विस्मरणीय

अपनी नौकरी की व्यस्तता के बावजूद हम सप्ताह-दस दिनों में जरूर मिल लिया करते थे और उसके शोधकार्य की प्रगति, कुछेक बाधाऐं, परेशानियां मुझे बताया करती थी, यथासम्भव अपनी सलाह या उसके बताये छोटे बड़े कार्यों में उसकी मदद भी कर दिया करता था। हम दोनों मन ही मन मिलना अवश्य चाहते थे, यह भी गलत नहीं।

Sep 1, 2024 - 14:28
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विस्मरणीय
unforgettable

अचानक नींद खुली है और मेरे सामने डॉ. यामिनी राय आ खड़ी होती है। मैं और यामिनी रॉय कॉलेज में साथ थे। अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद मुझे नौकरी मिल गई थी। उसे भी आराम से मिल सकती थी। लेकिन उसकी जिद थी कि वह अपने विषय में पीएच.डी. कर डॉक्टर शब्द, विशेषण कुछ अपने नाम से पहले जोड़ लेना चाहती थी। उस जमाने में पीएच.डी. करना या होना जरूर महत्व रखता था।
अपनी नौकरी की व्यस्तता के बावजूद हम सप्ताह-दस दिनों में जरूर मिल लिया करते थे और उसके शोधकार्य की प्रगति, कुछेक बाधाऐं, परेशानियां मुझे बताया करती थी, यथासम्भव अपनी सलाह या उसके बताये छोटे बड़े कार्यों में उसकी मदद भी कर दिया करता था। हम दोनों मन ही मन मिलना अवश्य चाहते थे, यह भी गलत नहीं।
एक दिन उसके बताये समयानुसार यामिनी से मिलने उसके घर पंहुचा था। सीधा उसके ड्राईंग रूम में बिना बेल बजाये चला गया था। वैसे और दिनों भी ऐसे ही चला जाया करता था। 
यामिनी अपने ड्राईंगरूम में रखी ड्रेसिंग टेबल के सामने खड़ी साड़ी पहन रही थी। कहना चाहिये उस समय तक साड़ी का एक छोर उसके हाथ में था और वही पेटीकोट ही पहिन पायी थी तब तक। मुझे देखे बिना किसी संकोच, झिझक के बोली थी, ‘‘परेश अच्छा किया, समय से आ गये तुम। बैठो, मैं तैयार हूं, बस पांच मिनट और।’
कमरे में रखे सोफे पर जा बैठता हूं। सामने दीवार पर लगी पेन्टिंग को देख रहा हूं। इस बार मेरी दृष्टि उसकी ओर गयी है। देखता हूं, सलीके से धीरे-धीरे साड़ी की प्लेट्स को अंगुलियों में समेटती मुझे देखे जा रही है। शायद मेरा ध्यान उसकी और आकृष्ट करने के लिए ही साड़ी को धीरे-धीरे पहिन रही थी वह।
जानना चाह रही है कि मैं उसकी ओर देख भी रहा हूं अथवा नहीं। इस बार उसकी ओर से दृष्टि हटा पेंटिग को देखने लगता हूं। उसे अच्छा नहीं लगता।
कहती है, ‘‘परेश, कोई जल्दी तो नहीं है तुम्हें।’
मैं उत्तर देने के लिए उसकी ओर देखता हूं, - ‘‘ऐसा तो नहीं। कोई खास काम भी नहीं है आज।’
‘‘ठीक है, फिर तो कोई परेशानी नहीं होगी तुम्हें।’
उपरोक्त बात उसने वैसे ही मेरा ध्यान अपनी ओर खींचने के लिए कही थी। यामिनी कोई छः फीट लम्बी, दूध से नहायी गौरवर्णीय, यौवन से भरपूर, उन्नत वक्ष की स्वामिनी, अपनी लम्बी केशराशि को अंगुलियों से बांधते जूड़ा बनाने में व्यस्त है। साथ में बीच-बीच में मुझे देखे भी जा रही है। मैं भी उससे नजर बचाता उसे देख लेता हूं।
‘‘परेश! लो मैं तैयार हूं। तुम कुछ भी तो काम नहीं करते।’
‘‘तुमने कोई काम बताया था, ऐसा मुझे याद नहीं।’
‘‘अब बता रही हूं, वहां से उठो और मेरे पास आओ। 
