दीपक बोल रहा है

जलता दीपक बोल रहा है, सबकी आँखें खोल रहा है
अंतर्मन के अंधकार को, अंतस में ही तोल रहा है
पहले बात समझ लो साथी,
मन अपना मंदिर होता है
गुण अवगुण होते हैं सबमें,
मन अपना मंदिर होता है
कोई मूरत ढाल रहा है,
कोई बैठाता है उर में
मन ही मन कोई पूज रहा है,
मन अपना मंदिर होता है
आज तमस का सिर चकराया, अंतर्मन तक डोल रहा है
बाती तेल पड़ा दीपक में,
अंतर्गुण भी प्रकट हुआ है
इक दूजे का गुण लेकर ही,
अंतर्गुण भी प्रकट हुआ है
उन्नतिपथ पर बढ़ने खातिर,
इक दूजे का साथ बहुत है
उंगली मिलकर मुट्ठी होती,
अंतर्गुण भी प्रकट हुआ है
सबके जीवन में फिर सबका, अपना-अपना रोल रहा है
कुछ अपने को जानो साथी,
स्वयं को तुम पहचानो साथी
लौ अंदर है एक तुम्हारे,
स्वयं को तुम पहचानो साथी
एक किरण काफी है तम को,
भेद-भेद कर दूर करे
ख़ुद का दीपक हो सकते हो,
स्वयं को तुम पहचानो साथी
और उजाले का तुम मानो,लाख-करोड़ों मोल रहा है
अनिल कुमार ''निश्छल''
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