एक नया फ्रेम
This story portrays a woman’s journey of maintaining a clear image across the multiple frames of her life – as a wife, daughter-in-law, mother, and professional. Through struggles, responsibilities, and self-discovery, she finds her identity and confidence. An inspiring tale of relationships, self-realization, and the balance of life.
प्रकृति ने जन्म के साथ उसे एक रिश्ते के साथ भेजा था और भेजते समय ये बता दिया था कि उम्र बढ़ने के साथ जैसे-जैसे ये रिश्ते बढ़ेंगे रिश्तों के ये फ्रेम बढ़ते जायेंगे।
पहला रिश्ता जो उसे जन्म के साथ मिला था वो उसके लिए बहुत खास था। ऐसा रिश्ता जिसमें वो पूरी तरह से अपनी साफ़ तस्वीर देख पाती थी। न शिकवा, न शिकायतें बस प्यार दुलार और सराहना। लाख कमियों के बावजूद कभी भी माता-पिता को उसमें कोई कमी नजर नहीं आई। उनके प्यार की ठंडी छाँव में उसकी ज़िन्दगी बड़ी सहजता के साथ अगले मुकाम की तरफ बढ़ रही थी जहाँ से उसे रिश्ते के कई सारे नामों के साथ जुड़ जाना था।
आज वो उम्र की उस दहलीज पर पंहुच गयी थी जहाँ से अब उसे एक नए रिश्ते की तरफ बढ़ जाना था। जहाँ उसे पत्नी का रिश्ता निभाते हुए बहू, भाभी, पड़ोसन, दोस्त, चाची की जिम्मेदारियां भी निभानी थी । हर रिश्ते में खुद को खूबसूरती के साथ ढाल लेना था। जब उसे लगता कि वो एक अच्छी बहू है तभी कुछ कमी रह जाती और शिकायतों के दौर के साथ वो, उसकी अच्छी बहू की छवि हिल जाती । तब वो कोशिश करती कि अच्छी बहू ना सही, खुद को अच्छी पत्नी साबित कर पाए।
पर ये क्या? आज पतिदेव को जल्दी ऑफिस जाना था और उसने नाश्ता भी समय पर तैयार नहीं किया। आजकल वो कोई भी काम तरीके से नहीं करती । पतिदेव हमेशा शिकायत करते रहते हैं-‘क्या हो गया है तुम्हें ? तुमसे कुछ भी नहीं होता । इतना सा काम भी नहीं कर पाती । मेरी माँ को देखो वो कितने अच्छे से सब जिम्मेदारियां निभाती हैं । तुम्हें तो किसी की फ़िक्र ही नहीं हैं।’ यह कहकर वो नाराज होकर चले गए । उसे लगा कि उसकी एक अच्छी पत्नी की तस्वीर कुछ धुंधली सी हो गयी है । वो बहुत दुखी थी । हर दिन, हर पल खुद को अच्छी पत्नी, अच्छी बहू साबित करने की कोशिश में दिन बीतने लगे।
यह जानकर कि अब उसे जल्दी ही एक नया रूप मिलने वाला है, वो माँ बनने वाली थी।वो बहुत खुश हो गयी । आज बहुत दिनों बाद मुस्कान उसके होंठो पर सज गयी थी । वो मुस्कान जो अब तक लुकाछिपी खेलती रहती थी ।
ये समय बहुत अच्छे से बीता । ऐसा लगने लगा कि सभी रिश्तों में उसकी तस्वीर साफ़ नजर आने लगी है । बीतता हर दिन उसे वसंत का सा लग रहा था चारों तरफ मानो खुशियाँ ही खुशियाँ थी। ९ माह कब बीत गए पता ही नहीं चला । अब उसकी गोद में एक नन्ही सी गुडिया थी । जिसके आने से उसे माँ की उपाधि मिल गयी थी।रिश्तों का एक और नया फ्रेम ‘एक अच्छी माँ’
दिन बीतते जा रहे थे । कभी किसी रिश्ते के फ्रेम में साफ़, किसी में धुंधली होती तस्वीर के साथ वो ज़िन्दगी के पथ पर आगे बढ़ती जा रही थी।बीतते समय के साथ एक बार फिर से खुशियों की दस्तक हुई और उसे एक बार फिर से माँ बनने का गौरव प्राप्त हुआ । उसका परिवार पूरा हो गया था । उसकी पूरी कोशिश थी कि इस रिश्ते के फ्रेम में उसकी स्पष्ट तस्वीर उभर कर आये । परन्तु जब भी उसका बेटा या बिटिया कोई गलती करते, अच्छे नंबर नहीं लाते या कोई शिकायत ले कर आता, हर बात की दोषी वो साबित होती । इसका दोषारोपण उस पर होता और उसे कोसा जाता कि अपने बच्चों का ध्यान भी नहीं रख पाती । तब उसकी अच्छी माँ की छवि भी पूरी तरह से धुंधली हो जाती।