‘‘सोफे से उसके पास जा खड़ा होता हूं, पूंछता हूं, ‘‘कुछ कह रही थी तुम? ’
दूसरी ओर मुड़ते हुए कहती है, ‘‘ हां, ब्लाऊज के पीछे से हुक्स लगा दो। इतना-सा तो काम है, तुम्हारे लिये।’
मेरे पास आ कहती है, - ‘‘इतना काम तो कर ही सकते हो।’
संकोचवश ही सही एक-एक कर हुक्स लगाने लगता हूं। दो-तीन बार उसके हिल जाने के कारण एक बार में ठीक से नहीं लगा पाता हूं।
वह मेरे और पास आ सटकर खड़ी हो जाती है। अपनी दोनों बाहों को ऊपर कंधे तक ले जाती कहती है, - ‘‘लो अब तुम्हें कोई दिक्कत नहीं होगी।’
उसकी आँखों में उतर आई शरारत को साफतौर पर पढ़ता हूं। मुझे समुद्री लहरों का तट पर टकराने का सा अनुभव हो रहा है।
‘‘बहुत अच्छे हो तुम। अब तुम्हारी डॉक्टर यामिनी रॉय तैयार है चलने के लिए।’
कहते हुए ड्रेसिंग टेबल पर रखे परफ्यूम को उठा पहिले मेरे शर्ट पर छिड़का है, फिर अपनी साड़ी पर। कुछ खोजती नजरों से देखते पूछती है, ‘‘चाय पीना चाहो तो बना लाती हूं।’
‘‘रहने दो अभी, बाद में पी लेंगे।’
‘‘जैसा तुम चाहो।’ कहते हुए सोफे पर रखे पर्स को लापरवाही से उठा कंधे पर डालती हुई कहती है, ‘‘चलते हैं।’ दोनों कमरे से बाहर निकल आये।
दरवाजे पर ताला लगाते हुए कहती है, ‘‘डॉक्टर मार्टिन्स ने घर पर ही मिलने को कहा है, इंतजार कर रह होंगे।’
दोनों गली से निकल बाहर सड़क पर आ जाते है। ‘मेरी कार से ही चलते हैं, तुम अपनी कार यहीं रहने दो।’ कहती हुई पर्स से रिमोट निकाल कार खोलती है। ड्राईविंग सीट पर बैठ मेरी ओर दरवाजा खोलती है।
‘आओ बैठो, समय पर चलना चाहिए। डॉक्टर मार्टिन्स समय के बहुत पाबन्द है।’
मेरे बैठने के साथ ही यामिनी ने सड़क पर तेजी से घुमाव लेते हुए मोड़कर कार को शास्त्रीनगर रोड़ पर ले लिया था।
‘परेश ! तीन चेप्टर्स तो पूरे हो गये है। चौथे पर बातचीत के लिये चल रहे है, देखो क्या कहते है मार्टिन्स सर।’
रास्ते में सावित्री कॉलेज, जवाहर रंगमंच, आनासागर लिंक रोड से बढ़ते आगे बायीं ओर रेम्बल रोड़ पर गाड़ी को मोड़ लेती हैं। सड़क के दायीं ओर के पांचवें मकान के बाहर गाड़ी रोकते हुए कहती है, ‘‘डॉक्टर मार्टिन्स का घर आ गया। आओ, तुम भी मिल लेना उनसे, अच्छा लगेगा, बहुत खुशमिजाज भी हैं वह।’
दरवाजे पर पहुंच कॉलबेल का बटन दबाती है। घंटी की आवाज के साथ जोरदार ढंग से भौंकता उनका जर्मन शेफर्ड कुत्ता गेट पर आ पंजों के बल खड़ा हो जाता है, उसके पीछे मिसेज मार्टिन्स चली आती हैं। हमें देख अंदर से कहती है, ‘सॉरी डियर यामिनी, कुछ देर पहिले ही मार्टिन्स सीरियस चल रही उनकी बहिन को देखने उनके घर गये हैं। कल दोबारा उनसे बात कर आ जाना।’
‘‘कोई बात नहीं मैडम। कल आ जाऊंगी मैं, सर से समय लेकर। अच्छा चलूं मैं।’’
‘‘ओके डियर।’’
पीछे मुड़ निराशा के भाव से मुझे देखती हैं। कहती है, ‘‘सर को कितने दिनों से फोन कर रही थी, उनके पास समय ही नहीं होता मिलने का।’’
‘‘चलो, फिर मिल लेना।’’
‘‘उनको ऐसा नहीं करना था। मेरा काम पूरा हैं। बस पन्द्रह-बीस मिनिट ही तो लेती उनके।’’
‘‘उनकी बहन बीमार है। वह कर भी क्या सकते थे।’’
