स्वातंत्र्य वीर : विनायक दामोदर सावरकर

सन १९०१ में ही उनका विवाह यमुनाबाई से हुआ। मैट्रिक की पढ़ाई पूर्ण करके उन्होंने पुणे के फर्ग्यूसन कॉलेज से बी.ए. किया ।१९०४ ईस्वी में उन्होंने क्रांतिकारी विचारों से प्रभावित होकर `अभिनव भारत' नामक एक क्रांतिकारी संगठन की स्थापना की ।१९०५ ईस्वी में बंगाल विभाजन के बाद उन्होंने पुणे में विदेशी वस्त्रों की होली जलाई। फर्ग्यूसन कॉलेज पुणे में भी में राष्ट्रभक्ति से ओत-प्रोत ओजस्वी भाषण देते थे। बाल गंगाधर तिलक के अनुमोदन पर १९०६ ईस्वी में उन्हें श्याम जी कृष्ण वर्मा छात्रवृत्ति मिली।

May 29, 2025 - 17:54
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स्वातंत्र्य वीर : विनायक दामोदर सावरकर
Freedom fighter: Vinayak Damodar Savarkar
भारत की क्रांतिकारी स्वतंत्रता सेनानी, चिंतक, समाज सुधारक, इतिहासकार ,ओजस्वी वक्ता राजनीतिज्ञ विनायक दामोदर सावरकर का जन्म २८ मई १८८३ ई. को महाराष्ट्र में नासिक के निकट भागुर नामक ग्राम में हुआ था उनकी माता जी का नाम राधाबाई तथा पिताजी का नाम दामोदर पंत सावरकर था इनके दो भाई गणेश व नारायण दामोदर सावरकर तथा एक बहन नैनाबाई थी। जब सावरकर केवल ९ वर्ष के थे तभी हैजा की महामारी में उनकी माता का निधन हो गया इसके ७ वर्ष बाद सन १८९९ ईस्वी में प्लेग की महामारी में उनके पिताजी की भी मृत्यु हो गई। इसके बाद विनायक के बड़े भाई गणेश ने परिवार के पालन पोषण का कार्य संभाला। विनायक ने १९०१ ईस्वी में मैट्रिक की परीक्षा पास की। सन १९०१ में ही उनका विवाह यमुनाबाई से हुआ। मैट्रिक की पढ़ाई पूर्ण करके उन्होंने पुणे के फर्ग्यूसन कॉलेज से बी.ए. किया ।१९०४ ईस्वी में उन्होंने क्रांतिकारी विचारों से प्रभावित होकर `अभिनव भारत' नामक एक क्रांतिकारी संगठन की स्थापना की ।१९०५ ईस्वी में बंगाल विभाजन के बाद उन्होंने पुणे में विदेशी वस्त्रों की होली जलाई। फर्ग्यूसन कॉलेज पुणे में भी में राष्ट्रभक्ति से ओत-प्रोत ओजस्वी भाषण देते थे। बाल गंगाधर तिलक के अनुमोदन पर १९०६ ईस्वी में उन्हें श्याम जी कृष्ण वर्मा छात्रवृत्ति मिली। इंडियन सोशियोलॉजिस्ट और तलवार नमक पत्रिकाओं में उनके अनेक लेख प्रकाशित हुए जो कालांतर में युगांतर पत्र में भी छपे। सावरकर रूसी क्रांतिकारियों से अत्यंत प्रभावित थे ।१० मई १९०७ ईस्वी को उन्होंने इंडिया हाउस लंदन में प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की स्वर्ण जयंती मनाई, इस अवसर पर उन्होंने अपने ओजस्वी भाषण से प्रमाणों सहित १८५७ के संग्राम को गदर नहीं अपितु भारत के स्वतंत्रता का प्रथम संग्राम सिद्ध किया। जून १९०८ ईस्वी में उनकी पुस्तक `द इंडियन वॉर ऑफ इंडिपेंडेंस :१८५७ तैयार हो गई परंतु इसके मुद्रण की समस्या आई इसके लिए लंदन से लेकर पेरिस और जर्मनी तक प्रयास किए गए, किंतु वे सभी प्रयास असफल रहे। बाद में पुस्तक किसी प्रकार गुप्त रूप से हॉलैंड से प्रकाशित हुई और इसकी प्रतियां प्रâांस पहुंचाई गई। इस पुस्तक में सावरकर ने १८५७ के सिपाही विद्रोह को ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध