जनकवि नागार्जुन
नागार्जुन कबीर और निराला की श्रेणी के अक्खड़ और फक्कड़ कवि थे ।वे खुद की बनाई राह पर चलने वाले सच्चे अर्थों में जनकवि थे। समालोचक नामवर सिंह ने नागार्जुन को 'आधुनिक कबीर' स्वीकार किया है।नागार्जुन इस मुहावरा को अक्षरशः चरितार्थ करते थे- ' साहित्य लिखना नहीं, उसे जीना।' संत तुकाराम ने कहा है कि " शब्द ही मेरे गहने हैं , शब्द ही मेरे वस्त्र हैं, शब्द ही मेरी पूजा है और शब्द ही मेरा जीवन है। " शब्दों से नागार्जुन का लगाव भी कुछ ऐसा ही था ।उनकी कथनी और करनी में सामंजस्य था। श्रीधरन ने उनके बारे में लिखा है- " रचनाकार अपने समय और समाज के साथ किस तरह खड़ा होता है यह देखना हो तो नागार्जुन को पढ़ना चाहिए। चाहे साम्राज्यवाद हो, वैचारिक अधिनायकवाद हो या तानाशाही वह सत्ता के खिलाफ खड़े रहे।नागार्जुन सतत विपक्ष के कवि हैं।नागार्जुन की रचनात्मक ताकत उनके व्यक्तित्व के दोटूकपन से आती है।वे हिन्दी के उन विरले रचनाकारों में से हैं जिनके व्यक्तित्व और कृतित्व में कोई फांक नजर नहीं आता
नागार्जुन कबीर और निराला की श्रेणी के अक्खड़ और फक्कड़ कवि थे ।वे खुद की बनाई राह पर चलने वाले सच्चे अर्थों में जनकवि थे। समालोचक नामवर सिंह ने नागार्जुन को 'आधुनिक कबीर' स्वीकार किया है।नागार्जुन इस मुहावरा को अक्षरशः चरितार्थ करते थे- ' साहित्य लिखना नहीं, उसे जीना।' संत तुकाराम ने कहा है कि " शब्द ही मेरे गहने हैं , शब्द ही मेरे वस्त्र हैं, शब्द ही मेरी पूजा है और शब्द ही मेरा जीवन है। " शब्दों से नागार्जुन का लगाव भी कुछ ऐसा ही था ।उनकी कथनी और करनी में सामंजस्य था। श्रीधरन ने उनके बारे में लिखा है- " रचनाकार अपने समय और समाज के साथ किस तरह खड़ा होता है यह देखना हो तो नागार्जुन को पढ़ना चाहिए। चाहे साम्राज्यवाद हो, वैचारिक अधिनायकवाद हो या तानाशाही वह सत्ता के खिलाफ खड़े रहे।नागार्जुन सतत विपक्ष के कवि हैं।नागार्जुन की रचनात्मक ताकत उनके व्यक्तित्व के दोटूकपन से आती है।वे हिन्दी के उन विरले रचनाकारों में से हैं जिनके व्यक्तित्व और कृतित्व में कोई फांक नजर नहीं आता"
उनका असली नाम वैद्यनाथ मिश्र था ।हिन्दी साहित्य में उन्होंने 'नागार्जुन ' तथा मैथिली में ' यात्री ' उपनाम से रचनाओं का सृजन किया ।उनका जन्म 30 जून 1911 ईस्वी को बिहार के दरभंगा जनपद के तरौनी गाँव में हुआ था ।महापंडित राहुल सांकृत्यायन के सम्पर्क में आने के बाद इनके जीवन में विशेष परिवर्तन आया। उन्हीं के प्रभाव से उन्होंने बौद्ध धर्म की दीक्षा ग्रहण की ।पालि और प्राकृत के माध्यम से इन्होंने बौद्ध साहित्य और दर्शन का गंभीर अध्ययन किया । इसके लिए इन्होंने श्रीलंका, तिब्बत, बर्मा आदि विभिन्न देशों का भ्रमण किया । बौद्ध धर्म में दीक्षित होने के बाद इन्होंने 'नागार्जुन' नाम धारण कर लिया और साहित्य के क्षेत्र में इसी नाम को कायम रखा।
