ॐ नमोस्तु सर्पेभ्यो ये के च प्रथिवी मनु ।
ये अंतिरिक्षे ये दिवि तेभ्यो : सर्पेभ्यो नमः ।।
-अथर्ववेद
भारत की सांस्कृतिक संरचना में धार्मिक पर्व एवं अनुष्ठान केवल आध्यात्मिक आस्था के वाहक नहीं, बल्कि सामाजिक-पर्यावरणीय ज्ञान के संवाहक भी हैं। विभिन्न लोकाचारों के भीतर पर्यावरणीय संतुलन, जैव-विविधता संरक्षण तथा मानव-प्रकृति सह-अस्तित्व के सिद्धांत निहित हैं। इन्हीं परंपराओं में नागपंचमी का पर्व विशेष रूप से उल्लेखनीय है। नागपंचमी का आयोजन प्रायः श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को किया जाता है, जो भारतीय पंचांग के अनुसार वर्षा ऋतु के मध्य का समय है। इस कालखंड में वर्षा के कारण जल स्रोतों का स्तर उच्चतम बिंदु पर होता है, जिससे अनेक जीव-जंतु, विशेषतः सरीसृप वर्ग के सदस्य, अपने भूमिगत आवास से बाहर निकलने को विवश होते हैं। इस प्राकृतिक घटना के परिणामस्वरूप साँप और मनुष्य के बीच प्रत्यक्ष संपर्क की संभावना बढ़ जाती है, जिससे कभी-कभी मानव-सर्प संघर्ष (Human-Snake Conflict) की स्थितियाँ उत्पन्न होती हैं।
नागपंचमी की परंपरा, यद्यपि धार्मिक संदर्भों में विकसित हुई है, किंतु इसका सामाजिक एवं वैज्ञानिक महत्व अत्यंत स्पष्ट है। यह पर्व न केवल सर्पों के प्रति संरक्षण की भावना उत्पन्न करता है, बल्कि उनके पारिस्थितिक योगदान, कृषि-हितकारी भूमिका तथा औषधीय महत्व के प्रति भी अप्रत्यक्ष जागरूकता प्रदान करता है। सांस्कृतिक प्रतीकों के माध्यम से यह पर्व मानव समुदाय में सर्पों के प्रति अनावश्यक भय (Ophidiophobia) को कम करने और सह-अस्तित्व के विचार को प्रोत्साहित करने में सहायक सिद्ध होता है। अतः नागपंचमी का अध्ययन केवल धार्मिक-लोकाचार के दृष्टिकोण से ही नहीं, बल्कि पारिस्थितिकीय, कृषि-विज्ञान एवं औषधि-विज्ञान की दृष्टि से भी आवश्यक है। इस पर्व का अपना एक बहुआयामी वैज्ञानिक महत्व है, जो यह स्पष्ट करता है कि भारतीय परंपराओं में निहित वैज्ञानिक तर्क आज भी प्रासंगिक हैं। बाहरी दृष्टि से यह केवल एक धार्मिक अनुष्ठान प्रतीत हो सकता है, लेकिन गहराई से देखें तो इसके पीछे पर्यावरण संरक्षण, कृषि-उपयोगिता, जैव-विविधता का संरक्षण और औषधीय विज्ञान जैसे महत्वपूर्ण पहलू छिपे हैं।
साँपों का पारिस्थितिक महत्व
साँप (Serpentes) पृथ्वी के पारिस्थितिकी तंत्र (Ecosystem) में एक महत्त्वपूर्ण स्तर (Trophic Level) पर स्थित जीव समूह हैं। वे मुख्यतः द्वितीयक या तृतीयक उपभोक्ता (Secondary/Tertiary Consumers) की भूमिका निभाते हैं और खाद्य श्रृंखला (Food Chain) के संतुलन में प्रत्यक्ष योगदान देते हैं। उनके आहार में मुख्यतः चूहे, गिलहरी, मेंढक, छिपकली और कीट जैसे जीव शामिल होते हैं। विशेष रूप से ग्रामीण और कृषि क्षेत्रों में, चूहे फसल उत्पादन के लिए गंभीर खतरा पैदा करते हैं, क्योंकि वे अनाज को खेतों और भंडारों दोनों को नष्ट करते हैं। एक अध्ययन के अनुसार, एक वयस्क साँप वर्ष में सैकड़ों चूहों का शिकार कर सकता है, जिससे कीटनाशकों पर निर्भरता कम होती है और पारिस्थितिक रूप से सुरक्षित कीट-नियंत्रण संभव होता है।
