दोस्ती-आजादी से
This heartfelt memoir pays tribute to the author’s father — a freedom fighter who lived and breathed India’s independence. Blending personal memories with the spirit of the 1942 August Revolution, it narrates his patriotic life, his contribution to horticulture in Bhopal, and the beautiful bond with his family. A moving story of courage, simplicity, and love for the motherland.
अगस्त माह में प्रतिवर्ष ९ अगस्त १९४२ की अगस्त क्रांति की याद आ ही जाती है।साथ ही याद आते हैं मेरे पिताजी जो स्वयं एक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे। जिन्होंने आज़ादी से दोस्ती निभाई। मैंने देश को स्वतंत्रता मिलने के कुछ वर्ष पश्चात जन्म लिया।
अपने माता-पिता की पहली संतान होने के नाते मैं उनकी करीबी दोस्त सी ज्यादा रही। पिता अमूमन पुत्रों से ज्यादा पुत्रियों से स्नेह रखते भी हैं, खासकर बड़ी बिटिया हो तो कुछ ज्यादा ही! मेरे पिता जिन्हें मैं पापा कहती थी वे मेरे बहुत अच्छे दोस्त थे।
वे म. प्र. शासन में उद्यानिकी अधिकारी थे।भोपाल की हमीदिया रोड पर स्थित बड़ा बाग में उनका कार्यालय था।बाद में भोपाल लिंक रोड क्र. एक पर पार्क क्र. एक में आ गए और उसे निखार दिया। बच्चों को वे मुफ्त में पेड़ बाँटते थे। सेवानिवृत्ति से कुछ वर्ष पहले उन्हें प्रतिनियुक्ति पर बीएचईएल (भारत हेवी इलेक्ट्रिकल लिमिटेड) भोपाल में उद्यान अधिकारी के पद पर ही भेजा गया। साल भर में वहाँ उन्होंने १३ बगीचे लगा दिए थे। वहाँ की हरियाली से आज भी वे झाँकते से दिखते हैं। एक नया प्रयोग यहाँ उन्होंने किया था। पौधों का अस्पताल खोला था।आप बीमार पौधे को छोड़ जाईये वे उसकी देखभाल कर वापस कर देते थे। उनका काम देखकर बीएचईएल ने उनकी सेवाएँ समाहित कर ली और वे वहीं से सेवानिवृत्त हुए।
रोज़ शाम को भोजन आदि से निवृत होकर हम सब घर की सीढ़ियों पर बैठ जाते और दुनियाँ जहान की बातें करते। कभी-कभी पुरानी बातें भी निकल आती थीं। ऐसे ही किसी दिन उन्होंने सुनाया था कि बड़वानी छोटी जगह होने के कारण हमारे बाबा नें उन्हें आगरा बी.आर. कॉलेज में पढ़ने भेजा था। वहाँ अपने एक प्रोफसर को दो बेटियों के साथ घूमता देख पापा ने भी दो बेटियों की चाहत मन में पाल ली थी जो ईश्वर नें पूरी भी की। मैं मधुलिका और बहन शेफालिका के रूप में..... उस समय देश की आजादी के लिए छोटे बड़े सभी प्रयासरत रहते थे।पापा बताते थे कि किशोरावस्था में एक बार बम बनाना सीखते समय वह फट गया था और उनके एक साथी के चिथड़े उड़ गए। तब उसके चिथड़ों को समेट कर माँ नर्मदा के किनारे दाह संस्कार कर सुबह चार बजे सभी चार दोस्त घर आए। सतपुड़ा पर्वत की गुफाएँ कंदराएँ तलवार-तमंचे छुपाने की जगह थी। बहुत साल तक वे वहाँ पड़ी भी रहीं।
कॉलेज में पापा ने कार्यक्रम में आए एक अंग्रेज अतिथि को पिस्टल से गोली मार दी।फिर छुपते-छुपाते बनारस अपने रिश्ते के भाई आ. प्रेमचंद जी के यहां पहुँच गये। वहाँ पुलिस से छुपकर वे लगभग डेढ़ दो साल रहे। उस खाली वक्त में वे 'हंस' पत्रिका की प्रूफ रीडिंग करते थे। प्रेमचंद जी की पत्नी आदरणीय शिवरानी देवी ही उन्हें खाना वगैरह खिलाती थीं। एक दिन उन्होंने पापा से कहा कि 'भैया पुलिस को आपका पता चल गया है आप यहाँ से फौरन निकल जाइए।' पापा को वहाँ से निकलना ही पड़ा और बीच में ही गिरफ्तार हो गए। बड़वानी की जिला जेल में उन्हें रखा गया । मुकदमा चला। बाबा रोज़ जेल की सलाखों से सिर टिका कर उनके सामने रोते और कहते - 'अपना गुनाह कबूल कर लो। जेल से छूट जाओगे, नौकरी भी मिल जाएगी।'