स्वतंत्रता की पहली लड़ाई बताया। मई १९०९ ईस्वी में सावरकर ने लंदन से बार-एट-लॉ (वकालत) की परीक्षा उत्तीर्ण की परंतु उन्हें वहां वकालत करने की अनुमति नहीं मिली। सावरकर लंदन के इंडिया हाउस में अध्ययन के दौरान रहते थे उसे समय यह स्थान राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र था। सावरकर ने `प्रâी इंडिया सोसाइटी' का निर्माण किया जहां में अपने साथ ही भारतीय छात्रों को स्वतंत्रता के लिए लड़ने को प्रेरित करते थे। लंदन में ही उनकी मुलाकात लाला हरदयाल से हुई जो उन दिनों इंडिया हाउस की देखरेख करते थे। १ जुलाई १९०९ ई. को मदन लाल ढींगरा द्वारा विलियम कर्जन वायली को गोली मार दिए जाने के बाद उन्होंने लंदन टाइम्स में मदन के पक्ष में एक लेख भी लिखा । मदनलाल ढींगरा पर मुकदमा चला और डेढ़ महीने के अंदर ही उन्हें १७ अगस्त १९१९ ई को फांसी दे दी गई। इसी बीच नासिक में ब्रिटिश कलेक्टर आर्थर जैक्शन की हत्या में सावरकर का नाम आने की वजह से लंदन में उनकी मुश्किलें बढ़ गई थी। सावरकर को इस बात का अंदेशा था कि उन्हें जल्द ही गिरफ्तार कर लिया जाएगा। इसलिए वह लंदन से पेरिस चले गए थे। जब वह मार्च १९१० ईस्वी में लंदन वापस लौटे तो उन्हें विक्टोरिया स्टेशन से बाहर निकलते ही गिरफ्तार कर लिया गया था ।
 निलांजन मुखोपाध्याय अपनी पुस्तक--`आर.एस.एस आइकॉन ऑफ द इंडियन राइट में लिखते हैं-- प्रारंभ में अंग्रेजों ने यह विचार किया कि क्या सावरकर पर लंदन में मुकदमा चलाया जाए या भारत में? मुद्दा यह था कि अपराध नासिक में किया गया था। जबकि सावरकर इस समय इंग्लैंड में रह रहे थे।' अंतत: यह तय हुआ कि उन पर भारत में मुकदमा चलाया जाएगा तत्पश्चात उन्हें `फ्यूजिटिव क्यों ऑफेंडर्स एक्ट १८८१' के तहत भारत भेजने का फैसला किया गया। १ जुलाई १९१० ई को इंग्लैंड के टिलबरी बंदरगाह से एस.एस. मोरिया जहाज रवाना हुआ जिसमें सावरकर के साथ दो अंग्रेज अफसर सी .जे. पावर और स्कॉटलैंड यार्ड के एडवर्ड पार्कर के अतिरिक्त दो भारतीय हेड कांस्टेबल मोहम्मद सिद्दीक एवं अमर सिंह भी सवार थे। 'सावरकर इकोज प्रâॉम द फारगॉटेन पास्ट' मैं विक्रम संपत लिखते हैं-- पावर एवं पार्कर को जिम्मेदारी दी गई थी कि उनमें से एक लगातार सावरकर को अपनी नजर में रखेगा उनको ४ बर्थ का एक केबिन दिया गया था । रात को वे केबिन में अंदर से ताला लगा लेते थे। पार्कर एवं सावरकर निचली बर्थ पर लेटे थे जबकि पावर को सावरकर के ऊपर वाली सीट दी गई थी। सावरकर के सिर के ऊपर लगी बत्ती को रात भर जलाकर रखा जाता था । सावरकर को प्रâांस पहुंचने तक हथकड़ियां नहीं पहनाई गई थी उनको पहनने के लिए शार्टस और एक स्वेटर दिया गया था। सावरकर जब शौचालय जाते थे तो सुरक्षाकर्मी उन्हें दरवाजा नहीं बंद करने देते थे तथा शौचालय के दरवाजे को थोड़ा खुला रखा जाता था। जिब्राल्टर में कुछ समय रुकने के बाद ७ जुलाई को सुबह जहाज प्रâांस के बंदरगाह मार्सेयेज पहुंचा। 'सावरकर द टू स्टोरी ऑफ़ द फादर ऑफ़ हिंदुत्व' में वैभव्ा पुरंदरे लिखते हैं --जैसे ही जहाज एस.