दादी की बैंक यात्रा

दादी के बैंक खाते में २००४ रूपये थे और जब ये बात दादी को पता चली तो उन्होंने कई बार अपने बेटे (यानी मेरे पिता जी) से बोली- दादू एॅंह प‌इसा का चलि के निकरबाय दे नहीं त सरकार कहौं काटि न लेअ एॅंह सरकार के ...  दादी कुछ आगे बोलती की पिताजी ने उन्हें समझाते हुआ कहा कि माताजी वो पैसा नहीं कटेगा और अभी उसे खाते में ही रहने दो कभी किसी बुरी परिस्थिति मे काम आएंगे, किन्तु दादी कहां मानने वाली थी रोज़ इसी बात को लेकर पिताजी को चार अक्षर सुनाती और पिताजी सुन कर टाल दिया करते। किन्तु एक दिन जब मैं अपनी कर्मभूमि (रीवा) से अपने जन्मभूमि (अपने गांव)  आया तो (हालांकि ये झूठ हैं वास्तव में मेरी जन्मभूमि सरगुजा छत्तीसगढ़ है)  वही पैसा निकलवाने वाली बात दादी ने  मुझसे भी कही और मैंने कहा की एक शर्त पर चलेंगे। 

Nov 13, 2023 - 14:00
Nov 13, 2023 - 15:28
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दादी की बैंक यात्रा
Grandma's Bank Trip

कभी कभार जीवन में एक दो दृश्य इतने रोचक ढंग से सामने आते हैं कि कहें ही क्या!
प्रायः मैं अपने पारिवारिक दृश्य को अपने साहित्य से सदैव दूर रखने की कोशिश करता हूं किन्तु यहां पर स्वयं को रोक पाना मेरे लिए बड़ा कठिन कार्य है। शायद तभी कहा जाता है कि "साहित्य- जनता के चित्तवृत्ति का एक संचित प्रतिबिंब है।" चलिए अब बिना किसी लाग-लपेट के सीधे चलते हैं उस दृश्य की ओर जो दृश्य नहीं दर्शन है।

दादी के बैंक खाते में २००४ रूपये थे और जब ये बात दादी को पता चली तो उन्होंने कई बार अपने बेटे (यानी मेरे पिता जी) से बोली- दादू एह प‌इसा का चलि के निकरबाय दे नहीं त सरकार कहौं काटि न लेअ एह सरकार के .
 दादी कुछ आगे बोलती की पिताजी ने उन्हें समझाते हुआ कहा कि माताजी वो पैसा नहीं कटेगा और अभी उसे खाते में ही रहने दो कभी किसी बुरी परिस्थिति मे काम आएंगे, किन्तु दादी कहां मानने वाली थी रोज़ इसी बात को लेकर पिताजी को चार अक्षर सुनाती और पिताजी सुन कर टाल दिया करते। किन्तु एक दिन जब मैं अपनी कर्मभूमि (रीवा) से अपने जन्मभूमि (अपने गांव)  आया तो (हालांकि ये झूठ हैं वास्तव में मेरी जन्मभूमि सरगुजा छत्तीसगढ़ है)  वही पैसा निकलवाने वाली बात दादी ने  मुझसे भी कही और मैंने कहा की एक शर्त पर चलेंगे। 
तभी मेरी ओर देखते हुए उन्होंने कहा- क‌उन सर्त लाला।
मैं - उसमें से ५०० रुपए मेरे होगे।
दादी- चला ठीक हबय घर के प‌इसा घरै मा रही बेंक बाला त न ख‌ई।

दादी को शर्त फौरन मंजूर हो गई और फिर क्या था मैं तो बस ५०० रुपए की लालच में चल दिया मुझे क्या पता कि ये दादी की बैंक की छोटी सी यात्रा मेरे लिए इतनी मज़ेदार और रोचक हो जाएगी। अब हम दादी और पोते सड़क पर जाकर आटो रिक्शे के इंतजार में बैठ जाते हैं, तभी तकरीबन दस मिनट बाद एक आटो रिक्शा सामने से आता हुआ दिखाई देता है मैं उसे हाथ देकर रुकवाने वाला ही था कि दादी मुझसे पहले हाथ देते हुए बोल पड़ी- रोंके..रोंके दादू।
रिक्शा रुकता है और फिर दादी के साथ पोता भी बैठकर बैंक की ओर चल देता है।
 कुछ ही मिनटों में रिक्शा बैँक तक पहुंच जाता है और बैंक पहुँचते ही हास्य रस का उद्गम होना शुरू हो जाता है। वहां वहीं पास में एक टेबल पर किसी की चेक बुक रखी रहती है तभी उसे उठाकर दादी बोलती हैं -ले लाला ड्राबल भर दे।
जब मैं उसे देखा की ये तो किसी की चेक बुक है तो उसे मैं दादी से लेकर बैंक मैनेजर के पास रख कर वहीं पास के काउन्टर से ड्रावल लाया और जब ड्रावल के सारे कालम भर गए तो दादी को अंगूठा लगाने के लिए कहा, इतना कहते ही दादी जी तो बिल्कुल भड़क गई और हस्ताक्षर करने के चक्कर मे ६ ड्रावल नष्ट कर दीं। जबकि अंततः उन्हें अंगूठा ही लगाना पड़ा और अंगूठे के बाइब्रेट होने के कारण २ ड्रावल उसमें भी नष्ट हो ग‌एं।

