‘हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।
मेरे सीने में नहीं तो तेरे साइन में सही
हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए'
उर्दू के साये से निकालकर ग़ज़ल को हिंदी की नई शैली में ढालने वाले महा कवि और लेखक दुष्यंत कुमार को हिंदी ग़ज़ल का जनक भी कहा जाता है, क्योंकि उन्होंने उर्दू ग़ज़ल शैली को हिंदी साहित्य में बड़ी सफलता से समाहित किया। उर्दू ग़ज़ल की परंपरा को हिंदी में लाकर उन्होंने इसे आम लोगों तक पहुँचाया।
प्रारंभिक जीवन :
बिजनौर के राजपुर नवादा गांव में एक साधारण किसान परिवार में जन्मे दुष्यन्त कुमार जब हाईस्कूल में पहुंचे, तब से ही साहित्यिक रचनाएँ करने लगे। जब ये इण्टरमीडिएट में आये तब इनकी शादी राजवती कौशिक से हुई। आगे की पढ़ाई के लिए दुष्यन्त कुमार ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में दाखिला लिया जहाँ इनकी मित्रता हिंदी साहित्य के प्रसिद्ध लेखक कमलेश्वर से हुई।
आकाशवाणी से जुड़ाव और भोपाल में कार्यकाल
साहित्यिक जीवन के साथ ही दुष्यंत कुमार का पेशेवर जीवन भी महत्वपूर्ण था। उन्हें आकाशवाणी में नौकरी मिली, और वे मध्य प्रदेश के भोपाल में स्थानांतरित हो गए। आकाशवाणी में काम करते हुए भी उन्होंने अपनी लेखनी जारी रखी। भोपाल में रहते हुए उन्होंने अपनी साहित्यिक पहचान को और भी विस्तारित किया। आकाशवाणी के संपर्क ने उन्हें देशभर के साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों से जोड़ दिया।
हिंदी ग़ज़ल का नवोन्मेष:-
हिंदी ग़ज़ल को साहित्यिक मंच पर स्थापित करने में दुष्यंत कुमार का बड़ा योगदान रहा उस समय ग़ज़ल को उर्दू साहित्य का हिस्सा माना जाता था। ग़ज़ल की अधिकतर रचनाएँ उर्दू में ही की जा रही थीं। लेकिन दुष्यंत कुमार ने इसे हिंदी में लिखकर जन-जन तक पहुँचाया। उनकी ग़ज़लें न केवल हिंदी साहित्य में नवीनता लेकर आईं, बल्कि वे हिंदी ग़ज़ल के जनक माने जाने लगे। उनकी रचनाएँ आसान भाषा में थीं।
दुष्यन्त कुमार की सबसे लोकप्रिय कृति `साये में धूप' ने हिंदी ग़ज़ल को एक नई पहचान दी। इसमें उन्होंने हिंदी और उर्दू की अनुपम शैली प्रस्तुत की जो आम जनमानस और लेखकों को बहुत पसंद आई। इस काव्य संग्रह समाज के माध्यम से उन्होंने समाज विद्रूपताओं और राजनीतिक भ्रष्टाचार को उजागर किया। इसकी छवि हम इसमें शामिल कुछ पंक्तियों से देख सकते हैं-
‘कहाँ तो तय था चराग़ां हर एक घर के लिए,
कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए।’
हालाँकि दुष्यन्त कुमार ने हिंदी में ग़ज़ल लिखते समय ये ध्यान रखा कि हिंदी ग़ज़ल लिखते समय ऐसा न हो कि उसकी भाषा इतनी क्लिष्ट हो जाये कि उसे समझने के लिए हिंदी शब्दकोष साथ रखना पड़े। उन्होंन ऐसे शब्द प्रयुक्त किये जो उर्दू के तो थे लेकिन आम बोलचाल की भाषा मे सहज ही रच बस गए थे।
एक बार उन्होंने ने कहा था कि ‘की मेरे पास शहर के स्थान पर नगर लिखते का विकल्प था और दोनों की तुकबंदी भी लगभग समान है। लेकिन मैंने ऐसा नहीं किया। मैंने जनहित शब्दों का प्रयोग किया जो आम बोलचाल के थे'।
अंतर्मन को झिंझोड़ती दुष्यंत कुमार की रचनाएं
