गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर की स्मृति और विरासत

Gurudev Rabindranath Tagore, Asia’s first Nobel Laureate and the creator of Gitanjali, Gora, and India’s national anthem Jana Gana Mana, remains a timeless symbol of art, compassion, and humanism. His life, filled with both sorrow and creativity, continues to inspire generations. His death anniversary, observed on 22 Shravan (7th August), is celebrated as a day of cultural remembrance and homage. २२ श्रावण केवल रवीन्द्रनाथ ठाकुर की मृत्यु की स्मृति नहीं है, बल्कि यह एक संस्कृति का उत्सव है-वह संस्कृति जो मानवीय करुणा, सौंदर्य, और आत्मा की आवाज़ को प्राथमिकता देती है। इस दिन संगीत समारोह, कविता-पाठ, नाट्य-प्रदर्शन और ठाकुर की रचनाओं पर आधारित विविध कार्यक्रमों का आयोजन होता है। यह दिन हमें यह भी याद दिलाता है कि साहित्य और कला के माध्यम से एक व्यक्ति कैसे पूरी दुनिया की सोच को प्रभावित कर सकता है-और यही रवीन्द्रनाथ ठाकुर की सबसे बड़ी उपलब्धि है।

Nov 12, 2025 - 17:01
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गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर की स्मृति और विरासत
Gurudev Rabindranath Tagore