समय अपनी अबाध गति से आगे बढ़ता जा रहा था । समय के साथ उसके पास रिश्तों के फ्रेम की संख्या भी बढती जा रही थी । जब भी वो फुरसत में होती रिश्ते के हर फ्रेम को उठाकर देख लेती, पर हर जगह उसे अपनी छवि धुंधली ही नजर आती । इन सब के बीच भी एक फ्रेम ऐसा था जो हमेशा उसकी छवि को स्पष्ट दिखाता था । वो था एक अच्छी बेटी का फ्रेम
परिवार की जिम्मेदारियां निभाने के लिए उसने एक फ्रेम और ले लिया था । यह फ्रेम एक जिम्मेदार कर्मचारी का था। इस फ्रेम के साथ उसकी गृहस्थी की सुचारू रूप से चलती गाड़ी जुडी थी, अतः इस में उसकी छवि स्पष्ट होना बहुत जरुरी था। धीरे-धीरे उसका पूरा ध्यान इस फ्रेम की तरफ चला गया था । यहाँ अपनी स्पष्ट छवि दिखाने के लिए वह रिश्तों के अन्य फ्रेम को नज़रन्दाज़ करते हुए आगे बढती जा रही थी।
अब वो जब रिश्तों के उन फ्रेम में अपनी धुंधली छवि को देखती, तो खुद को यह कहकर समझाती कि ये सब मैं इन सबके लिए ही तो कर रही हूँ । पर जब-जब फुर्सत मिलती उन चंद पलों में वो रिश्तों के एक-एक फ्रेम को उठाती जाती और अपने आसुंओं के पानी से चमकाने का प्रयास करती।
समय का पंछी उड़ता चला जा रहा था। आज उसके माता-पिता को उसकी सख्त जरुरत थी पर वो अपनी जिम्मेदारियों की बेड़ी में जकड़ी उन तक नहीं पंहुच पा रही थी। उसका मन बहुत बैचेन हो रहा था । आज उसके सबसे अजीज रिश्ते के फ्रेम में उसकी छवि धीरे-धीरे धुंधली होती जा रही थी । उसने खुद को समझाते हुए अपने आंसुओं से उसे साफ़ करने की कोशिश की । पर वो छवि तो स्पष्ट ही नहीं हो पा रही थी । आज उसकी बेटी की छवि भी हिल गयी थी । उसकी जिम्मेदारियां उसके प्यार पर भारी हो गयी थी।
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अफ़सोस के साथ, एक मलाल के साथ वो समय भी बीत गया । लोगों से मिली सहानुभूति से उसने अपनी अच्छी बेटी की छवि को सा़पâ तो कर लिया । पर उसके आँखों में जम गए आंसू उस धुंधली छवि को साफ़ नहीं कर पाए। दूसरों को वो छवि साफ़ नजर आ रही थी पर उसके लिए वो धुंधली हो चुकी थी।
खुशियाँ धूप-छाँव सी जिंदगी में आती जाती रही। अब वो नए रिश्तों में ढल गयी सास, दादी, नानी। अब जब भी वो अपनी बहू को, अपनी बेटी को उनकी ज़िन्दगी में सब ठीक करने का प्रयास करते देखती तो वो मुस्कुरा उठती । उसे पता था कि वो भी उन्ही कोशिशों में लगी है, जिसमें उसकी अब तक की जिंदगी बीत चुकी थी। उन्हें ऐसा करते देख वो भी अपने रिश्तों के फ्रेम को उठा कर देख लेती कभी मुस्कुराती, कभी चुप हो जाती और कभी आंसुओं की गंगा-जमुना बहाती।
एक दिन सुबह से ही घर में बड़ी हलचल थी। थोड़ी-थोड़ी देर में जोर से रोने की आवाज़ सिसकियों में बदल जाती और कभी सिसकियाँ जोर से दहाड़ में। वो एक तरफ खड़ी हुई सब देख रही थी। उसकी इच्छा कर रही थी उन लोगों को चुप हो जाने को कह दे । वो चिल्लाई भी, पर किसी ने उसकी आवाज़ को नहीं सुना। तभी उसकी नजर जमीं पर लेटे फूलों से सजे एक शरीर पर गयी जिसे दुल्हन की तरह सजाया गया था। एकबारगी तो वो उसे निहारने में व्यस्त हो गयी । फिर उसे ध्यान आया कि वो किसी और का नहीं, उसी का शरीर है। वो कितनी खुबसूरत है।
ये आईना तो नहीं हैं । तभी एकाएक उसका ध्यान दरवाजे की तरफ से आ रही रोने की आवाज पर चला गया उसके पीहर से उसके भाई-भाभी आए थे। थोड़ी देर में फिर से शांति छा गयी । वहाँ बैठे लोग आपस में बातें कर रहे थे । उसने ध्यान से देखा सबके हाथ में उससे जुड़े रिश्ते का फ्रेम था और वो लोग आपस में बतियाते हुए उसकी तारीफों के पुल बाँध रहे थे उसकी ननद कह रही थी-‘मेरी भाभी बहुत अच्छी थी हमारा कितना ध्यान रखती थी।’ उनकी हाँ में हाँ मिलाते हुए उसकी जेठानी बोली -‘हम दोनों बिलकुल बहनों की तरह रहे सदा बड़ी बहन का सम्मान दिया मुझे।’ तभी देवरानी ने जोड़ा -‘हाँ भाभीजी जीजी के जैसा कोई नहीं हो सकता इतना जल्दी कैसे चली गयी ?’