दुष्यंत कुमार भारतीय साहित्य के ऐसे कवि हैं, जिन्होंने अपनी रचनाओं से न केवल समाज के रूढ़िवादी और जातिपाँति के ताने-बाने पर प्रहार किया, बल्कि पाठकों के अंतर्मन को भी झिंझोड़ा। उनकी रचनाओं में सामाजिक चेतना, राजनीतिक विद्रोह, और व्यक्तिगत पीड़ा का ऐसा समायोजन है, जो मनुष्य के अंतर्मन को भीतर तक छू लेता है। उनकी कविताओं और ग़ज़लों में एक ऐसी कसक है, जो आत्मा की गहराइयों तक पहुँचती है और पाठक को आत्मावलोकन की स्थिति में ला खड़ा करती है।
आम आदमी की पीड़ा-
दुष्यंत कुमार का अपने साहित्य से उस आदमी की आवाज बनते हैं जो समाज के अंतिम पायदान पर खड़ा हैं। उन्होंने आम आदमी की वेदनाओं, संघर्षों और उनके असहायपन को अपनी ग़ज़लों में जीवंत कर दिया। अपनी रचनाओं से वे एक मजदूर, गरीब, स्त्री, युवा सबकी पीड़ा का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिन्हें शासन, व्यवस्था, और समाज की जड़ताओं का
सामना करना पड़ता है।
`मुझमें रहते हैं करोड़ों लोग, छुओ कैसे रहूं
हर ग़ज़ल अब सल्तनत के नाम एक बयान है।'
उनके इस शेर में आम आदमी की असंवेदनशीलता के लिए भी उन्होंने खूब लिखा। निम्न पंक्तियां इसे बखूबी दर्शाती है।
`इस शहर में वो कोई बारात हो या वारदात,
अब किसी भी बात पर खुलती नहीं हैं खिड़कियाँ।'
यह शेर समाज के उस बदलते रवैये की ओर इशारा करता है, जहाँ लोगों की संवेदनाएँ मर चुकी हैं और उन्होंने खुद को एक ऐसे खोल में बंद कर लिया है, जहाँ वे दूसरों की तकलीफों से बेपरवाह हो गए हैं। इस प्रकार, दुष्यंत की रचनाएँ पाठकों के अंतर्मन में दबे हुए मानवीय मूल्यों को फिर से जगाने का काम करती हैं।
आशा और निराशा की द्वंदात्मक शैली:
दुष्यंत कुमार की रचनाओं में आशा और निराशा का अनूठा मिश्रण है। जहाँ एक ओर वे समाज की समस्याओं और राजनीतिक विफलताओं पर व्यंग्य करते हैं, वहीं दूसरी ओर वे उम्मीद का एक दीया भी जलाते हैं। उनकी कविताएँ अौर ग़ज़लें एक नई सुबह की कामना करती हैं, जहाँ न्याय, समानता और स्वतंत्रता का राज हो।
उनका यह प्रसिद्ध शेर इस द्वंद्व को स्पष्ट करता है:
कौन कहता ही कि आसमां में सूराख़ नहीं हो सकता ।
एक पत्थर तो तबीअत से उछालो यारो।।
समाज और राजनीति पर तंज करती कलम-
दुष्यंत कुमार की कविता में सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर बेहद पैनी दृष्टि थी। उन्होंने अपनी कविताओं के माध्यम से तत्कालीन समाज की समस्याओं, भ्रष्टाचार, शोषण, और अन्याय के खिलाफ आवाज उठाई। उनकी रचनाओं में समाज के प्रति गहरी चिंता और जिम्मेदारी दिखाई देती है। वह आम जनता की आवाज़ को अपनी कविताओं के माध्यम से व्यक्त करने में सफल रहे। उनकी कविताएँ और ग़ज़लें राजनीतिक अस्थिरता और प्रशासनिक ढांचों की कमजोरियों पर व्यंग्य करती हैं। वह अपने समय के अत्याचार और शोषण के खिलाफ अपने कलम का उपयोग एक हथियार के रूप में करते थे।
प्रयोगवाद और छायावाद का मिश्रण:-
दुष्यंत कुमार ने अपनी गजलों में प्रयोगवाद और छायावाद का बेहतरीन मिश्रण किया। उन्होंने पारंपरिक गजल की शैली को तोड़ते हुए एक नई शैली का विकास किया।
सामाजिक चेतना:-
उनकी गजलों में समाज के विभिन्न मुद्दों पर गहराई से विचार किया गया है। उन्होंने समाज में व्याप्त कुरीतियों, असमानता और अन्याय के खिलाफ आवाज उठाई।
आधुनिकता का स्पर्श: दुष्यंत कुमार की गजलों में आधुनिकता का स्पर्श साफ झलकता है। उन्होंने अपनी गजलों में शहर के जीवन, तकनीक और बदलते हुए समाज का वर्णन किया।
सत्ता के दुरुपयोग पर व्यंग्य:-
`कहाँ तो तय था चिरागाँ हरेक घर के लिए,
कहाँ चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए' -