‘‘वह कई सालों से ऐसे ही बीमार है।’’
‘‘आओ, चलें।’’ दोनो कार में आ बैठते हैं। कार चल दी।
मेरी ओर देखती हुई कहती है, ‘‘मार्टिन्स ने सारा मूड खराब कर दिया आज तो।’’
‘‘तुम एक दो दिनों में नये लिखे चेप्टर्स को दो बार देख लेना। अच्छा रहेगा।’’
‘‘परेश! बहुत सेटिसफाईड हूं मैं, अपने काम से। क्या देखना हैफिर से। अपने सारे काम पूरी प्लानिंग से करती हूं मैं। आज मिल जाते, देख भी लेते। थोड़ा बहुत परिवर्तन के लिए ही तो कहते, अब कर भी क्या सकती हूं।’’
ऐसी ही कुछ बातें करते पता ही नहीं चला, कब यामिनी के घर आ पहुंचे थे। कार को साइड में रोक, पर्स को कंधे पर डालती हुई बाहर निकली। दोनों हाथों से कार में रखी रिसर्च संबंधी फाइलें, किताबें हाथों में उठा लेती है। अब तक मैं भी बाहर आ चुका था।
मेरी ओर देखती हुई कहती है कि ‘‘बुरा नहीं मानना, आज चाय नहीं पिला पा पाऊंगी। कितना अपसेट कर दिया है मुझे मार्टिन्स ने। हम जल्दी ही मिलते हैं। फोन पर बातें कर लेंगे हम। बॉय परेश।’’
बिना मेरी ओर देखे सड़क से अपने मकान की ओर जाने वाली गली में चली जाती है। दूर जाते देख उसकी ओर से ध्यान हटा अपनी कार में आ बैठता हूं।र्र्र्
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इस सबके बीच चार-पांच महिने गुजर गये। ना मैं यामिनी से मिला, ना ही उसका फोन आया। लगा अपने रिसर्च के काम में पूरी तरह लगी हुई है। रात के ग्यारह बज रहे हैं। टी.वी. पर समाचार देख बंद कर दिया मैंने। मोबाईल पर लगातार बजती घंटी पर ध्यान जाता हैं, फोन उठा कर देखता हूं, यामिनी का फोन है।
‘‘हैलो, डॉक्टर यामिनी कैसी हो? बहुत दिनों बाद।’’
‘‘हां, बस यों ही रिसर्च वर्क पूरा करने में लगी थी।’’
‘‘हो गया होगा अब तो।’’
‘‘हां, यूनिवर्सिटी में सबमिट भी करा दिया था। परसों ही वाई-वा है मेरा वहां ।’’
‘‘खुशी की बात है। तुम्हारी इच्छा थी रिसर्च करने की, वह भी पूरी हुई। मुझे देखो नौकरी करते तीन साल हो गये।’’
‘‘परेश, नौकरी तो जिन्दगी भर करनी है। यही सोच पहले रिसर्च करने की सोच ली और वह भी पूरी हो गई।’’
‘’बधाई तुम्हें ’’
‘‘हां, धन्यवाद। तुम्हारा भी कम सहयोग नहीं रहा इसमें।’’
‘‘मेरा तो विशेष जैसा क्या था? कभी तुमने कहा किताबें मंगवा दो, मंगवा दी, बस।’
‘वही सब तो मुख्य था। उसमें कुछ किताबें ऐसी रेअर थीं, मैं तो कहीं से प्राप्त नहीं कर पाती। कई जगह, लाईब्रेरिज से ढूंढ, पूरी किताबों की फोटोस्टेट करा कर लाये। तुमने अपने सम्पर्को, संबंधों के आधार पर सब किया। आने-जाने का खर्च तक नहीं लिया। अपने काम को छोड़कर मेरे काम के लिए समय निकाल कर गये वहां। कौन करता जो तुमने किया मेरे लिये।’
‘‘ऐसा कुछ भी नहीं। जो तुमने कहा, कर दिया। तुम्हें अपना मित्र मानकर ही तो किया।’’
‘‘मेहरबानी है आपकी परेश जी, एक काम और बच गया है आपके लिए।’’
‘‘वह भी बता दो, उसे भी कोशिश करूंगा हो जाये।’’