एस. मार्सेयेज बंदरगाह पर रुका। प्रâेंच पुलिस अफसर ऑनरी लेबलिया ने जहाज पर चढ़कर पार्कर को बताया कि इस संबंध में लंदन के पुलिस कमिश्नर का एक संदेश प्रâेंच पुलिस कमिश्नर को मिला है। लेबालिया ने पार्कर को हर तरह की सहायता देने का आश्वासन दिया और बंदरगाह पर तैनात दूसरे प्रâेंच पुलिस अधिकारियों से परिचय भी कराया। सरकारी ब्रिटिश दस्तावेजों के अनुसार ८ जुलाई को सावरकर सुबह ६:०० बजे उठे और पार्कर से कहा कि क्या वे शौचालय जा सकते हैं ?पार्कर उन्हें शौचालय की ओर ले गए और उन्होंने दोनों भारतीय कान्स्टेबलों सिद्दीकी और अमर सिंह से उनके पीछे आने और सावरकर पर नजर रखने के लिए कहा और अपने केबिन की तरफ लौट आए।
वैभव पुरन्दरे अपनी पुस्तक में लिखते हैं-- अमर सिंह ने शौचालय में झांक कर देखा दरवाजे के नीचे की तरफ भी एक छेद था जहां से उन्हें चप्पल दिखाई दे रही थी, मानो उन चप्पलों को पहनने वाला कमोड पर बैठा हो। पूरी तरह से निश्चिंत होने के लिए अमर सिंह ने शौचालय के अंदर का नजारा देखने की कोशिश की, वहां उसने जो देखा उसे देखकर उसके होश उड़ गए सावरकर एक छोटे छेद से बाहर निकालने की कोशिश कर रहे थे उनका आधा शरीर बाहर भी निकल चुका था अमर सिंह चिल्लाया और शौचालय का दरवाजा खोलने के लिए दौड़ा कब तक सावरकर छेद से सरक कर पानी में कूद चुके थे। डेक पर मौजूद एक गार्ड ने पानी में कूदते हुए सावरकर पर गोलियां भी चलाई लेकिन सावरकर गोलियों से बच निकलने में कामयाब रहे। सावरकर कुछ दूर तैरे फिर जमीन पर पहुंचकर उन्होंने दौड़ना प्रारंभ कर दिया। ब्रिटिश लाइब्रेरी में उपलब्ध दस्तावेज `सावरकर केस कंडक्ट ऑफ द पुलिस ऑफिशल्स' के अनुसार कांस्टेबल सावरकर के पीछे चोर-चोर पकड़ो-पकड़ो चिल्लाते हुए दौड़ रहे थे। सावरकर करीब २०० गज दौड़े । उनकी सांसे बुरी तरह फूल रही थी वह टैक्सी रोकने के लिए चिल्ला रहे थे, लेकिन तभी उन्हें महसूस हुआ कि उनके पास एक भी पैसा नहीं है। यह भी दुर्भाग्य रहा कि उस क्षेत्र में मौजूद अय्यर. मादाम कामा और बीरेन्द्र नाथ चट्टोपाध्याय सावरकर की मदद के लिए समय पर नहीं पहुंच पाये। विक्रम संपत लिखते हैं - इस बीच प्रâांस के सैन्य अफसर ब्रिगेडियर पेस्की भी सावरकर का पीछा करने वालों में शामिल हो चुके थे। थोड़ी देर बाद वह सावरकर को पकड़ने में कामयाब रहे। सावरकर का मानना था कि क्योंकि अब वह प्रâांस की भूमि पर हैं इसलिए अगर उन पर मुकदमा चलता है तो वह प्रâांस के कानून के अनुसार होगा, क्योंकि की धरती पर ब्रिटिश कानून लागू नहीं होंगे। राजनीतिक कैदी के रूप में वह में राजनीतिक शरण पाने की हकदार से लेकिन बिग्रेडियर पेस्की को एक शब्द भी अंग्रेजी नहीं आती थी और वह समझ ही नहीं सके कि सावरकर क्या कह रहे हैं? पेस्की ने सावरकर को भारतीय पुलिस वालों के हवाले किया। वे उनको खींचते हुए फिर से उनके केबिन में ले आये। उनके साथ बुरा बर्ताव किया गया उन्हें दिन रात हथकड़ियों में रखा गया। २२ जुलाई को जहाज मुंबई पहुंचा तब सावरकर को मुंबई के पुलिस अधिकारी कैनेडी के हवाले किया गया। समाचार पत्रों लेॅमोड मार्टिन या लेटेंप्स आदि ने सावरकर को दोबारा गिरफ्तार करने