दूसरी ओर साँप केवल शिकारी ही नहीं, बल्कि कई अन्य जीवों के शिकार भी होते हैं, जैसे शिकारी पक्षी (गरुड़, उल्लू), नेवले, और बड़े स्तनधारी। इस प्रकार वे खाद्य जाल (Food Web) में ऊर्जा और पोषक तत्वों के प्रवाह को बनाए रखने में अहम कड़ी के रूप में कार्य करते हैं। इसी क्रम में वे पर्यावरणीय स्वास्थ्य के सूचक भी माने जाते हैं। उनकी संख्या और प्रजातिगत विविधता से किसी क्षेत्र के पारिस्थितिक संतुलन और जैव-विविधता की स्थिति का आकलन किया जा सकता है। यदि किसी क्षेत्र में साँपों की संख्या असामान्य रूप से घटती है, तो यह पारिस्थितिक असंतुलन, कीटनाशक प्रदूषण या शिकार दबाव का संकेत हो सकता है। इसके अतिरिक्त चूहे जैसे कृंतक न केवल फसलें नष्ट करते हैं, बल्कि वे कई रोगजनकों (Pathogens) के वाहक भी होते हैं, जैसे लेप्टोस्पाइरोसिस (Leptospirosis) और प्लेग। साँप इन कृंतकों की आबादी को नियंत्रित करके अप्रत्यक्ष रूप से सार्वजनिक स्वास्थ्य की रक्षा में योगदान देते हैं। जब किसी क्षेत्र में साँपों की संख्या घटती है, तो कृंतकों की जनसंख्या तेजी से बढ़ जाती है, जिससे खाद्य श्रृंखला में असंतुलन पैदा होता है और मानव-वन्यजीव संघर्ष बढ़ सकता है। इसके विपरीत, स्वस्थ सर्प-जनसंख्या पारिस्थितिक तंत्र को स्थिर और संतुलित बनाए रखने में सहायक होती है। ऐसे में साँपों का हमारे पारिस्थितिकी तंत्र में मौजूद रहना प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से हमारे अस्तित्व के लिए परमावश्यक हो जाता है। इस प्रकार साँप पारिस्थितिकी तंत्र (Ecosystem) के महत्वपूर्ण सदस्य हैं। वे खेतों और जंगलों में चूहों, छिपकलियों और अन्य छोटे जीवों की संख्या नियंत्रित करते हैं। विशेष रूप से चूहे फसलों को भारी नुकसान पहुँचाते हैं, और साँप उनके प्राकृतिक शिकारी हैं। अगर साँपों की संख्या घट जाए तो चूहों की आबादी अनियंत्रित हो सकती है, जिससे खाद्यान्न उत्पादन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। नागपंचमी जैसे पर्व ग्रामीण समाज को साँपों के प्रति सहिष्णुता और संरक्षण का संदेश देते हैं।
मानसून और साँपों का व्यवहार
नागपंचमी वर्षा ऋतु के मध्य में आती है। मानसून ऋतु भारतीय उपमहाद्वीप के पारिस्थितिकी तंत्र में व्यापक परिवर्तन लाती है और इसका प्रत्यक्ष प्रभाव सरीसृप वर्ग, विशेषतः साँपों (एीजहूो) के व्यवहार एवं जीवन-चक्र पर पड़ता है। यह समय, जो प्रायः जून से सितंबर तक विस्तारित होता है, साँपों की गतिविधि, प्रजनन, भोजन-खोज और आवास परिवर्तन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इस समय भारी बारिश के कारण साँपों के बिलों में पानी भर जाता है, जिससे वे खुले में आ जाते हैं। मानसून के साथ ही उभयचर (जैसे मेंढक, टोड) और कृंतक (चूहे, गिलहरी) की संख्या में वृद्धि होती है। ये जीव साँपों के प्रमुख आहार स्रोत हैं। भोजन की इस प्रचुरता के कारण साँप इस अवधि में अधिक सक्रिय रहते हैं, और शिकार के लिए अधिक दूरी तय करते हैं।
