बंगाल शैली की कला और राष्ट्रवादी पुनर्जागरण

Emerging in the late 19th century, the Bengal School of Art marked the rebirth of Indian artistic identity under colonial rule. Led by Abanindranath Tagore, Nandalal Bose, and others, it embraced Indian mythology, spirituality, and native styles to create a nationalist art movement rooted in Indian culture and pride. अवनीन्द्रनाथ टैगोर ने हैवेल के इन विचारों को मूर्त रूप देते हुए एक ऐसी शैली विकसित की, जिसमें भारतीय विषय-वस्तु, स्वदेशी माध्यम और आदर्शवादी दृष्टिकोण को अपनाया गया। वे जलरंग, टेम्परा और वॉश तकनीक में दक्ष थे, तथा उन्होंने रेखांकन और सूक्ष्म रंग-योजना को भारतीय संवेदना के अनुरूप ढालकर एक नई कलाभाषा रची।

Nov 12, 2025 - 18:49
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बंगाल शैली की कला और राष्ट्रवादी पुनर्जागरण
Bengal School of Art and Nationalist Renaissance
भारतीय कला के इतिहास में उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध और बीसवीं शताब्दी के आरंभ का काल एक महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक मोड़ लेकर आया। यह वह समय था जब भारत राजनीतिक रूप से अंग्रेज़ी औपनिवेशिक सत्ता के अधीन था और सांस्कृतिक स्तर पर पश्चिमी प्रभाव गहराई से पैठ बना रहा था। पाश्चात्य शिक्षा, तकनीक और कलात्मक दृष्टिकोण ने भारतीय कला के पारंपरिक स्वरूप को लगभग विस्मृति की ओर धकेल दिया था। ऐसे वातावरण में बंगाल शैली केवल एक कलात्मक प्रवृत्ति नहीं, बल्कि एक राष्ट्रीय सांस्कृतिक पुनर्जागरण आंदोलन के रूप में उभरी।

बंगाल शैली का उद्भव और प्रवर्तन:- 

बंगाल शैली की नींव रखने का श्रेय दो व्यक्तित्वों को जाता है- अवनीन्द्रनाथ टैगोर (१८७१–१९२१) और अंग्रेज़ कला-आलोचक अर्नेस्ट बिनफील्ड हैवेल। हैवेल ने कोलकाता के गवर्नमेंट आर्ट स्कूल के प्राचार्य रहते हुए भारतीय कला के सौंदर्यशास्त्र को नए दृष्टिकोण से परिभाषित किया और भारतीय आदर्शों को महत्व देने की सिफारिश की। उन्होंने भारतीय लघुचित्र परंपरा, अजंता–एलोरा की भित्तिचित्र कला और पूर्वी एशियाई (विशेषकर जापानी) चित्रण शैली की विशेषताओं को भारतीय कला शिक्षा में पुनः प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया।
अवनीन्द्रनाथ टैगोर ने हैवेल के इन विचारों को मूर्त रूप देते हुए एक ऐसी शैली विकसित की, जिसमें भारतीय विषय-वस्तु, स्वदेशी माध्यम और आदर्शवादी दृष्टिकोण को अपनाया गया। वे जलरंग, टेम्परा और वॉश तकनीक में दक्ष थे, तथा उन्होंने रेखांकन और सूक्ष्म रंग-योजना को भारतीय संवेदना के अनुरूप ढालकर एक नई कलाभाषा रची।

राष्ट्रवाद और बंगाल शैली:-

 बंगाल शैली के उद्भव का समय भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के प्रारंभिक चरण से मेल खाता है। १९०५ में बंगाल विभाजन के विरोध में चलाए गए स्वदेशी आंदोलन ने राजनीतिक चेतना के साथ-साथ सांस्कृतिक स्वाभिमान को भी जागृत किया। कला इस आंदोलन का एक महत्त्वपूर्ण औजार बनी। बंगाल शैली के कलाकारों ने भारतीय महाकाव्यों, पुराणों, बौद्ध–जैन कथाओं, मुगल और राजपूत लघुचित्र परंपरा के प्रसंगों को अपनी कृतियों में स्थान दिया। इस प्रकार उन्होंने चित्रकला को राष्ट्रवादी भावनाओं का संवाहक बना दिया।
अवनीन्द्रनाथ का प्रसिद्ध चित्र `भारत माता' इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है- एक सौम्य, चारभुजी, वस्त्रालंकार-युक्त देवी रूप में भारत माता, हाथों में पुस्तक, माला, कपड़ा और धान की बालियाँ थामे हुए। यह चित्र तत्कालीन जनमानस में राष्ट्रीय एकता और स्वाभिमान का प्रतीक बन गया। 

