सुरभि
Surbhi’s story narrates the struggles and resilience of a widow mother. Despite her husband’s sudden death and the hardships during lockdown, she rebuilt her life, raised her daughters, started a tailoring business, and became an inspiration for others. A story of courage, determination, and hope.डॉक्टर ने कोरोना का शक जताया और टेस्ट के बाद रिपोर्ट पॉजिटिव आई। अस्पताल में भर्ती किया गया लेकिन दो दिन तक जिंदगी और मौत के बीच जूझते हुए उसके फेफड़े जवाब दे गए। सुरभि और उसकी बच्चियाँ आखिरी बार भी उसे देख नहीं पाईं। कोविड प्रोटोकॉल के चलते अस्पताल से शव सीधे श्मशान भेजा गया। पहचान कर पाना नामुमकिन था। सुरभि ने अस्पताल, पुलिस स्टेशन, हर जगह चक्कर लगाए लेकिन पति का चेहरा तक नहीं देख सकी।
सुरभि की जिंदगी की सुबहें उसके पति उदय और दो बेटियों की खिलखिलाहट से शुरू होती थीं। एक छोटा सा किराए का घर, सीमित कमाई, लेकिन दिल बड़ा और सपनों की उड़ान असीम थी। उदय पीथमपुर में भाड़े पर लोडिंग रिक्शा चलाता था। कभी काम मिल जाता, कभी दिन खाली निकल जाता, लेकिन फिर भी उसके चेहरे पर उम्मीद की मुस्कान रहती। घर की आर्थिक स्थिति खराब थी, मगर दोनों साथ मिलकर अपनी दुनिया को खुशहाल बनाने के सपने देखते थे।
घर से निकाले जाने के बाद उदय ने पीथमपुर में ही हरिओम बाबू से किराए पर कमरा लिया था। हरिओम बाबू नेक दिल इंसान थे, जिन्होंने उदय के परिवार को अपने परिवार जैसा समझा। इस दौरान किस्मत ने करवट बदली: मंडीदीप की एक कंपनी ने उदय की लोडिंग रिक्शा अटैच कर ली। अब उसे नियमित आय मिलने लगी थी। उसने मंडीदीप में ही दो कमरों का घर किराए पर ले लिया। हरिओम बाबू का परिवार सुरभि और बच्चों से इतना घुल-मिल चुका था कि उनके जाने पर आँखें भर आई थीं। सुरभि भी वहां से जाना नहीं चाहती थी, पर उसने सोचा- ‘जहाँ प्रगति की राह दिखे, वहाँ पुराने मोह के बंधन छोड़ने ही पड़ते हैं।’
अब सुरभि को यकीन होने लगा था कि मेहनत का फल मिलेगा। लेकिन किस्मत ने फिर ऐसा खेल खेला कि सब उजड़ गया।
मार्च २०२० में लॉकडाउन लगा और शहर थम गया। लोडिंग का काम ही उदय की जीवनरेखा थी। एक दिन लॉकडाउन के बीच उसने जरूरी सामान पहुँचाने के लिए निकलने का फैसला किया। लौटते समय उसके गले में खराश और बदन दर्द शुरू हो गया। हालात बिगड़ने लगे। डॉक्टर ने कोरोना का शक जताया और टेस्ट के बाद रिपोर्ट पॉजिटिव आई। अस्पताल में भर्ती किया गया लेकिन दो दिन तक जिंदगी और मौत के बीच जूझते हुए उसके फेफड़े जवाब दे गए। सुरभि और उसकी बच्चियाँ आखिरी बार भी उसे देख नहीं पाईं। कोविड प्रोटोकॉल के चलते अस्पताल से शव सीधे श्मशान भेजा गया। पहचान कर पाना नामुमकिन था। सुरभि ने अस्पताल, पुलिस स्टेशन, हर जगह चक्कर लगाए लेकिन पति का चेहरा तक नहीं देख सकी। उसके सारे सपने और अरमान वहीं राख हो गए।
घर लौटते ही मकान मालिक ने कहा-‘अब किराया कौन देगा? लॉकडाउन है, मैं रिस्क नहीं ले सकता।’ आधी रात में सुरभि ने बेटी पायल का हाथ थामा, दिव्या को गोद में लिया, और उदय के दोस्त की मदद से लोडिंग रिक्शा में सामान रख मायके की ओर रवाना हुई।
मायके पहुँचकर उसने दरवाज़े पर दस्तक दी। पिता ने खिड़की से झांककर पूछा, ‘कौन?’