‘‘वैसे कुछ करने जैसा विशेष नहीं है। बस कल तुम भी मेरे साथ यूनिवर्सिटी चलो, कार से ही चलेंगे। तुम साथ रहोगे तो मोरल सपोर्ट रहेगा मुझे। रिसर्च के काम में दिमाग से इतना थक चुकी हूं कि मुझे क्या करना है और क्या नहीं करना है, कुछ भी डिसाइड नहीं कर पाती मैं। जबरदस्त थकान मन और शरीर में छा गई है, उससे उबर नहीं पा रही हूं। तुम साथ रहोगे तो मुझे अच्छा लगेगा।’’
‘‘कल तो हमारे यहां डायरेक्टर कॉलेज ऐजुकेशन की विजिट है। कल तो मुश्किल से ही छुट्टी मिल पायेगी।’’
‘‘मेरे लिये कैसे भी ले लो। मेडिकल लीव लेने पर तो तुम्हारा प्रिंसिपल मना नहीं करेगा।’’
‘‘पर मैं बीमार भी कंहा हूं।’’
‘‘चलो यार। मेरे लिये ही सही, बीमार हो जाओ। दो दिनों बाद ठीक होकर जॉइन कर लेना।’’
‘‘देखता हूं।’’
‘‘परेश! देखता हूं नहीं, चलना ह ैमेरे साथ तुम्हें। तुम तो जानते हो और लोगों से कोई सम्पर्क नहीं है मेरा। मेरी यह एक परीक्षा और बच गई है, तुम साथ रहोगे तो इसे भी सरलता से पूरा कर लूंगी मैं।’’
‘‘फिर भी देखता हूं मैं।’’
‘‘मना मत करो तुम। ज्यादा परेशानी हो तो कल सुबह तुम्हारी प्रिंसीपल से मिल लेती हूं मैं।’’
‘‘क्या करोगी उससे मिलकर?’’
‘‘तुम्हारे लिये दो दिनों के अवकाश की सिफारिश कर दूंगी। डॉ. रेशम भार्गव ही तो है तुम्हारे प्रिंसीपल। तुम पूरे भुलक्कड़ हो, कॉलेज में कितना आगे-पीछे घूमता था मेरे। क्लास से लेकर कैंटीन, लाइब्रेरी, वहां बने क्यूबिकल्स में ठीक मेरे सामने किताब लेकर बैठ जाता था। किताब पढ़ता था, पता नहीं, बस लगातार मुझे देखे जाता था। इम्प्रेस करने की सारी कोशिश करता। पर मैंने कभी भी कोई लिफ्ट नहीं दी उसे। बाप का कॉलेज है, उसे तो प्रिंसीपल बनना ही था, बन गया।’’
‘‘छोड़ो भी इन सब बातों को। चलेंगे बस।’’
‘‘तुम बहुत अच्छे हो, मेरी बात मान लेते हो।’’
‘‘अब ज्यादा तारीफ मत करो। मैं जैसा हूं, ठीक हूं।’’
‘‘तुम अच्छे हो, ऐसे ही प्रशंसा नहीं कर रही मैं। हां, देखो कल दो बजे के आसपास तुम्हारे घर आ रही हूं। एकदम तैयार रहना। तुम्हारे लंच के लिए तुम्हारी पसंद के पनीर के परांठे, नीबू का आचार लेती आऊंगी।’’
‘‘ठीक है, आ जाना। इंतजार करूंगा मैं।’’
‘‘वेरी गुड पेरश! यू आर लविंग।’ कहते हुए यामिनी ने फोन काट दिया। दो दिनों का अवकाश लेना कठिन है, नहीं जानती वह। छुट्टियां भी बाकी नहीं हैं। अवैतनिक अवकाश ही मिल पायेगा। ठीक है, जैसे भी है। कह दिया है, तो जाना ही है।’’
कॉलेज में प्रिंसीपल को छुट्टी के लिए आवेदन भेज दिया, तुरन्त ही नाराजगी से भरा फोन भी आ गया। इधर यामिनी के आग्रह को भी नहीं टाल सकता था। तीन बजने को आये, अभी तक नहीं आयी वह। बॉलकनी में खड़ा था, तब ही यामिनी की कार आकर रूकी। अनायास ही वह ऊपर की ओर देखती हैं। हमारी नजरें मिली, उसने हल्के से हाथ को ऊपर कर नीचे पहुंच दरवाजा खोलने को कहा। सीढ़ियां उतर नीचे जा दरवाजा खोला।
‘‘वेलकम डॉक्टर यामिनी जी। आइये।’’
‘‘मजाक मत बनाओं यार। तैयार हो सुबह से बैठे थिसिस के सारे चेप्टर्स, रेफरेंस बुक्स को देखने में ही सारा समय निकल गया और देर हो गई।’’
‘‘तुम्हें देर से ही आना था तो बता देती, कॉलेज ही हो आता अब तक तो। कल एक दिन का ही अवकाश लेना होता।’’
‘‘क्या फर्क पड़ता है एक या दो दिनों में। तुमने अपना सामान जमा लिया?’’