‘जन गण मन’ के नायक और रचयिता-कवि, गद्यकार, नाटककार, उपन्यासकार तथा भारत ही नहीं, एशिया के पहले नोबेल पुरस्कार विजेता-‘गोरा’ और ‘गीतांजलि’ के स्रष्टा, गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर। बांग्ला तिथि के अनुसार २२ श्रावण, जो अंग्रेज़ी कैलेंडर में लगभग अगस्त महीने में आता है, रवीन्द्रनाथ ठाकुर की पुण्यतिथि होती है। आज भी २२ श्रावण को गुरुदेव को उनकी पुण्यतिथि पर बंगाल के घर-घर में श्रद्धापूर्वक याद किया जाता है और उन्हें श्रद्धांजलि दी जाती है।
तेरह भाई-बहनों में सबसे छोटे रवि का जन्म ७ मई १८६१ को कोलकाता के जोरासांको हवेली में एक पिराली ब्राह्मण परिवार में हुआ था। हम सभी रवीन्द्रनाथ ठाकुर को उनके नोबेल पुरस्कार के लिए जानते हैं, परंतु उनकी ज़िंदगी में दुखों का आना-जाना लगा ही रहा। लगभग १३ वर्ष की आयु में ही उनकी माता शारदा देवी का देहांत हो गया। उनके पिता देवेंद्रनाथ ठाकुर अक्सर यात्राओं पर रहते थे, अतः उनका लालन-पालन ठाकुरबाड़ी के नौकरों द्वारा ही किया जाता था। उस समय बंगाल में पुनर्जागरण काल चल रहा था। उन्हें बैरिस्टर की पढ़ाई के लिए १८७८ में इंग्लैंड भेजा गया, परंतु १८८० में बिना डिग्री प्राप्त किए ही वे अपने देश लौट आए।
रवीन्द्रनाथ ठाकुर, कोलकाता के प्रतिष्ठित ठाकुर परिवार से संबंध रखते थे-एक समृद्ध ज़मींदार परिवार, जिसे बंगाल पुनर्जागरण का केंद्र भी माना जाता है। परंतु उनका जीवन केवल वैभव और सुविधा का नहीं था। दुख क्या होता है, मृत्यु क्या होती है, और शोक क्या होता है—यह उनकी लेखनी में गहराई से परिलक्षित होता है।
उनके लिए जीवन कभी आसान नहीं रहा। जब-जब उन्होंने स्वयं को संभालने का प्रयास किया, तभी कोई नया कष्ट उनके सामने खड़ा मिल जाता। माँ का बचपन में ही देहांत, पत्नी मृणालिनी देवी की असमय मृत्यु, युवा पुत्री और पुत्र का निधनइन सबने उनके मन को बार-बार तोड़ा। लेकिन वे टूटकर बिखरे नहीं, बल्कि उन क्षणों से गुजरकर उन्होंने साहित्य, संगीत और दर्शन की अनंत गहराइयों को छुआ।
उनकी रचनाओं में जो करुणा, पीड़ा और शांति की अनुभूति मिलती है-वह उनके इन्हीं जीवनानुभवों की उपज है।
कादंबरी देवी और रवीन्द्रनाथ का संबंध एक ऐसा भावनात्मक अध्याय है, जिसे बताए बिना रवीन्द्रनाथ की जीवनी संपूर्ण नहीं मानी जा सकती। कादंबरी देवी, रवीन्द्रनाथ ठाकुर के बड़े भाई ज्योतिरिन्द्रनाथ ठाकुर की पत्नी थीं। जब वह ठाकुर परिवार में आईं, तब रवीन्द्रनाथ मात्र ७ वर्ष के थे। रवि उन्हें स्नेह से `नोतून बोउठान' (नई भाभी) कहकर पुकारते थे। कादंबरी देवी उम्र में रवीन्द्रनाथ से बड़ी थीं, लेकिन उनके बीच एक गहरा स्नेहपूर्ण और रचनात्मक संबंध विकसित हुआ। कादंबरी देवी ने रवीन्द्रनाथ की प्रारंभिक रचनाओं को पढ़ा, सराहा और निरंतर प्रोत्साहन दिया। उनकी समीक्षात्मक दृष्टि और गहरी संवेदनशीलता ने रवीन्द्रनाथ की प्रतिभा को निखारने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
कुछ आलोचक मानते हैं कि रवीन्द्रनाथ की प्रारंभिक प्रेम कविताओं, भावुक कल्पनाओं और स्त्री-पात्रों के पीछे यदि किसी का छायाचित्र है, तो वह कादंबरी देवी ही हैं। रवीन्द्रनाथ ने अपनी कुछ रचनाएँ उन्हें समर्पित भी की थीं। इस संबंध की गहराई को समझने के लिए वर्ष २०१५ में बनी फिल्म `कादंबरी' उल्लेखनीय है, जो कादंबरी देवी और रवीन्द्रनाथ ठाकुर के बीच के आत्मीय और जटिल भावनात्मक रिश्ते को दर्शाती है।
ज्योतिरिन्द्रनाथ अपने कार्यों में अत्यधिक व्यस्त रहते थे, और यही व्यस्तता उन्हें कादंबरी देवी से दूर रखती थी। ऐसे में कादंबरी देवी और रवीन्द्रनाथ ठाकुर को एक-दूसरे के साथ अधिक समय बिताने का अवसर मिलता रहा। धीरे-धीरे उनके बीच एक स्नेहमय रिश्ता विकसित होने लगा, जिसमें आत्मीयता, समझ और भावनात्मक निकटता का रस घुलने लगा।
उनके इस संबंध में जहाँ सिर्फ स्नेह था-वह शायद प्रेम का रूप लेने लगा था। रवीन्द्रनाथ ने जितने भी प्रेमगीत रचे, उनमें कादंबरी देवी कहीं न कहीं केंद्र में थीं। कुछ आलोचक मानते हैं कि टैगोर की चित्रकला में भी कादंबरी देवी ही उनकी प्रेरणा रही हैं। जब टैगोर की माँ का निधन हुआ था, तब वह कादंबरी देवी ही थीं जिन्होंने रवीन्द्रनाथ पर स्नेह, प्रेम और ममता की वर्षा की। लेकिन यह संबंध एक करुण अंत की ओर बढ़ा।
जब रवीन्द्रनाथ की शादी हुई, ठीक उसके चार महीने बाद, कादंबरी देवी ने भारी मात्रा में अफीम खाकर आत्महत्या कर ली। उनकी असामयिक मृत्यु ने ठाकुर परिवार के साथ-साथ पूरे साहित्यिक जगत को झकझोर दिया।
इस घटना की उस समय खूब चर्चा हुई, और गुरुदेव इस दुःखद क्षण से भीतर तक टूट गए थे। ४१ वर्ष की उम्र में पत्नी का निधन हो गया। उनके पाँच संतानें थीं- रथीन्द्रनाथ, शमीन्द्रनाथ, माधुरीलता( बेला), रेणुका (रानी) और  मीरा (अतशी)। अपनी माँ के निधन की वर्षगांठ पर, शमीन्द्रनाथ मात्र ग्यारह वर्ष की आयु में हैजे से चल बसे। रानी भी बारह वर्ष की आयु में बीमारी के कारण दिवंगत हुईं। इस पीड़ा में कवि ने लिखा-