उसके ऑफिस से भी कुछ लोग आये थे । जो उसके द्वारा किये गए कामों की तारीफ करते हुए कह रहे थे-‘ऑफिस में उनके जैसा कोई नहीं था इतना अच्छा व्यवहार और काम के प्रति ऐसी निष्ठा कम लोगों में ही देखने को मिलती हैं। वो तो हम सबके लिए एक उदाहरण हैं।’
पतिदेव एक तरफ उदास से चुप्पी धारण किये बैठे थे । उनकी आँखों से बहते आसूं, उसके लिए उनके अबोले प्यार को दर्शा रहे थे। वो प्यार जो उन्होंने कभी भी इस डर से नहीं जताया कि कहीं वो खुद को श्रेष्ठ ना समझ बैठे। पर आज...........’
सब तरफ से उसे अपनी तारीफें और सिर्फ तारीफें ही सुनाई दे रही थी। इस भीड़ में भी कुछ आंसू ऐसे थे, जिन्होंने उसे भिगो दिया था। उसे महसूस हुआ कि जैसे-जैसे उसकी तारीफें की जा रही थी, वैसे-वैसे रिश्तों के हर फ्रेम में उसकी छवि स्पष्ट होती जा रही थी। हर स्पष्ट होती छवि के साथ धीरे-धीरे वो हर फ्रेम से गायब होती जा रही थी।
उसे घबराहट हो रही थी। हर हाथ में फ्रेम खाली हो चुका था और उसकी जगह एक निर्जीव सी तस्वीर ने ले ली थी। उसका ध्यान फिर से उस शरीर की तरफ चला गया जो निःशब्द,निर्जीव सा फूलों से सजा जमीं पर लिटाया हुआ था उस शरीर के सिराहने पर किसी ने एक सुनहरा सा फ्रेम लाकर रख दिया था और उसके आगे अगरबत्ती जला दी थी। उस फ्रेम में उसकी मुस्कुराती हुई एक निर्जीव तस्वीर थी। वो तस्वीर जिसकी मुस्कान के पीछे एक गहरा दर्द छिपा था अपनी स्पष्ट छवि पाने का दर्द, पर होठों पर चिपकी मुस्कान बता रही थी कि वो अपनी तमाम ज़िन्दगी में बहुत खुश थी, हर रिश्ते के फ्रेम में स्पष्ट सी छवि के साथ।
और वो... वो दूर खड़ी ये सब देख रही थी । लबों से मुस्कुराते और आँखों से आंसू बहाते हुए जहाँ संतुष्टि की छाया थी, वहीँ एक अफ़सोस यह भी था कि काश ये स्पष्ट छवि उसे जीते जी मिल गयी होती । काश कि उसे भी उसकी कमियों के साथ स्वीकार किया होता तो सारी ज़िन्दगी उसने जो स्पष्ट तस्वीर पानी चाही वो तस्वीर उसे अपना जीवन दे कर नहीं पानी होती । वो उसे उसके जीते जी ही मिल जाती । उसे एक और फ्रेम का इंतज़ार नहीं करना होता, पर आज....... आज चाहे तस्वीर में ही सही पर आज उसे एक स्पष्ट तस्वीर वाला फ्रेम मिल गया था।
तभी ट्रिन-ट्रिन ट्रिन-ट्रिन घड़ी का अलार्म बजा और वो हडबडाई सी उठी। उसकी आँखें गीली थी आँखों के कोनों पर जमे आंसू बता रहे थे कि रात वो बहुत रोई है।
दिल में एक निश्चय कर एक नयी उजली मुस्कान के साथ उसने फिर से हर फ्रेम को निहारा और खुद से बुदबुदाई-मैंने भी तो खुद को कभी अपनी नजर से नहीं देखा, हमेशा यह सोच कर आगे बढती रही कि कोई क्या कहेगा? कभी अपने मन के अनुसार जीवन नहीं जिया । अपनी कमियों को मैंने भी नहीं स्वीकारा । सबसे क्या... मैं तो खुद से भी छिपाती रही। पर बस अब बहुत हुआ मैंने आज तक सबके लिए वो सब किया जो मैं कर सकती थी मैंने ही खुद को कम आँका । खुद को पहचानने, खुद से प्यार करने, और अपनी ज़िन्दगी बिना किसी मलाल के जीने की ये सोच मुझे अपनी बेटी और बहू को भी देनी हैं।
खुद से यह कहते हुए उसने फिर से फ्रेम में अपनी छवि को देखा और हर फ्रेम में उसे अपनी उजली छवि नजर आई। आज उसने अपना एक नया फ्रेम हासिल किया था जिसमें उसकी खुशियों से सजी आत्मविश्वास से भरी एक उजली तस्वीर नजर आ रही थी जिसने हर फ्रेम के धुंधलेपन को दूर कर दिया था।
संगीता दवे
उदयपुर (राजस्थान)
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