‘‘हां, इस बेग में। दो जोड़े पहिनने के कपड़े है बस।’’
‘‘और चाहिए भी क्या? आओ, चलते हैं। पहुंचते हुए शाम हो जायेगी।’’
‘‘ठीक कर रही हो तुम।’’
‘‘वहां करना भी क्या है, आराम से होटल के कमरे में सोयेंगे चलकर। सुबह साढ़े नौ बजे तक यूनिवर्सिटी पहुंचना है। दो घंटे लगेंगे। वहां अधिक से अधिक । उसके बाद सीधे अपने शहर लौट आयेंगे, अब चलो।’’
यामिनी ने मेरा बेग उठा लिया। ‘‘तुम ताला लगाकर कार तक आओ, मैं चल रही हूं।’’
‘‘बेग तो रहने दो, मैं ले आऊंगा।’’
‘‘तुम आओ, पूरी तरह सुरक्षित है मेरे पास यह।’’
‘‘घर के ताला लगा आता हूं।’’ यामिनी कार में बैठी मेरा इंतजार कर रही थी। ड्राईवर सीट खाली थी। कुछ पूछता-सा उसकी ओर देखता हूं।
‘‘आ भी जाओ, तुम्हीं ड्राइव करो। हाई-वे के ट्रेफिक से टेंशन हो जाता है मुझे।’’
कार स्टार्ट कर राजा साइकिल चौराहे पर बने नये पुल से सी.आर.पी.एफ. रोड से होता जयपुर हाई-वे पर निकल आता हूं, कार अपनी तेज गति से चल रही थी। यामिनी के चेहरे पर थकान साथ दिखाई दे रही थी। देर रात और आज सारा दिन ही समझो, अपने रिसर्च के काम को पढ़ती और समझती रही थी। आधा रास्ता तय कर लिया था हमने। यामिनी को नींद-सी आने लगी। बार-बार उसका सिर मेरे कंधे से टकराता, फिर संभलती-सी बैठ जाती।
घड़ी देखती है, ‘‘नौ बज रहे हैं। फिर भी जल्दी आ गये हैं हम। तुम कार बहुत तेज चलाते हो। परेश, नींद-सी आ रही है। पूरी रात और सारा दिन पढ़ती रही। आगरा रोड पर बने होली-डे इन होटल चलना है। वही अपनी बुकिंग है।’’
‘‘हां देखा है। पहले भी गया हूं उसमें।’’
‘‘अच्छा है, तुम जानते हो। यहीं से लेफ्ट ले लो।’’
बायें मुड़ होटल के दरवाजे पर पहुंचकर गाड़ी रोकी। यामिनी दोनों हाथ ऊपर कर सीट के सहारे अपने कंधो को तेजी से हिला रही थी। थकान से उबार रही थी खुद को। गाड़ी के हल्के-से तेजी से झटके से रूकने पर आँखें खोल देखती है, कार का दरवाजा खोल बाहर निकलती है। होटल का वेटर कार के पास आ पंहुचा।
‘‘परेश, इसको चाबी दे दो। यह गाड़ी पार्क कर सामान ले आयेगा। वेटर सामान दो सौ नम्बर में ले आना।’’
‘‘मालूम है मेम साहब। आप चलिये मैं आ रहा हूं।’’
होटल के रिसेप्शन से चाबी ले लिफ्ट से कमरे की ओर जा पंहुचे। यामिनी ने दरवाजा खोला। कंधे से पर्स को निकाल सोफे पर रख दिया और बैठ गई। वेटर सामान रख बाहर चला गया। यामिनी सोफे से उठ अपने बेग से कुछ कपड़े, टिफिन निकाल टेबल पर रख देती है।
‘‘परेश, तुम्हारे लिये परांठे लाई हूं, तुम खा लो तब तक मैं प्रâेश होकर आती हूं।’’
‘‘तुम आ जाओ। फिर साथ ही खा लेंगे।’’
‘‘मुझे भूख नहीं है। दो कप चाय के लिए रिसेप्शन पर जरूर कह दो बस।’’