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‘आज ज्योत्स्ना रात में सब गए हैं बन को।’
मधुरीलता (बेला) का पति इंग्लैंड जाकर बैरिस्टर बनने के बजाय पढ़ाई अधूरी छोड़कर लौट आया। रानी के पति की कहानी भी ऐसी ही थी। मीरा (अतशी) के पति को कृषि विज्ञान पढ़ने अमेरिका भेजा—वह कवि काे बार-बार पैसे के लिए पत्र भेजता रहा। एक बार कवि ने लिखा—
‘जमींदारी से जो कुछ मिलता है, सब तुम्हें भेज देता हूँ।’
कुछ ही समय बाद अतशी का भी निधन हो गया।

सबसे दुखद मृत्यु उनकी बड़ी बेटी बेला की थी। बीमार बेला को कविगुरु हर दिन देखने जाते थे। बेला का पति उन्हें अपमानित करता था-उनके सामने पैर पसारकर सिगरेट पीता था। फिर भी कवि प्रतिदिन जाते। एक दिन रास्ते में ही उन्हें समाचार मिला-बेला नहीं रही। उन्होंने अंतिम दर्शन के लिए जाना उचित नहीं समझा-वहीं से लौट गए। उनकी प्रसिद्ध कहानी ‘हैमंती’ मानो उनकी बेटी की ही छवि है।
इस गहन दुःख से उपजा यह अमर गीत-
‘है दुख, है मृत्यु, विरह की पीड़ा है,
फिर भी है शांति, फिर भी है आनंद, फिर भी अनंत जाग्रत है।’
 जीवन के प्रारंभिक गीत जैसे उनके अंत की सच्चाई बन गए-
‘मैं ही केवल बचा रह गया,
जो था वह चला गया,
जो रह गया वह केवल धोखा है।’

रवीन्द्रनाथ ठाकुर का निधन ७ अगस्त १९४१ को हुआ था। यह दिन केवल शोक का नहीं, बल्कि एक स्मरण, आत्ममंथन और पुनराविष्कार का अवसर है।
उनकी रचनाएँ- कविताएँ, गीत, उपन्यास, नाटक, निबंध- आज भी जनमानस को गहराई से प्रभावित करती हैं। उनका विश्वविख्यात काव्य-संग्रह `गीतांजलि' के लिए उन्हें १९१३ में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। वह एशिया के पहले नोबेल पुरस्कार विजेता बने।
ठाकुर ही थे जिन्होंने भारत का राष्ट्रगान `जन गण मन' और बांग्लादेश का राष्ट्रगान 'आमार सोनार बांग्ला' की रचना की। यह अपने आप में उनके साहित्यिक और सांस्कृतिक प्रभाव की अंतरराष्ट्रीय स्वीकार्यता का प्रतीक है।
२२ श्रावण केवल रवीन्द्रनाथ ठाकुर की मृत्यु की स्मृति नहीं है, बल्कि यह एक संस्कृति का उत्सव है-वह संस्कृति जो मानवीय करुणा, सौंदर्य, और आत्मा की आवाज़ को प्राथमिकता देती है। इस दिन संगीत समारोह, कविता-पाठ, नाट्य-प्रदर्शन और ठाकुर की रचनाओं पर आधारित विविध कार्यक्रमों का आयोजन होता है।
यह दिन हमें यह भी याद दिलाता है कि साहित्य और कला के माध्यम से एक व्यक्ति कैसे पूरी दुनिया की सोच को प्रभावित कर सकता है-और यही रवीन्द्रनाथ ठाकुर की सबसे बड़ी उपलब्धि है।
`जहाँ मन भयमुक्त हो, 
और मस्तक ऊँचा उठा हो,
जहाँ ज्ञान मुक्त हो,
वही हो मेरा देश...'

पंकज कुमार झा
अलीपुरद्वार पश्चिम बंगाल

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