनकी दादी ने किया। बचपन में उनका नाम गोसाईंदत्त रखा गया। पंतजी के पिता गंगादत्त कौसानी में एक चाय बागान के प्रबंधक थे। उनकी प्राथमिक शिक्षा कौसानी वर्नाक्यूलर स्कूल से हुई। वे ग्यारह वर्ष की अवस्था में अल्मोड़ा आ गए। उस समय अल्मोड़ा में साहित्यिक और सांस्कृतिक गतिविधियाँ लगातार चलती रहती थीं। पंतजी उनमें भाग लेने लगे। उन्होंने अल्मोड़ा से प्रकाशित होने वाली हस्तलिखित पत्रिका ‘सुधाकर’ और ‘अल्मोड़ा अखबार’ के लिए रचनाएं लिखना शुरू कर दिया। वे सत्यदेव जी द्वारा स्थापित शुद्ध साहित्य समिति नामक पुस्तकालय से पुस्तक के लाकर पढ़ने जिससे उन्हें भारत के विभिन्न विद्वानों के साथ ही विदेशी भाषाओं के साहित्य के अध्ययन का अवसर सुलभ हो गया था। अल्मोड़ा में उनका परिचय हिंदी के प्रसिद्ध नाटककार गोविंद बल्लभ पंत से हुआ। इसके साथ ही वह श्यामाचरण दत्त पंत, इलाचंद्र जोशी और हेमचंद्र जोशी के संपर्क में आए। इन साहित्यकारों के संपर्क में आकर पंत के व्यक्तित्व का विकास हुआ। अल्मोड़ा में पंत जी को ऐसा साहित्यिक वातावरण प्राप्त हुआ जिससे उनकी वैचारिकता का विकास हुआ। परिणाम स्वरुप उन्होंने सबसे पहले अपना नाम गोसाईं दत्त से बदलकर सुमित्रानंदन पंत रख लिया। बाद में पंत जी ने नेपोलियन बोनापार्ट के युवावस्था के चित्र से प्रभावित होकर लंबे और घुंघराले बाल रख लिए।
सन १९१८ में वे अपने भाई के साथ वाराणसी आ गए और क्वींस कॉलेज से माध्यमिक की परीक्षा पास की। तत्पश्चात इलाहाबाद आकर यहाँ के म्योर कॉलेज में प्रवेश लेकर इंटरमीडिएट की शिक्षा प्राप्त करने लगे। इलाहाबाद में पंत जी गांधी जी के संपर्क में आए। सन१९२१ में गांधी जी के असहयोग आंदोलन से प्रभावित होकर उन्होंने म्योर कॉलेज की पढ़ाई छोड़ दी और आंदोलन में कूद पड़े। घर पर रहकर अपने प्रयासों से संस्कृत, बांग्ला और अंग्रेजी भाषा का अध्ययन किया।
पंत जी को प्रकृति के उपासक और प्रकृति की सुंदरता का वर्णन करने वाले कवि के रूप में जाना जाता है। पंत जी को इस तरह की कविताएं लिखने की प्रेरणा उनकी अपनी जन्म भूमि से ही मिली।जन्म के छ-सात घंटे बाद ही माँ से बिछुड़ जाने के दुःख ने पंत जी को प्रकृति के निकट ला दिया। प्रकृति की रमणीयता, सुंदरता ने पंत जी के जीवन में मां की कमी को न केवल पूरा किया बल्कि अपनी ममता भरी छाँव में पंत जी के व्यक्तित्व का विकास किया। इसी कारण पंत जीवन भर प्रकृति के विविध रूपों एवं आयामों को अपनी कविताओं में उतारते रहे। बर्फ से ढके पहाड़ों और उसके नीचे पसरी कल्यूर घाटी की हरी-भरी चादर, पर्वतों से निकलने वाले झरनों, नदियों, आडू,खुबानी चीड़ के सुंदर पेड़ पौधों और चिड़ियों की चहचहाहट से भरी पूरी उनकी मातृभूमि कौसानी ने उन्हें माँ की गोद जैसा स्नेह दिया।पंतजी के लिए प्रकृति ही उनकी माँ थी, इसीलिए पंत को प्रकृति का सुकुमार कवि कहा जाता है। प्रकृति प्रेम का ही यह प्रभाव था कि वे सात वर्ष की उम्र में ही कविता लिखने लगे थे। ‘गिरजे का घंटा’, `बागेश्वर का मेला’, वकीलों के धनलोलुप स्वभाव, तंबाकू का धुआँ आदि उनकी शुरुआती दौर की कविताएं हैं।
