श्रम का प्रतिदान
हो गया संतुष्ट अपने हुनर का बस ले दाम। नहीं, कभी नहीं अपने सृजन पर किया उसने अभिमान।

हो गया संतुष्ट
अपने हुनर का
बस ले दाम।
नहीं, कभी नहीं
अपने सृजन पर
किया उसने अभिमान।
कामचोर, काहिल
और ना जाने क्या-क्या?
लांछन भी
उसने झेला तमाम।
मगर अपेक्षा उसे भी
उपहार की नहीं।
जानता है
श्रमिक के हिस्से
सिर्फ श्रम का दाम।
उपेक्षा और अपशब्द,
सालता है मन,
मगर मन की किसे परवाह।
श्रम में तो बस
लिप्त दिखता तन,
इसलिए तन को ही
मिलता दाम,
और मन
जानता है,
श्रमिक हो
श्रम का कहाँ सम्मान?
विनोद कुमार मिश्रा
कटिहार,बिहार
What's Your Reaction?