यह मौसम कृषि कार्यों का भी चरम समय होता है। जब किसान खेतों में लगातार काम करते हैं तो साँपों और मनुष्यों के आमने-सामने आने की संभावना बढ़ जाती है। नागपंचमी के दौरान साँपों को बिना हानि पहुँचाए पकड़कर सुरक्षित स्थान पर छोड़ने की परंपरा इस टकराव को कम करती है। नागपंचमी जैसे पर्व, जो मानसून के मध्य में मनाए जाते हैं, सांस्कृतिक रूप से इस प्राकृतिक चक्र के अनुरूप हैं। बरसात में साँप काटने के मामले बढ़ जाते हैं। नागपंचमी पर लोग साँपों को दूध, अंडे या अनाज चढ़ाकर उन्हें पास के जंगल या सुरक्षित स्थान पर छोड़ते हैं। इससे साँप गाँव के घरों या खेतों में कम प्रवेश करते हैं और दुर्घटनाओं की संभावना घटती है। इस प्रकार यह परंपरा अप्रत्यक्ष रूप से ग्रामीण स्वास्थ्य सुरक्षा में योगदान देती है। इन परंपराओं के माध्यम से लोग साँपों को मारने के बजाय सम्मान और संरक्षण देने के लिए प्रेरित होते हैं, जिससे अनावश्यक संघर्ष कम होता है।
साँप के ज़हर का औषधीय महत्व
साँप का विष केवल खतरनाक ही नहीं, बल्कि औषधीय दृष्टि से भी अत्यंत मूल्यवान है। साँप का विष (एहaव न्नहदस्) केवल एक रक्षा और शिकार का साधन नहीं है, बल्कि यह एक जटिल जैव-रासायनिक मिश्रण है, जिसमें सैकड़ों प्रकार के प्रोटीन, एंज़ाइम और पेप्टाइड्स पाए जाते हैं। विष का जैविक प्रभाव प्रजाति-विशेष पर निर्भर करता है, किंतु चिकित्सा विज्ञान में यह बहुमूल्य संसाधन सिद्ध हुआ है। आधुनिक औषधि-विज्ञान में विष के घटकों का उपयोग विभिन्न रोगों के उपचार, दवा-निर्माण और अनुसंधान में किया जा रहा है। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में साँप के ज़हर से प्राप्त यौगिकों का उपयोग रक्तचाप नियंत्रित करने वाली दवाओं, हृदय रोग उपचार, कुछ प्रकार के कैंसर की चिकित्सा, न्यूरोलॉजिकल (तंत्रिका संबंधी) रोगों के इलाज में किया जाता है। इस तथ्य से स्पष्ट है कि साँप केवल भय का कारण नहीं, बल्कि चिकित्सा विज्ञान के लिए एक महत्त्वपूर्ण संसाधन भी हैं। नागपंचमी के अवसर पर उनकी पूजा और संरक्षण, अप्रत्यक्ष रूप से इस चिकित्सा-ज्ञान को सुरक्षित रखने में सहायक है।
जन-जागरूकता और पारंपरिक शिक्षा
प्राचीन काल में जब विज्ञान की औपचारिक शिक्षा सीमित थी, तब लोककथाओं और त्योहारों के माध्यम से समाज में प्रकृति के प्रति समझ और सम्मान पैदा किया जाता था। नागपंचमी एक ऐसा ही माध्यम है, जो लोगों को यह सिखाता है कि हर जीव का अपना महत्व है और प्राकृतिक संतुलन में सभी की भूमिका होती है। धार्मिक अनुष्ठानों के जरिए यह संदेश लोगों के मन में गहराई से बैठाया गया। इसके अतिरिक्त मानसिक दृष्टि से देखा जाए तो साँपों का डर (ओफिडियोफोबिया) बहुत आम है। पूजा और अनुष्ठानों से यह भय कुछ हद तक कम होता है, जिससे लोग साँप को देखते ही मारने के बजाय शांत रहते हैं। और जब हम किसी जीव को बिना वजह मारते नहीं हैं, तो उसका स्थान खाद्य श्रृंखला में सुरक्षित रहता है, जिससे पर्यावरणीय असंतुलन नहीं होता। इस प्रकार नागपंचमी जैसे त्यौहार संस्कृति और विज्ञान के संगम का प्रतीक है जो यह दर्शाता है कि धार्मिक मान्यताओं के माध्यम से वैज्ञानिक एवं पर्यावरणीय संदेश भी दिया जा सकता है।
नागपंचमी केवल एक धार्मिक पर्व नहीं है, बल्कि यह एक ऐसी परंपरा है जो पर्यावरणीय संतुलन, जैव-विविधता संरक्षण, कृषि-समृद्धि और चिकित्सा विज्ञान का गहरा संदेश देती है। यह हमें याद दिलाती है कि मनुष्य और प्रकृति के बीच सह-अस्तित्व ही दीर्घकालिक समृद्धि का मार्ग है। विज्ञान और संस्कृति के इस अद्भुत मेल को बनाए रखना ही इस पर्व की सच्ची श्रद्धांजलि है।
सीमा तोमर
दिल्ली