‘बाबा, मैं सुरभिष्ठ दरवाज़ा खोलोष्ठ’
पिता ने सख्त लहजे में कहा, ‘तू अपने फैसलों की सज़ा हमें क्यों देना चाहती है? लौट जा।’
भाई ने भी दरवाज़ा नहीं खोला। माँ ने एक झलक देखी, मगर फिर चेहरा फेर लिया। सुरभि ने महसूस किया कि उसका अपना कहे जाने वाला घर भी अब पराया हो गया है।
ससुराल में भी उम्मीद लेकर पहुँची तो सास ने तिरस्कार से कहा—‘हमने तुझे बहू माना ही नहीं। हमारे बेटे की मौत की वजह तू ही है। अब हमारी छाती पर मूँग दलने आई है? यहाँ तेरे लिए और तेरे बच्चों के लिए कोई जगह नहीं।’
बेटियाँ भूखी-प्यासी उसकी साड़ी का पल्लू थामे खड़ी थीं, लेकिन सुरभि ने खुद को रोने नहीं दिया। उसने अपने दिल को मजबूत रखा और तय कर लिया कि वह हार नहीं मानेगी।
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उस रात सुरभि ने पार्क के कोने में बेटियों को सुलाया और खुद सारी रात जागी। अगली सुबह थोड़ी हिम्मत जुटाकर वह पीथमपुर में हरिओम बाबू के घर पहुँची और पूरी आपबीती सुनाई। हरिओम बाबू की आँखें नम हो गईं। उन्होंने कहा, ‘तू मेरी बेटी जैसी है। जब तक जीना चाहो, हमारा घर तुम्हारा है।’ उन्होंने मकान का एक कमरा उसके लिए खुलवा दिया। सुरभि के आँसू बह निकले। उसने सोचा-‘जहाँ लोग अपनों को ठुकरा रहे हैं, वहाँ ये इंसान देवदूत बनकर सामने आए।’
लॉकडाउन हटने पर उसने काम खोजना शुरू किया। कुछ ही दिनों में उसे बर्तन धोने, कपड़े साफ करने और झाड़ू-पोंछा करने का काम मिलने लगा। कुछ लोगों ने काम दिया, कुछ ने ताने मारे-‘पति मर गया, अब भी जीना है?’ मगर सुरभि ने किसी से हार नहीं मानी।
हरिओम बाबू के घर आने वाले अखबारों से पायल ने खुद पढ़ना शुरू किया। उसकी सीखने की लगन देख सुरभि ने ठान लिया कि बेटियों को पढ़ाकर ही दम लेगी।
एक घर में काम के दौरान उसने वहाँ की महिला से सिलाई सीखनी शुरू की। फिर मंदिर परिसर में बैठकर पुराने कपड़े सिलने का अभ्यास किया। उसकी मेहनत रंग लाई और आसपास के लोग सिलाई कराने आने लगे। दिन में काम और रात में सिलाई उसका नया जीवन बन गया।
जल्दी ही उसने हरिओम बाबू के घर से अलग होकर एक कमरा किराए पर ले लिया। एक चूल्हा, एक सिलाई मशीन और बेटियों के साथ उसकी दुनिया बस गई। यहीं से उसने ‘उदय सिलाई सेंटर’ की नींव रखी। उसका काम ईमानदारी और सलीके से भरा था, जिसकी वजह से उसकी पहचान तेजी से बनने लगी।
एक दिन एक ग्राहक का पति सिलाई का बहाना बनाकर उसके घर आया और गलत इरादों से बातें करने लगा। सुरभि ने तुरंत जोर से चिल्लाया। आसपास के लोग दौड़े चले आए। शुरुआत में लोग सुरभि को ही दोषी मान बैठे, लेकिन बेटियों के बयान और उसकी सच्चाई ने माहौल बदल दिया। लोगों ने उस आदमी को भगाया और सुरभि का सम्मान बचाया। इस घटना के बाद लोग उसे और भी मजबूत औरत मानने लगे।
बेटियाँ पढ़ाई में अव्वल रहीं। पायल ने सरकारी स्कूल में स्कॉलरशिप हासिल की, दिव्या को अच्छे स्कूल में दाखिला मिला। उनकी यूनिफॉर्म, किताबें, फीस—सबके लिए सुरभि ने दिन-रात मेहनत की। कई शुभचिंतकों ने उसे दूसरी शादी की सलाह दी, पर सुरभि ने साफ कहा, ‘मेरे दिल और आत्मा में उदय हमेशा रहेंगे। वही मेरी ताकत हैं।’
कई सालों में उसकी मेहनत रंग लाई। अब उसके पास तीन सिलाई मशीनें थीं और दो जरूरतमंद महिलाओं को भी उसने काम पर रख लिया था। उसका ‘उदय सिलाई सेंटर’ इलाके में मशहूर हो चुका था। मोहल्ले की महिलाएँ उसे अपनी प्रेरणा मानने लगीं।
एक दिन भाई उसके घर आया। आँखों में शर्म और लाचारी थी। पिता गंभीर रूप से बीमार थे, माँ भी कमजोर पड़ चुकी थीं। सुरभि ने बिना शिकवा-शिकायत के उन्हें अपने घर लाकर इलाज कराया। माँ-बाप की आँखों से आँसू बहने लगे। उन्होंने बेटी से माफी माँगी और नातिनों को गले लगाया।
एक एनजीओ ने सुरभि की संघर्ष भरी कहानी सुनी और उसे ‘स्ट्रॉन्ग मदर अवॉर्ड’ से नवाज़ा। उसकी बेटियों की पढ़ाई का खर्च भी उन्होंने उठाया। स्थानीय मीडिया ने उसकी कहानी को प्रमुखता से छापा। लोग उसकी मिसाल देने लगे-‘अगर सुरभि जैसी हिम्मतवाली हार नहीं मानती, तो हम क्यों हारें?
सुरभि की कहानी बताती है कि परिस्थिति कैसी भी हो, अगर संकल्प और हौसला मजबूत हो, तो कोई भी बाधा इंसान को नहीं रोक सकती। उसकी कहानी हर उस व्यक्ति को प्रेरणा देती है जो जीवन में कभी हताश महसूस करता है.’
डॉ. प्रदीप उपाध्याय
देवास म.प्र.
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