पंतजी की काव्य यात्रा को तीन चरणों में देखा जा सकता है- सन १९१६ से १९३५ तक का पहला चरण छायावादी काव्य का है। इस दौरान वीणा, ग्रंथि, पल्लव, गुंजन तथा ज्योत्सना काव्य संग्रह प्रकाशित हुए। ‘पल्लव’ छायावादी काव्य का सर्वश्रेष्ठ संग्रह है। दूसरा चरण प्रगतिवादी काव्य का है जब पंत जी मार्क्स और प्रâायड के प्रभाव से सौंदर्य चेतना से बाहर निकल आम हाड़-मांस के मानव की पहचान का प्रयास करते हैं। इस दौर में उनके युगांत, युगवाणी और ग्राम्या काव्य संग्रह प्रकाशित हुए। तीसरी धारा अध्यात्म वाद की है जब वे अरविंद दर्शन से प्रभावित हुए। स्वर्णधूलि, अतिमा, रजतशिखर और लोकायतन इसी चरण के संग्रह हैं।
युगांतर, स्वर्णकिरण, कला और बूढ़ा चांद, सत्यकाम, मुक्तियज्ञ, तारापथ, मानसी, युगवाणी, उत्तरा, शिल्पी, सौवर्ण, पतझड़, मेघनाथ वध आदि उनके अन्य प्रमुख काव्य संग्रह हैं। चिदंबरा काव्य संग्रह का प्रकाशन १९५८ में हुआ जिसमें १९३७-१९५० तक की रचनाओं का संचयन है। कविताओं के अतिरिक्त पंतजी ने नाटक, उपन्यास, निबंध और अनुवाद में भी योगदान किया है।
१९६० में ‘कला और बूढ़ा चाँद काव्य संग्रह’ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। १९६१ में ‘पद्मभूषण’ से अलंकृत किया गया और उन पर टिकट जारी किया गया। १९६८ में ‘चिदंबरा’ काव्य संग्रह के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
कौसानी गांव के उनके घर को ‘सुमित्रानंदन पंत साहित्यिक वीथिका’ नामक संग्रहालय में परिणत किया गया है। यहाँ पर उनकी व्यक्तिगत वस्तुओं प्रशस्तिपत्र तथा विभिन्न संग्रहों की पांडुलिपियों को सुरक्षित रखा गया है। संग्रहालय में उनकी स्मृति में प्रतिवर्ष पंत व्याख्यान माला का आयोजन किया जाता है।
छायावाद के प्रतिनिधि कवि के रूप में पंत की कविताओं में भारतीय सांस्कृतिक चेतना का प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है इसके साथ ही स्वतंत्रता पाने की तीव्र इच्छा, बंधनों से मुक्ति, विद्रोह के स्वर पंत जी की कविताओं में देखने को मिलते हैं। पंत जी जब अपनी कविताओं में भारत के ग्रामीण समाज का चित्रण करते हैं तब वह ग्रामीण समाज के दुखों, कष्टों,भेदभाव और गांव के लोगों के सुख-सुविधा विहीन जीवन को भी प्रकट करते हैं। वे अमीर गरीब के बीच के भेद को मिटाने की बात करते हैं। वे अपनी कविता में सामाजिक समरसता की बात करते हैं-
पंत जी आज के अभावग्रस्त शोषित दलित और साधन विहीन समाज के दुखों और को बड़ी गहराई तक उतरकर देखते हैं। इन सबके बीच वे अपराध और आतंक से भरी देश की स्थितियों को भी प्रकट करते हैं। उनकी यह भावधारा राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय दोनों स्तरों पर देखने को मिलती है। पंत की इस भावधारा के पीछे उनके मार्क्सवादी चिंतन को देखा जा सकता है। पंत के काव्य संसार को सत्यं,शिवम् सुंदरम् की साधना का काव्य कहा जा सकता है। सत्य, शांति, अहिंसा, दया, क्षमा और करुणा जैसे मानवी गुणों की चर्चा बौद्धदर्शन में प्रमुख रूप से होती है। पंतजी लिखते हैं-
‘बिना दुख के सब सुख निस्सार,
बिना आँसू के जीवन भार,
दीन-दुर्बल है यह संसार,
इसी से दया क्षमा और प्यार।’
इसके साथ ही दो लड़के नामक कविता में वे लिखते हैं-
‘क्यों न एक हो मानव मानव सभी परस्पर,
मानवता निर्माण करे जग में लोकोत्तर!