बंगाल शैली के प्रतिनिधि कलाकार और योगदान:- 

अवनीन्द्रनाथ टैगोर के साथ-साथ गगनेन्द्रनाथ टैगोर ने भी बंगाल शैली को समृद्ध किया। गगनेन्द्रनाथ ने जहाँ भारतीय विषयों के साथ व्यंग्यात्मक और सामाजिक चित्र भी बनाए, वहीं नन्दलाल बसु-जिन्हें आदरपूर्वक ‘मास्टर मोशाय’ कहा जाता था- ने अजंता–एलोरा की प्रेरणा से ऐतिहासिक और पौराणिक विषयों पर उत्कृष्ट चित्र रचे। नन्दलाल बसु के जलरंग और टेम्परा चित्रों में सहजता, लयात्मकता और भारतीय भावभूमि स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है।
असित कुमार हाल्दार, शैलेन्द्रनाथ डे, क्षितीन्द्रनाथ मजूमदार, देवी प्रसाद राय चौधरी, यामिनी राय और स्वयं रवीन्द्रनाथ टैगोर ने भी बंगाल शैली के विस्तार में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। विशेषकर यामिनी राय ने लोककला और बटिक तकनीक के प्रयोग से इस शैली में नवीनता भरी।

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तकनीक और माध्यम की विशिष्टताएँ:- 

बंगाल शैली में प्रमुखतः जलरंग, वॉश तकनीक, टेम्परा और स्याह वॉश का प्रयोग हुआ। पारंपरिक भारतीय लघुचित्रों की तरह इसमें समतल रंग योजना, रेखाओं का महत्व, नर्म और मद्धिम रंगों का प्रयोग तथा पृष्ठभूमि में धुँधले, स्वप्निल प्रभाव देखने को मिलते हैं। पाश्चात्य कला में प्रचलित यथार्थवाद के विपरीत बंगाल शैली ने आदर्शवाद और प्रतीकात्मकता को प्राथमिकता दी। चित्रों में प्रयुक्त रंग-योजना अक्सर शांत, सौम्य और आध्यात्मिक वातावरण उत्पन्न करती थी। आकृतियों में कोमलता, भावाभिव्यक्ति में माधुर्य और पृष्ठभूमि में सांस्कृतिक संदर्भों का संयोजन इस शैली की पहचान बन गया।
सांस्कृतिक चेतना और पुनर्जागरण:- 
बंगाल शैली केवल एक कला आंदोलन नहीं, बल्कि भारतीयता के पुनर्जागरण का माध्यम थी। इसने अंग्रेज़ी शिक्षा और पश्चिमी कलात्मक आदर्शों के वर्चस्व के बीच भारतीय समाज को अपनी सांस्कृतिक जड़ों की ओर लौटने का संदेश दिया। कलाकारों ने चित्रकला को केवल सौंदर्याभिव्यक्ति न मानकर, उसे राष्ट्रीय चेतना के जागरण का साधन बनाया।
इस शैली ने यह सिद्ध किया कि आधुनिकता का अर्थ केवल पश्चिमीकरण नहीं है; भारतीय कला भी आधुनिक संदर्भ में प्रासंगिक रह सकती है, यदि वह अपने मूल्यों और परंपराओं से जुड़ी हो।

प्रभाव और विरासत:

बंगाल शैली के प्रभाव से भारतीय कला शिक्षा में लघुचित्र परंपरा का पुनर्मूल्यांकन हुआ। शांति निकेतन में नन्दलाल बसु के नेतृत्व में कला-शिक्षा का एक नया अध्याय शुरू हुआ, जिसने आगे चलकर पूरे देश में भारतीय कला की नई पीढ़ी को तैयार किया। बंगाल शैली के प्रभाव से ही बाद में ‘राष्ट्रीय शैली’ की संकल्पना सशक्त हुई और स्वतंत्रता के बाद भारतीय कला में स्वदेशी दृष्टिकोण का पुनर्स्थापन संभव हो सका।
आज भी बंगाल शैली के चित्र भारतीय कला के इतिहास में स्वर्णिम अध्याय के रूप में देखे जाते हैं। वे केवल सौंदर्यबोध नहीं, बल्कि उस युग की राष्ट्रीय आकांक्षाओं और सांस्कृतिक पुनर्जागरण की सजीव अभिव्यक्ति हैं।
वस्तुतः बंगाल शैली भारतीय कला में पुनर्जागरण का सशक्त प्रतीक है। यह आंदोलन न केवल कलात्मक दृष्टि से महत्वपूर्ण था, बल्कि इसने भारतीय समाज में राष्ट्रवाद की भावनाओं को गहराने में भी अद्वितीय भूमिका निभाई। अवनीन्द्रनाथ टैगोर और हैवेल के संयुक्त प्रयासों से प्रारंभ हुई यह शैली अनेक कलाकारों के योगदान से राष्ट्रीय आंदोलन की सांस्कृतिक धारा बन गई।
बंगाल शैली का मूल संदेश स्पष्ट है- भारतीयता में ही भारतीय कला की आत्मा है। यह शैली अपने समय में पश्चिमी प्रभावों के बीच भारतीय संस्कृति की लौ को प्रज्वलित रखने का सफल प्रयास थी। इसलिए इसे सही ही भारतीय कला की 'पुनर्जागरण शैली' और 'राष्ट्रीय शैली' दोनों कहा जाता है।
डॉ. रमेश चन्द मीणा
कोटा, राज.

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