वो जब पैड पर अंगूठा लगा रहीं थी तो मुझसे कई बार बोली कि- लाला इंहा त मसै नहीं आय।
 और मैं इतना बड़ा मूर्ख की मस (स्याही) का मतलब मच्छर समझ रहा था। तो मैंने भी हाव- भाव से कहा.. हां दादी यहा प्रतिदिन साफ़ सफाई की जाती है इसीलिए यहां मस नहीं है; देखती नहीं हो पूरा बैंक चमक रहा है। मेरी इस बात को सुनकर वहां आसपास के लोग थोड़ा हंसने से लगेे जिसे मैंने ज्यादा ध्यान नहीं दिया। (हालांकि ये भी झूठ है ध्यान नहीं दिया होता तो पता कैसे चलता की वो लोग हंसे भी) फिर दादी ने दुबारा बताया कि- नहीं लाला इआ पैड सूखा है एह मा मस नहीं आय जा थोका पानी डारे आबा।

इतना सुनते ही मुझे भी हंसी आ गई और फिर मैंने पैड को गीला करके ले आया तब कहीं जाकर दादी ने अंगूठा लगाया। अंगूठा लगवाते वक्त़ हमें कुछ पल के लिए थोड़ा अजीब सा लगा जैसे मैं किसी का गला दबा रहा हूँ।  किन्तु पैसा निकलने के बाद पुन: उसी तरह हो गया क्योंकि मुझे भी ५०० रुपए मिलने थे। दादी ने देखा की मैनेजर साहब ने केवल २००० रूपये ही दिए हैं तो उन्होंने बची चार रूपये के लिए भी जिद करने लगीं और जब मैनेजर साहब ने उन्हें उनके चार रुपए नहीं दिएं तो मैनेजर को अभिशापित भी कर दीं।

अब आगे.. जब मैंने कहा चलिए हो गया छोड़िए चार रुपए तब कहीं जाकर वो काउंटर से बाहर आईं और अपने शर्त के मुताबिक सारा पैसा मुझे देकर बोलती हैं- पांचि स‌ओ ल‌इ के बाकी हमार हमका दे।
मुझे भी यहां थोड़ी ईमानदारी दिखाने का मौका मिला तो मैंने पूरी ईमानदारी दिखाई पांच सौ लेकर बाकी के पंद्रह सौ दादी को दे दिया और फिर वहा से मैं और दादी  घर के लिए चल दिए। मेरे भी जेब में जब ५०० रूपये आ गएं तो मानो ऐसा प्रतीत हुआ जैसे किसी वर्षों पुरानी विरहणी को उसका प्रेमी मिल गया हो।
 बैंक से बाहर आकर फिर घर जाने के लिए आटो रिक्शा रुकवाया तो वो आटो वाला भी एक पहचान (गांव) का ही व्यक्ति था किन्तु मैं उसके आवरण से तो बहुत पहले से परिचत था उस दिन मैं उसके आचरण से भी परिचत हो गया। कहीं मार ना मिले इसलिए यहां पर आटो वाले का ज्यादा जिक्र नहीं कर रहा हूँ...
हां! तो! दादी के माधुर्य भाव भरी वाणी के साथ-साथ आटो वाले की तल्खता का आनंद लेते हुए कुछ ही मिनटों पर घर आ गये। किन्तु घर आने पर दादी जी ने हमीं पर ही आरोप लगा दीं। उन्होने कहा कि- इया हमका बेंक दिखाइस... कोजानी कहां ल‌इगा रहा उहां एठ्ठो चपेठ्ठा का मन‌इ ब‌इठ रहा ज‌उन हमार चार ठे रुपिय‌ओ नहीं दिन्हिस  दु‌इ हजार दिहिस बस।

बुढ़ापे का हट तो देखा था किन्तु ये बुढ़ापे का आरोप मैंने पहली बार देखा ।
उनका कहना है कि बैंक एक हरे रंग के डिब्बे जैसा होता है और जब बैंक का कान घुमा दो तो वो पैसा देता। शायद दादी की नज़र में.

सादर चरणस्पर्श दादी

प्रिन्शु लोकेश
रीवा मध्य प्रदेश

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