इन पंक्तियों में उन्होंने राजनेताओं के खोखले वादों और जनता की असली समस्याओं के बीच के अंतर को उजागर किया है।
`यहाँ तक आते-आते सूख जाती हैं कई नदियाँ,
मुझे मालुम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा'
इस पंक्ति में उन्होंने भ्रष्टाचार और कुप्रबंधन के कारण प्राकृतिक संसाधनों के दोहन को दर्शाया है।
सामाजिक असमानता पर व्यंग्य:-
`भूख है तो सब्र कर, रोटी नहीं तो क्या हुआ,
आजकल दिल्ली में है ज़ेरे बहस ये मुद्दाआ' -
इस पंक्ति में उन्होंने गरीबों की पीड़ा और सत्ताधारी वर्ग की उदासीनता को उजागर किया है।
‘इस सड़क पर इस कदर कीचड़ बिछी है,
हर किसी का पाँव घुटने तक सना है' -
इस पंक्ति में उन्होंने समाज में व्याप्त भेदभाव और असमानता को दर्शाया है।
३. भ्रष्टाचार पर व्यंग्य:
`कभी कश्ती, कभी बतख, कभी जल,
सियासत के कई चोले हुए हैं' -
इस पंक्ति में उन्होंने राजनेताओं के पाखंड और ढोंग को बेनकाब किया है।
उनकी कुछ प्रसिद्ध पंक्तियां इस प्रकार हैं-
रोज अखबार में पढ़कर ये ख्याल आया हमें,
इस तरफ आती तो हम भी देखते फ़सले बहार।
रौनके जन्नत जरा भी मुझको रास आयी नहीं,
मैं जहन्नुम में बहुत खुश था मेरे परवरदिगार।।
पक गईं हैं आदतें, बातों से सर होगी नहीं,
कोई हंगामा खड़ा करो, ऐसे गुजर होगी नहीं।।
जिस तरह चाहो बजाओ इस सभा में,
हम नहीं हैं आदमी, हम झुनझुने हैं।।
कल नुमाइश में मिला था, वो चिथड़े पहने हुए,
मैंने पूछा नाम तो बोला कि हिंदुस्तान है।
बहुत बुरी हालत है डिब्बे में
बैठे हुओं को
हर खड़ा हुआ व्यक्ति शत्रु
और खड़े हुओं को बैठा हुआ बुरा लगता है
पीठ टेक लेने पर
मेरे मन में भी
ठीक यही भाव जगता है
मैं भी धक्कम धूँ में
हर आने जाने वाले को
क्रोध से निहारता हूँ
सहसा एक और अजनबी के बढ़ जाने पर
उठकर ललकारता हूँ।
उपयोगितावाड़ी भ्रष्ट संस्कृति पर करारा प्रहार-
आज के आधुनिक दौर में जिस प्रकार संतानें माता पिता पर जब तक आश्रित रहते हैं तब तक उनके साथ रहते हैं। उनकी संपत्ति, उनकी खून पसीने से कमाई हुई पूंजी का दोहन पर लिखते हैं, कामयाब होते हैं, और उनकी ढलती उम्र में उनको लाचार और अकेला छोड़ देते हैं। इस पर उन्होंने अपनी लेखनी से तीखे व्यंग्य किये।
ऊपर उठने का इरादा हो गर पक्का,
तो दो माँ-बाप को कुँए में धक्का
उगने वाली इस तहजीब के करिश्मे
जग देखे एकदम होकर हक्का बक्का।
आपातकाल के समय उनकी रचनाएँ (१९७५)-
भारत में आपातकाल (१९७५-७७) का दौर चल रहा था, जब दुष्यंत कुमार की रचनाएँ जनता और शासन के बीच उत्पन्न असंतोष की आवाज़ बन गईं। उनकी कविताएँ और ग़ज़लें उस समय के राजनीतिक भ्रष्टाचार और अन्याय के खिलाफ एक सशक्त माध्यम बनीं। यह समय उनके साहित्यिक करियर का चरम था, जहाँ उनकी रचनाएँ आम आदमी की वेदनाओं को अभिव्यक्त करने लगीं।
दुष्यंत कुमार का स्वास्थ्य उनके जीवन के अंतिम वर्षों में लगातार खराब होने लगा था। ४२ वर्ष की अल्पायु में, ३० दिसंबर १९७५ को उनका निधन हो गया। यह हिंदी साहित्य के लिए एक बड़ा धक्का था, क्योंकि इतनी कम उम्र में ही उन्होंने साहित्य में जो योगदान दिया, वह अद्वितीय था। उनकी असमय मृत्यु ने साहित्यिक जगत में एक बड़ा खालीपन छोड़ दिया। लेकिन आज भी जब जनहित के मुद्दों पर कोई आंदोलन चाहे संसद में हो या सड़क पर दुष्यन्त कुमार हर मंच पर अपनी ग़ज़लों के रूप में जीवित और सत्ता से आँख मिलाकर खड़े मिलते हैं।
राज सिद्धार्थ