जीने की राह
कहकर धर्मदास शून्य में ताकने लगा, तभी उसके कंधे पर रानी बाई हौले से थपकी देती है। पत्नी की दिलासा पाकर, दोनो के बीच गहरी खामोशी छा जाती है। धर्मदास भावुक होकर एक साल पहले घटित घटनाक्रम को याद करने लगता है।
"आओ बैठो भी...कब से रोटी ठंडी हो रही है"
रानी बाई अपने पति धर्मदास से मनुहार करती है।
"थोड़ा छोटकू के साथ खेल तो लूं...फिर आता हूं"
धर्मदास ने बड़े उत्साह से जवाब दिया।
"अब उसको भी आराम करने दो... वह भी थक गया होगा"
"जब तक शरीर साथ दे रहा है तब तक इसके साथ खेल लूं...उसके बाद तो..."
कहकर धर्मदास शून्य में ताकने लगा, तभी उसके कंधे पर रानी बाई हौले से थपकी देती है। पत्नी की दिलासा पाकर, दोनो के बीच गहरी खामोशी छा जाती है। धर्मदास भावुक होकर एक साल पहले घटित घटनाक्रम को याद करने लगता है।
उसका भरा पूरा परिवार था।बड़े आराम से जीवन व्यतीत हो रहा था। एक दिन ससुराल से लौटते हुए उसका लड़का जीवन, अपनी पत्नी तथा चार साल के बेटे के साथ दुर्घटना का शिकार हो जाता है। दुर्घटना स्थल पर ही तीनों के प्राण पखेरू उड़ जाते हैं। धर्मदास का हँसता खेलता परिवार उजड़ जाता है। उसके जीने का सहारा, उसका चार वर्षीय पोता विक्रम का जाना उसे सहन नहीं हुआ। धर्मदास कई दिनों तक घर के बाहर निकला ही नहीं। लेकिन कब तक ऐसा चलता।
रानी बाई ने धर्मदास को समझाया कि सच्चाई को समझो। जीने के लिए कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा। क्योंकि दुख मनाने से न दुख कम होता है और न भावनाओं से कभी पेट भरता है। इस कटु सत्य को समझकर अनपढ़ धर्मदास गांव - गांव जाकर कठपुतली का खेल दिखाने लगा। इस बहाने जीवन - यापन के साथ - साथ बच्चों की हँसी में अपने पोते की हँसी देखकर संतुष्ट हो लेता। कुछ देर घर पर अकेले में कठपुतली से खेलकर अपने पोते को खिलाने का सुखद भ्रम पालता।
सुधाकर मिश्र "सरस"
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