की आलोचना की। कुछ दिनों के बाद ब्रिटेन में के राजदूत पियरे कौमबौन ने सावरकर के प्रत्यर्पण की मांग की। जहां से अंग्रेजों ने उन्हें  की सरकार की अनुमति के बगैर गिरफ्तार किया गया था। इस मामले को हेग के अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में भी ले जाया गया। २३ दिसंबर १९१० ई. को भड़काऊ भाषण देने में भी एक मामले में फैसला सुनाया गया और सावरकर को दोषी मानते हुए उन्हें अंडमान में काला पानी भेजने की सजा सुनाई गई जिसका तात्पर्य २५ वर्ष का कारवास। इसी प्रकार नासिक षडयंत्र काण्ड के अंतर्गत इन्हे कालापानी की सजा पर सेलुलर जेल भेजा गया।वैभव पुरंदरे लिखते हैं- इसका अर्थ यह था कि २५ वर्ष की दोनों सजा साथ-साथ चलेगी? नहीं इसका अर्थ यह था कि सावरकर पहले २५ साल की सजा पूरी करेंगे और उसके बाद २५ वर्ष की अर्थात पूरा मिलाकर ५० वर्ष की सजा।
  अंडमान की जेल में सावरकर को अमानवीय यातनाएं मिली यहां कैदियों को नारियल छीलकर उसमें से तेल निकालना पड़ता था। इसके अलावा उन्हें जेल के साथ लगे व बाहर के जंगलों को साफ कर दलदली भूमि व पहाड़ी क्षेत्र को समतल भी करना होता था रुकने पर उन्हें कड़ी सजा दी जाती थी तथा बेंत व कोड़ो से पिटाई भी की जाती थी इतने पर भी उन्हे भरपेट खाना भी नहीं दिया जाता था। सावरकर ४जुलाई १९११ से २१ मई१९२१ तक पोर्ट ब्लेयर की जेल में रहे। १९२१ में वल्लभभाई पटेल और तिलक के कहने पर ब्रिटिश कानून ना तोड़ने और विद्रोह न करने की शर्त पर उनकी रिहाई हो गई। २ मई १९२१ ई को एस.एस.महाराजा नामक एक स्टीमर से दोनों सावरकर भाइयों को भारत के मुख्य भूमि पर लाया गया और उन्हें रत्नागिरी जेल में रखा गया। बाद में उन्हें पुणे के यरवदा केन्द्रीय कारागार में जाया गया जेल में ही उन्होंने हिंदुत्व पर शोध ग्रंथ लिखा। ६ जनवरी १९२४ ई .को कुछ शर्तो के साथ उन्हे रिहा कर दिया गया। १ अप्रैल १९३७ ई. को सावरकर बाल गंगाधर तिलक की डेमोक्रेटिक स्वराज पार्टी में शामिल हुए और उसके बाद हिंदू महासभा में शामिल हुए। मार्च १९२५ ईस्वी में उनकी भेंट राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ हेडगेवार से हुई फरवरी १९३१ में उनके प्रयासों से मुंबई में `पतित पावन मंदिर' की स्थापना हुई जो सभी हिंदुओं के लिए समान रूप से खुला था। २५ फरवरी १९३१ ई. को सावरकर ने मुंबई प्रेसिडेंसी में हुए अस्पृश्यता उन्मूलन सम्मेलन की अध्यक्षता की। १९३७ ईस्वी में हुए अखिल भारतीय हिंदू महासभा के कर्णावती (अहमदाबाद) में हुए १९वीं सत्र के अध्यक्ष चुने गए। १५ अप्रैल १९३८ को उन्हे मराठी साहित्य सम्मेलन का अध्यक्ष चुना गया। १३ दिसंबर १९३७ ई को नागपुर की एक जनसभा में उन्होंने अलग पाकिस्तान के लिए चल रहे प्रयासों को असफल करने की प्रेरणा दी थी। २२ जून १९४१ ई को उनकी भेंट नेताजी सुभाष चंद्र बोस से हुई। सावरकर जीवन भर अखंड भारत के पक्ष में रहे। १९ अप्रैल १९४५ई. में उन्होंने 'अखिल भारतीय राजवाड़ा हिंदू सभा' सम्मेलन की अध्यक्षता की। १९४७ ईस्वी में उन्होंने भारत विभाजन का विरोध किया। १५ अगस्त १९४७ ई को उन्होंने सावरकर सदान्तो में भारतीय तिरंगा एवं भगवा दो-दो ध्वजारोहण किया।