लेकिन वे आजादी के मतवाले थे, कहाँ मानने वाले थे!! आखिर इंदौर हिज़ाईनेस बीच में पड़े और किसी तरह से पापा जेल से छूटे और उन्हीं के यहाँ उद्यान अधिकारी बन गए।
वे विवाह के लिए भी तैयार नहीं थे। बाबा जब एकदम मृत्यु- शैया पर आ गए तब उन्होंने विवाह हेतु सहमति दी । बाबा ने पापा की बारात रवाना होते ही प्राण त्याग दिये थे। हमारी माँ कृष्णा श्रीवास्तव का फोटो उनके तकिये के नीचे से मिला। वह विवाह रोका नहीं गया। वधु (मेरी माँ) का गृहप्रवेश पंद्रह दिन बाद शुद्धि पश्चात हुआ था।
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मेरी माँ स्व. कृष्णा सिन्हा, भुवनेश्वरी प्रसाद सिन्हा जी की बेटी थीं जो स्वयं भी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे। पटना में अपनी सारी जमीन-जायदाद छोड़कर आ. माखनलाल चतुर्वेदी जी के आवाह्न पर उनसे साथ खंडवा में आकर जुड़ गए थे जिन्होंने मेरी मम्मी की शादी में ₹५०० से मदद की थी जो उस समय एक बहुत बड़ी रकम थी । मेरे नाना प्रसिद्ध 'कर्मवीर' पत्रिका का संपादन 'निगमपंथी' नाम से करते थे। समान मानसिकता होने के कारण बहुत ज्यादा श्याम वर्णी होते हुए भी पापा को उन्होंने दामाद के रूप में पसंद कर लिया था। मम्मी हमारी बहुत ज्यादा गोरी, मख्खन की लोई सी सुंदर थीं। बारात में पापा को देख कर मम्मी के मामा लोगों ने विवाह से मना भी किया। बहुत मुश्किल से माखनलाल चतुर्वेदी जी के समझाने पर विवाह हुआ। हम सब मानते हैं कि विवाह पूर्व निश्चित होता है।मेरी मम्मी और पापा भी बहुत खुश, सुखी- समृद्ध रहे। उनमें गजब का तालमेल था। मम्मी की सीधे पल्ले की साड़ी, माथे पर सूखे लाल इंगुर की बड़ी सी बिंदी, माँग में केसरिया सिंदूर, हाथ में काँच की ढेर सी चूड़ियाँ और हरदम सर पर पल्ला उनकी पहचान थी। वे भोपाल के आनंद विहार स्कूल में शौकिया पढ़ाने जाती थीं लेकिन बाद में वहीं उपप्राचार्य बनीं।
विवाह पश्चात तीन बच्चे होने के बाद मम्मी ने कक्षा आठ से शुरु कर एम. ए. बी.एड. तक की पढ़ाई की। वे बताती थीं कि मेरा छोटा भाई संजीव जिसे प्यार से गुडलक कहते हैं उसे तीन माह का गोद में लेकर व्ो आठवीं की परीक्षा देने गई थीं जिसे बीच में स्तनपान की लिए उन्हें समय दिया गया था। इस बीच हम कुल छः भाई बहन हो गए। दो पुत्रियाँ और चार पुत्र जिन्हें प्यार से घर में वे गुडलक (संजीव) वेलकम (राजीव) बबल्स (नीलाभ) और लकी (अमिताभ) बुलाते थे।हमारे तीसरे भाई नीलाभ ने उनकी हरियाली की विरासत को सम्हाल कर रखा है। भोपाल और आसपास के कई बाग- बगीचे उसकी देखभाल में आज भी सँवर रहे हैं। वह उद्धयानिकी विशेषज्ञ है। कालांतर में भोपाल के प्रसिद्ध आनंद विहार स्कूल की वाइस प्रिंसिपल पद से माँ सेवानिवृत्त हुईं।
पापा को जीवन पर्यंत स्वतंत्रता संग्राम सेनानी सम्मान निधि मिलती रही। हम सब आज स्वतंत्र मनचाहा जीवन जी रहे हैं।इसके लिए पूज्य पापा , उनके साथियों और सभी गुमनाम स्वतंत्रता सेनानियों को आज बारम्बार शत- शत नमन।
मधूलिका सक्सेना
'मधुआलोक’
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