महज संयोग की बात है कि मई महीने में ही वैशाख पूर्णिमा एवं कार्ल मार्क की जयंती दोनों आ रही हैं, लेकिन अधिक रोचक है इन दोनों के विचारों की तारतम्यता:
आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व - एक दंभी ब्राह्मण जिसे घमंड है अपने ज्ञान और साधना का ... बुद्ध को चुनौती दे रहा है, ‘हे तथागत! कोई भी प्रश्न करें; मै तर्कों से उसे काट दूंगा, यदि नहीं काट सका तो निश्चय ही आपकी शरण में भिक्षु होना स्वीकार करूंगा।’
बुद्ध सहज मुस्कान के साथ प्रश्न करते हैं, ‘हे आर्य! क्यों न ऐसा एक संसार बने जहां दुख, तृष्णा और कष्ट शून्य हो, जहां एक ही तट पर बकरी और शेर पानी पिएं, जहां चारों ऋतु हरियाली हो।’
न जाने क्या सोचकर अश्वघोष की आंखों से आंसू फूट पड़ते हैं, और कालांतर में वही अभिमानी ब्राह्मण भिक्षु बनकर बुद्धचरित नमक ग्रन्थ लिखते हैं।
दूसरा दृश्य आज से महज सौ साल पुराना है, रूस विश्वयुद्ध की दहलीज पर है, जर्मनी (प्रशा), एवं का दवाब भी है, लेकिन यहां की शोषित जनता इन वैश्विक खतरों को भूलकर आज सरिये, कुदाल लेकर जार का महल तोड़ने में लगी है, यही दिन बोल्शेविको की क्रांति के रूप में जाना जाएगा।
पहले दृश्य में अहिंसा का उच्चतम अस्तर वही दूसरे में मात्र हिंसा.. प्रथम दृष्टया यह दोनों विरोधाभासी लग रहे होंगे, इन दृश्यों को अभी यहींr छोड़ देते हैं। आइंस्टाइन की थ्योरी ऑफ रिलेटिविटी कहती है कि संसार की समस्त गतिविधियां एक दूसरे के परस्पर सापेक्ष्य हैं, जैसे यदि हम गतिमान हैं तो निश्चित ही निर्देश तंत्र की कोई वस्तु या तो हमसे कम गतिमान है अथवा स्थिर है, विलोमतः यदि हम स्थिर हैं तो निर्देश तंत्र की वस्तुएं हमसे तीव्र गति से चल रही हैं। इस सिद्धांत के अनुसार अहिंसा का अस्तित्व हिंसा से है, दया का अस्तित्व निष्ठुरता से है, अमीरी है क्योंकि गरीबी है।
तो फिर सच क्या है; कौन सा विकल्प चुना जाए, अश्वाघोष के आंसू जो सकल कल्याण की करुणा से फुट पड़े वो सच है या फिर उस सर्वहारा जनसमूह के द्वारा महल पर सशक्त आघात। यदि इन दोनों ही स्थितियों की विवेचना की जाए तो प्राप्त होगा कि अश्वगोश के आंसू भी उस शसक्त प्रहारवश ही जन्में हैं जो बुद्ध की वाणी ने उनके अहंकार के ऊपर किया है, तथा महलों में हो रही कठोर चोटें उन आंसुओं का परिणाम है जो जार की विलासिता के कारण ब्रेड खरीदने में असमर्थ रूस की जनता के बहे हैं। एक तरफ बुद्ध ने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र को मात्र मनुष्य समझकर गले लगाया, अपनाया, बंधन मिटाया तो वहीं मार्क्स के विचारों ने रूस के फैले एकमात्र कैथोलिक आर्थोडॉक्स धर्म तथा वहां रहने वाले मात्र सिर्फ एक नृजातीय समूह ‘स्लावो’ के बीच स्थापित हो गए आर्थिक असमानता के अस्तरों को तोड़ दिया।
तो क्या संवेदना की शिक्षा देना और हिंसा/संघर्ष करने की शिक्षा देना सामान है?
क्या इन दोनों के परिणाम भी समान ही हैं?
क्या ये दोनों मार्ग एक ही लक्ष्य की ओर ले जाते हैं?