जीवन का प्रासाद उठे भू पर गौरवमय,
मानव का साम्राज्य बने,--मानवहित निश्चय।’
सुमित्रानंदन पंत ने अध्यात्म और दर्शन के साथ विज्ञान के समन्वय की बात अपनी कविताओं में कही है। इनके आपसी समन्वय के माध्यम से वे मानवता के कल्याण की कामना करते हैं। उनका मानना है कि ये युग-शक्तियाँ हैं और युग-उपकरण हैं, जिनका प्रयोग अगर मानवता के कल्याण के लिए किया जाएगा तो सारे विश्व का कल्याण होगा, दीन-दुखियों और जरूरतमंदों का कल्याण होगा। वे लिखते हैं-
`नम्र शक्ति वह, जो सहिष्णु हो,
निर्बल को बल करे प्रदान,
मूर्त प्रेम, मानव मानव हों,
जिसके लिए अभिन्न समान!
वह पवित्रता, जगती के कलुषों से जो न रहे संत्रस्त,
वह सुख, जो सर्वत्र सभी के लिए रहे संन्यस्त!
रीति नीति, जो विश्व प्रगति में बनें नहीं जड़ बंधन-पाश,
ऐसे उपकरणों से हो भव-मानवता का पूर्ण विकास!’
उनकी काव्य-यात्रा में गांधी-दर्शन का प्रभाव इसी कारण प्रमुख रूप से दिखाई देता है। सन् १९६४ में पंत द्वारा रचित लोकायतन प्रबंध-काव्य गांधी दर्शन और चिंतन को बड़े ही भावनात्मक ढंग से प्रस्तुत करता है। १२ मार्च, १९३० से शुरू हुए गांधी जी के नमक सत्याग्रह ने पंत जी को सबसे ज्यादा प्रभावित किया था। वे गांधी जी को आधुनिक युग का ऐसा मसीहा मानते थे, जिनके जरिए देश में नई क्रांति आ सकती थी, जिनसे सारे देश को उम्मीद थी। लगभग सात सौ पृष्ठों का यह महाकाव्य पंत जी ने अपने पिता को समर्पित किया। इस महाकाव्य पर उन्हें ‘सोवियतलैंड नेहरू पुरस्कार’ मिला और उन्हें उत्तर प्रदेश शासन द्वारा भी सम्मानित किया गया। सुमित्रानंदन पंत अपने जीवन में कई दार्शनिकों-चिंतकों के संपर्क में आए। गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर और श्री अरविंद के प्रति उनकी आस्था थी। वे अपने समकालीन कवियों- सूर्यकांत त्रिपाठी निराला और हरिवंशराय बच्चन से भी प्रभावित हुए। हरिवंशराय बच्चन के पुत्र और सदी के महानायक अमिताभ बच्चन को अपना यह नाम भी पंत जी से ही मिला था। पंत जी की रचनाओं में विचारधारा, दर्शन और चिंतन के स्तर पर ऐसी प्रगतिशीलता नजर आती है, जिसमें प्रकृति के बदलावों की तरह एक नयापन देखा जा सकता है। उनका प्रकृति-चित्रण प्रगतिशीलता को साथ लेकर चलता है। वीणा, ग्रंथि, पल्लव, गुंजन, युगांत, युगवाणी, उत्तरा, युगपथ, चिदंबरा, कला और बूढ़ा चाँद तथा गीतहंस आदि काव्य-कृतियों के साथ ही पंत जी ने कुछ कहानियाँ भी लिखीं हैं। उन्होंने ‘हार’ शीर्षक से एक उपन्यास की रचना भी की है। इसके साथ ही साठ वर्ष : एक रेखांकन नाम से पंत जी ने आत्मकथा भी लिखी है। उन्होंने सन् १९५० से १९५७ तक आकाशवाणी, इलाहाबाद में हिंदी चीफ प्रोड्यूसर के रूप में अपनी सेवाएँ दीं। इसके बाद वे साहित्य सलाहकार के रूप में आकाशवाणी से जुड़े रहे। इसी दौरान १५ सितंबर, सन् १९५९ को भारत में टेलिविजन इंडिया नाम से भारत में टेलिविजन प्रसारण शुरू हुआ। इसे दूरदर्शन नाम देने वाले भी सुमित्रानंदन पंत ही थे। इस ऊर्जावान, युग प्रवर्तक, भावुक और संवेदनशील कवि ने २८ दिसंबर सन् १९७७ को इलाहाबाद (उत्तर प्रदेश) में हमसे हमेशा के लिए विदाई ले ली।
प्रो. डॉ. दिनेशकुमार
कांदीवली (प.) मुंबई
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