इस अवसर पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए उन्होंने पत्रकारों से कहा कि मुझे स्वराज प्राप्त की खुशी है परंतु यह खंडित है इसका दुख है उन्होंने यह भी कहा कि राज्य की सीमाएं पहाड़ों या सन्धि पत्रों से निर्धारित नहीं होती। वह देश के नवयुवकों के शौर्य, धर्म त्याग व पराक्रम से निर्धारित होती है। ५ फरवरी १९४८ ई को महात्मा गांधी की हत्या के उपरांत उन्हें `प्रिवेंटिव डिटेंशन एक्ट' धारा के अंतर्गत गिरफ्तार कर लिया गया लेकिन उनके ऊपर कोई आरोप सिद्ध न होने के कारण उन्हें छोड़ दिया गया।
सावरकर एक महान समाज सुधारक भी थे उनका दृढ़ विश्वास था कि सामाजिक एवं सार्वजनिक सुधार बराबरी का महत्व रखते हैं वह एक दूसरे के पूरक है उनके समय में समाज बहुत सी कुरीतियों और बेड़ियों के बंधनों में जकड़ा हुआ था इस कारण हिंदू समाज अत्यंत दुर्बल हो गया था। अपने भाषणों लेखों व कृत्यों से इन्होंने समाज सुधार के निरंतर प्रयास किए। उनके समाज सुधार राष्ट्र को समर्पित होते थे। सावरकर हिंदू समाज में प्रचलित जाति भेद एवं छुआछूत के घोर विरोधी थे। मुंबई का पति पावन मंदिर इसका जीवन्त उदाहरण है जो हिंदू धर्म के प्रत्येक जाति के लोगों के लिए समान रूप से खुला था। हिंदी भाषा को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए सावरकर सन १९०६ ई.से ही प्रयत्नशील थे। लंदन स्थित भारत भवन (इंडिया हाउस) में संस्था `अभिनव भारत' के कार्यकर्ता रात को सोने से पूर्व स्वतंत्रता के चार सूत्रीय संकल्पों को दोहराते थे उसमें चौथा सूत्र होता था हिंदी को राष्ट्रभाषा व देवनागरी को राष्ट्रलिपि घोषित करना। अंडमान की सेल्यूलर जेल में उन्होंने बंदियों को शिक्षित किया साथ ही साथ वहां हिंदी के प्रचार प्रसार हेतु काफी प्रयास किया।
महात्मा गांधी और सावरकर की प्रथम मुलाकात अक्टूबर १९०६ ईस्वी में लंदन में हुई तब महात्मा गांधी दक्षिण अप्रâीका में रह रहे भारतीय समुदाय की बढ़ती मुसीबत से राहत की उम्मीद से ब्रिटिश सरकार से बातचीत के लिए लंदन गए थे। २४ अक्टूबर १९०९ई. को गांधी जी और सावरकर की दूसरी मुलाकात दशहरा के दिन लंदन में हुई और दोनों के मध्य `राम राज्य' पर चर्चा हुई इसका उल्लेख वीरेंद्र कुमार बरनवाल की पुस्तक 'हिंद स्वराज एवं नव सभ्यता विमर्श' में मिलता है। बातचीत के प्रारंभ में गांधी जी ने सावरकर से कहा कि अंग्रेजो के विरुद्ध आपकी रणनीति जरूरत से ज्यादा आक्रामक है गांधी जी भारत की आजादी के लिए राम का आदर्श प्रस्तुत करते हैं और बताते हैं कि राम का निस्वार्थ एवं मर्यादित चरित्र मानव कल्याण के लिए आवश्यक है ।गांधी जी रावण के अधीन रहते हुए सीता जी के अद्भुत संयम एवं त्याग की भी चर्चा करते हैं, राम के छोटे भाई लक्ष्मण के भ्रातृत्व
   प्रेम और त्याग के आदर्श को भी सामने रखते हैं। गांधी जी का मानना था कि इस त्याग, संयम और आदर्श के रास्ते पर चलकर भारत अपनी आजादी प्राप्त कर सकता है। परंतु सावरकर का विचार इसके विपरीत था। उनका मानना था कि रामराज्य की स्थापना के लिए रावण का वध आवश्यक है, बिना उसके बध रामराज्य की स्थापना नहीं हो सकती। देवी दुर्गा के संहारक रूप की चर्चा करते हुए वे बताते हैं की शक्ति की देवी ही बुराइयों का अंत कर सकती हैं।