पहले एवं दूसरे प्रश्न का उत्तर है `नहीं', जबकि तीसरे प्रश्न का उत्तर है `हां'। दोनों की शिक्षाएं, बताए मार्ग अलग अलग हैं क्योंकि जहां बुद्ध का मार्ग आध्यात्मिक उन्नति और स्व में परिमार्जन करते हुए आष्टांगिक मार्गों और दस शीलों के पालन की बात कहता है, स्वयं का नजरिया बदलकर उसमें सुधार की बात कहता है; बुद्ध आत्म की बात करते हैं जिसके परिणाम स्वरूप व्यक्ति सांसारिक तृष्णा से मुक्ति पता है, यदि बुद्ध के रास्ते पर पूरी शुद्धता से चला जाए तो निश्चय ही परिनिर्वाण प्राप्त किया जा सकता है, या संसार से मुक्ति पाई जा सकती है, जबकि मार्क्स का रास्त एकात्मिक न होकर सामूहिक है जिसमें वर्ग संघर्ष का रास्त समाज को स्वयं में संगठित होकर अपनाना पड़ता है एवं इसके परिणाम भी व्यक्तिगत न होकर सामूहिक ही होते हैं संसाधन के वितरणों में समानता आती है, सामाजिक आर्थिक विभेद समाप्त हो जाते हैं।
लेकिन इन मार्गो का एवं इनके द्वारा प्राप्त परिणामों का लक्ष्य क्या है क्या ये स्वयं में पूर्ण है, इस संदर्भ में इनका लक्ष्य एक ही है ‘कि एक ही घाट पर बकरी और शेर पानी पिएं - यानी एक ही संसाधन का सभी जातियों सभी वर्ग समान रूप से उपयोग करें; हर तरफ हरियाली हो - यानि समाज के सभी वर्गों के पास उपयुक्त आर्थिक स्रोत मौजूद हों; तृष्णा, कष्ट से मुक्त हो संसार - यानी विश्व में भूख और गरीबी की समाप्ति हो।
विश्लेषणोप्रांत लक्ष्य भी एक ही है किन्तु पाया क्यों न जा सका; बुद्ध की शिक्षाओं को मनाने वाले गणतंत्रों को क्यों बड़े महाजनपदों ने रौंद दिया। चौरासी हजार स्तूपों के ऊपरांत भी क्यों बुद्ध की शिक्षा जीवन में हूबहू नहीं उतारी जा सकी; आश्चर्यजनक यह भी है कि क्यों मार्क्सवादी संघर्ष अपनाने के बाद भी रूस आज भी आदर्श समाजवाद के आसपास भी नहीं है, इसका उत्तर है कि ये दोनों ही एक दूसरे के पूरक हैं भले ही इन विचारों और विचारकों के उत्पन्न होने के बीच दो हजार साल से अधिक का अंतर है फिर भी ये एक दूसरे बिना अधूरे हैं।
यदि सामाजिक वर्ग संघर्ष एक क्रांति है तो विचारों को अध्यात्म की तपिश में परिशुद्ध कर लेना भी उतनी ही बड़ी क्रांति है।
आज जहां जमाना सामाजिक अधिकारों की होड़ में मात्र सत्ता, सत्ताधीश, कानून, शासन का तरीका बदलता रहेगा तब भी उसे कमी खेलेगी वैयक्तिक नैतिकता एवं परिशुद्धता की।
मार्क्स का रास्ता जहां अतिआदर्शवाद की ओर ले जाता है वहीं बुद्ध के मध्यममार्ग के द्वारा उसकी कठिनाई एवं जटिलता को समन्वित किया जा सकता है।
आज का युग अंधकार की तरफ पतंगे की की तरह भाग रहा है क्योंकि अंधकार में भी एक मादक चमक छोड़ दी गई है जो रोशनी से मिलती जुलती है, लेकिन ये चमक ये प्रकाश भ्रम निर्मित झूठी चीजें ही दिखता है, जहां आज बुद्ध की चेतना सदृश उपदेशों का व्यक्ति को गुमराह करने में उपयोग किया जा रहा है, अवचेतन मन को किसी कुत्ते की भांति केवल इस चीज के लिए ट्रेन किया जा रहा है कि वो अभ्यस्त हो जाए तुम्हारे लिए भौंक सके, तुम्हारी चीजें नींद में भी खरीद सकें, इस सोची समझी लालच, कायरता, पथभ्रष्ट मानसिकता के खिलाफ मार्क्स के विचारों से मेल खाती एक क्रांति की जरूरत है, ऐसी जो छीन वापस दिलासके तुम्हे ही तुम्हारे मन का अधिकार, पर इस क्रांति की जरूरत समझ आए, इसके लिए करनी होगी एक और क्रांति, एक वैचारिक क्रांति, संयम के मार्ग पर चलने वाली क्रांति जिससे हम इतने योग्य बन सके कि क्रांति से जन्मे अवसर और मिले अधिकारों का मानवता की सेवा में उपयोग कर सकें।
अगर ये जमाना जो छीनता है तुम्हारे अधिकार,
करता है तुम्हें मजबूर पुरानी लीक में चलने पर,,
की जो वो कहे बस वही करते रहो,
दिखता है सपने मीठे कि बस सोते ही रहो,,
दबाता है तुम्हारे विचार, तुम्हारी सोच, तुम्हारी आजादी,
तो कूद पड़ो खाट से झटक ये मोटी रजाई,,
उठ गए हो स्वप्न से, तो ये सत्य अब कड़वा लगेगा,
जो पहर दिन के गए बीते, काम उनका भी रहेगा,,
कर सको विलाप, ऐसा ही तुम्हारा मन करेगा,
पर मुस्कुराना, जागने की इस खुशी को तुम मनाना,,
लीन होना तुम पुनः इक साधना में,
नींद जिसको समझता होगा जमाना,,
साधना की शक्ति से जब तृप्त होकर,
ख़टखटाओगे दुबारा जब ये जमाना,,
तो दूर से ही नजर में सब साफ होगा,
दिख रहे होंगे तुम्हारे जैसे सोते,,
खाट से पटा पड़ा चौगान होगा,
प्यार से स्पर्श करके नींद उनकी खोल देना,,
सीखा है जो साधना से कान में वो फूंक देना,
सब उठ खड़े होंगे मचलते थरथराते,,
कूच होगी और भागेगा जमाना,
जो जमाना था नींद की गोली बनाता,,
सजा उसको ध्यान से अब तुम सुनना,
सजा ऐसी हो कि जिसमें न्याय हो सम्मान हो,,
भले बोलें सब तुम्हारी, पर भी दया का ध्यान हो,
पलट देना ये तख्ते, बस भुजा का खेल है,,
पर करो तख़त में काम ऐसा,चैन हो बस चैन हो।।
अभिषेक पाण्डेय
सीधी, म.प्र.