कहती हुई यामिनी टेबल से कपड़े उठा बाथरूम की ओर चल दी। चाय का कहकर अपने लिए लाये परांठे खाने लगा, कुछ देर में यामिनी बाथरूम से बाहर आ गई। चाय भी आ चुकी थी। तौलिया कुर्सी के कंधों पर सुखा बिस्तर पर लेट गयी। अपना भोजन समाप्त कर मैं भी बाथरूम में जा प्रâेश हो रात्रि के लिए कपड़े पहनकर बेड पर बैठ जाता हूं।
‘‘यामिनी, चाय ले लो।’’
‘‘तुम्हीं दे दो।’’
कप में चाय डाल देता हूं। दो-तीन बार में ही कप की चाय खत्म कर बेड पर पैर फैला कर लेट गयी है। अपनी चाय खत्म कर मैं भी बेड पर जा उसके पास लेट जाता हूं।
यामिनी ने फालसे रंग का एकदम झीना, पारदर्शी स्लीवलैस गाउन पहन रखा था। निढ़ाल मेरी ओर करवट लिये लेटी रही वह।
‘‘परेश लाईट बंद कर दो। नींद आ रही है मुझे। तुम भी सो जाओ। ड्राइविंग करने से थकान हो गई होगी। मेरे हाथ को अपनी ओर खींचते हुए फिर कहती है, सो भी जाओ ना।’’
बेड के पीछे दीवार पर लगे स्विच से लाइट्स बंद कर देता हूं। हल्की दूधिया रोशनी जरूर कमरे में है। यामिनी, तकिये को अपनी एक बांह से दबाये सा रही है। उसके उभार मेरी आँखों में चुभने लगते हैं। अपना एक हाथ उसके कंधे पर धीरे से रख देता हूं। अच्छा लगता है, उसकी ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं है। उसकी गौर देहयष्टि को ऊपर से नीचे कई बार देख चुका हूं। उसके शरीर से नहाकर आने के बाद लगाई मादक परफ्यूम की खुशबू मेरे दिमाग में जम सी गई है, यह सोचकर मन अधिक स्वतंत्रता चाहने लगा है। अपने शरीर को उसके पास ले जा अपनी दोनों बांहों में उसे भर लेता हूं। इस पर भी कोई विरोध नहीं उसकी ओर से। यामिनी ने भी मुझे अपनी बांहों में जोर से बांध लिया है।
कुछ देर इसी हाल में सोये रहे। ध्यान जाता है तेज थकान की वजह से बेसुध मेरी बांहों में सो रही है वह। मेरा अपने शरीर, मन पर कैसा भी नियंत्रण नहीं रह गया है। उसके उभार मेरे सीने में अजीब सी हलचल पैदा कर रहे है। महसूस कर रहा हूं, उसे भी अच्छा लग रहा है। इस हाल में सोये हमें काफी देर हो चुकी है।
इस बार वह करवट बदलने की गरज से जागी है। खुद को मेरी बांहों में पाकर हड़बड़ा जाती है। तेज गुस्से में कहती हैं, ‘‘परेश। यह सब क्या हो रहा है। इसलिये साथ आये थे तुम मेरे। ठीक से सो जाओ, तुम कहो तो मैं सोफे पर जा लेटती हूं।
‘‘यामिनी, ऐसे नहीं। आराम से सो जाओ तुम।’
मेरी बात को सुनी - अनसुनी कर दूसरी ओर करवट बदल सो गई वह।
पूरी रात, उसका एक - एक क्षण पल गुजारना अच्छा नहीं लग रहा था मुझे। वह रात कितनी लम्बी हो गई थी मेरे लिए। सुबह देर बाद नींद आ गई थी मुझे।
आँख खोल देखता हूं दीवार घड़ी की ओर, ग्यारह बज रहे हैं। यामिनी बिना मिले, कुछ कहे यूनिवर्सिटी चली गई है। बीती रात का अच्छा - बुरा हर पल, दृश्य मेरी आँखों में स्थिर हो चला हैं। आवाक् हूं मैं।

प्रफुल्ल प्रभाकर

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