कुछ बुद्धिजीवी सावरकर पर अंग्रेजों से माफी मांगने का आरोप लगाते हैं वस्तुत: सावरकार ने कभी भी अंग्रेजों से माफी नहीं मांगी। जिस माफ़ीनामे की चर्चा होती है वस्तुत: यह एक सामान्य सी याचिका थी जिसे फाइल करना राजनीतिक कैदियों के लिए एक सामान्य कानूनी विधान था। अनेक क्रांतिकारियों ने भी ऐसी ही याचिकायें दायर की थी और उनकी याचिकायें स्वीकार भी की गईं थी। जार्ज पंचम कीभारत यात्रा और प्रथम विश्वयुद्ध के बाद संपूर्ण विश्व में अपने बचाव के लिए ऐसी सुविधाएं दी गई थी। वस्तुत: छत्रपति शिवाजी की ही तरह सावरकर की यह कूटनीतिक दूरदर्शिता थी। अपने राष्ट्रवादी उद्देश्य को पूरा करने के लिए शिवाजी औरंगजेब की कैद से आगरा जेल से निकल गए थे। इसी प्रकार भारतीय स्वतंत्रता के महायज्ञ व्ाâो पूर्ण करने के लिए सावरकर ब्रिटिश कैद से छूटना चाहते थे। यह उनकी कूटनीति दूरदर्शिता थी। महात्मा गांधी ने १९२०- २१ ईस्वी में अपने पत्र `यंग इंडिया' में सावरकर के पक्ष में लेख लिखे थे ।गांधी जी का विचार था कि सावरकर को चाहिए कि वह अपनी मुक्ति के लिए सरकार को याचिका भेजें इसमें कुछ भी बुरा नहीं है, क्योंकि स्वतंत्रता व्यक्ति का प्राकृतिक अधिकार है। इसके पश्चात सावरकर को १९२१ ईस्वी में १० वर्ष की सजा काटने के बाद सेल्यूलर जेल से रिहा कर दिया गया था। सावरकर २०वीं शताब्दी के सबसे बड़े हिंदूवादी नेता थे उन्हें बचपन से ही हिंदू शब्द से सबसे बेहद लगाव था। सावरकर ने जीवन भर हिंदू, हिंदी और हिंदुस्तान के लिए ही कार्य किया। उन्हें ६ बार अखिल भारतीय हिंदू महासभा का राष्ट्रीय अध्यक्ष चुना गया। हिंदू राष्ट्र की राजनीतिक विचारधारा को विकसित करने का श्रेय सावरकर जी को ही दिया जाता है। उनकी इस विचारधारा के कारण आजादी के बाद की सरकारों ने उन्हें वह महत्व नहीं दिया जिसके वे वास्तविक हकदार थे। सावरकर धार्मिक विचार के थे वह ईश्वर में विश्वास रखते थे `मोपला' पुस्तक की भूमिका में उन्होंने ईश्वर कृपा शब्द का प्रयोग किया था। १० नंवबर १९५७ ई. को नई दिल्ली में आयोजित हुए १८५७ ईस्वी के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के शताब्दी समारोह में वे मुख्य वक्ता रहे सितंबर १९६५ ईस्वी में तेज बुखार आ जाने के कारण उनका स्वास्थ्य गिरने लगा १ फरवरी १९६६ ई को उन्होंने मृत्यु पर्यंत उपवास करने का निर्णय लिया २६ फरवरी १९६६ ई को ८३ वर्ष की अवस्था में महान क्रांतिकारी का मुंबई में निधन हो गया। उनकी स्मृति हमेशा देशवासियों की दिलों में रहेगी उन्हें हमेशा अपनी पीढ़ी के महापुरुषों में गिना जाएगा। सावरकर जी कहा करते थे -`माता भूमि पुत्रो अहम पृथिब्या:' अर्थात-ये भारत भूमि मेरी माता है और मैं इसका पुत्र हूं। सावरकर जी हमारे नायक थे, हैं, और हमेशा रहेंगे ।।
 डाॅ. जितेन्द्र प्रताप सिंह 
रायबरेली(उ.प्र.)

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