अवर्णनीय माँ....
तुम अमृतमयी थीं सदैव ही मेरा अस्तित्व तुम से ही तो है जो लोरियां सुना के सुलाया तुमने ये मेरा कवित्व उन से ही तो है।

तुम अमृतमयी थीं सदैव ही
मेरा अस्तित्व तुम से ही तो है
जो लोरियां सुना के सुलाया तुमने
ये मेरा कवित्व उन से ही तो है।
कानों में रस घोलती तुम्हारी सदा
मेरे गीतों में मुखरित हो रही है
पाप पुण्य की जो परिभाषा सिंचित की
मेरे कर्मों में आज परिलक्षित हो रही है।
मेरे घर में दूरदर्शिता का प्रतीक तुम थी
ध्येय का अभिलक्षण तुमने सिखाया
मैं दूर था फिर भी मेरे निकट बस तुम थी
कर्म की ऊर्जा से लक्ष्य का वरण तुमने सिखाया।
मन समर्पित पति को, तन से सन्तानों को सींचा
त्याग समर्पण की मूरत को नमन सहस्त्र करता हूँ
माँ के हृदय में जो भाव देखे आज पुत्री में देखता हूं
मातृत्व के इस भाव को मैं सिर माथे पे धरता हूँ।
मैं अकिंचन आजीवन कितना भी यत्न करूँ
उऋण तुम्हारे प्रेम तुम्हारे दूध से हो सकता नहीं
हर जनम मैं तुम्हारी कोख से ही जन्म लूं
मेरा प्रभु भी मेरी याचना से क्षुब्ध हो सकता नहीं।।
अजय बंसल "अकेला"
फ़रीदाबाद, हरियाणा
What's Your Reaction?