अपनी लेखनी के सहारे अत्यन्त अभावग्रस्तता में जीवन बिताने वाले नागार्जुन ने किसी के सामने सिर नहीं झुकाया।अतः जीवनपर्यन्त मसिजीवी सी रहना पड़ा ।भारतीय शोषित - उत्पीड़ित जनता का इतना बड़ा पक्षधर कवि हिन्दी में दूसरा नहीं हुआ । इस बात को प्रख्यात समालोचक डाॅ• रामविलास शर्मा ने प्रमाण के रूप में लिखा है-" जब हिन्दी प्रदेश की श्रमिक जनता एकजुट होकर नई समाज व्यवस्था के निर्माण की ओर बढ़ेगी निम्न मध्यमवर्ग और किसानों और मजदूरों में भी जन्म लेनेवाले कवि दृढ़ता से अपना संबंध जनांदोलनों से कायम करेगें तब उनके सामने लोकप्रिय साहित्य और कलात्मक सौन्दर्य के संतुलन की समस्या फिर दरपेश होगी और साहित्य और राजनीति में उनका सही मार्गदर्शन करने वाले अपनी रचनाओं के प्रत्यक्ष उदाहरण से उन्हें शिक्षित करने वाले , उनके प्रेरक और गुरू होगें कवि नागार्जुन।"
हिन्दी साहित्य के यशस्वी समालोचक डाॅ. नामवर सिंह ने इनके संबंध में लिखा है-
"नागार्जुन की गिनती न तो प्रयोगशील कवियों के संदर्भ में होती है , न ' नई कविता ' के प्रसंग में, फिर भी कविता के रूप संबंधी जितने प्रयोग अकेले नागार्जुन ने किए हैं, उतने शायद ही किसी ने किए हों और भाषा में भी बोली के ठेठ शब्दों से लेकर संस्कृत की संस्कारी पदावली तक इतने स्तर हैं कि कोई भी अभीभूत हो सकता है।तुलसीदास और निराला के बाद कविता में हिन्दी भाषा की विविधता और समृद्धि का ऐसा सर्जनात्मक संयोग नागार्जुन में ही दिखाई पड़ता है।"
काव्य - जगत को इन्होनें एक दर्जन काव्य- संग्रह , दो खण्ड- काव्य, दो मैथिली कविता- संग्रह तथा एक संस्कृत काव्य ' धर्मलोक शतकम् ' थाती के रूप में प्रदान किए।इन्होंने छह से अधिक उपन्यासों का भी सृजन किया ।इनके काव्य- संग्रह हैं- 'युगधारा ' , ' सतरंगे पंखों वाली ' , 'प्यासी पथरायी आँखें ' , ' तालाब की मछलियाँ ', ' चंदना' , ' खिचड़ी विपल्व देखा हमने ', ' तुमने कहा था ', ' पुरानी जूतियों का कोरस ' , 'हजार- हजार बाहों वाली ' , 'भस्मांकुर' ( खण्ड- काव्य), ' चित्रा ' , ' पत्रहीन नग्न गाछ ' ( मैथिली काव्य - संग्रह ) आदि।
इनके उपन्यास हैं - 'रतिनाथ की चाची ' , 'बलचनमा ' , 'बाबा बटेसरनाथ' , 'दुख मोचन',' वरूण के बेटे ', 'पारो ' तथा 'नयी पौध' आदि ।
इनका काव्य - संसार वैविध्यमय होने के साथ - साथ बहुत व्यापक और विराट है।उनके काव्य में संवेदना के विविध रूप हैं । जीवन के अनेक रूप तथा स्थितियाँ हैं।पशु- पक्षी , खेत - बगीचे, नदी- पहाड़ , हवा- पानी , बादल , मानव - जीवन, बचपन - जवानी , नारी- सौन्दर्य , राजनीति , क्रांति, विद्रोह , संघर्ष, आशा- निराशा , जय- पराजय , राग- विराग , आकांक्षा इत्यादि सबकुछ है इनके काव्यों में ।यही जनकवि नागार्जुन की शक्ति और श्रेष्ठता है।वे सम्पूर्ण
जीवन के रचनाकार हैं । वे व्यंग्य के भी बेजोड़ कवि हैं।
संभवतः कबीर के बाद व्यंग्य का इतना बड़ा कवि दूसरा नहीं ।यशस्वी समालोचक डा• नामवर सिंह ने लिखा है कि "यह निर्विवाद है कि कबीर के बाद हिन्दी कविता में नागार्जुन से बड़ा व्यंग्यकार अभी तक कोई नहीं हुआ।" संवेदना की तीव्रता और एक पक्ष से प्रेम की अधिकता एवं दूसरे से घृणा ही व्यंग्य का आधार है ।'शासन की बंदूक' कविता में ' कोकिल ' से प्रेम और ' बंदूक ' से घृणा के द्वंद्व में ही कविता स्थित है।इस कविता की इन पंक्तियों को देखें -
" जली ठूँठ पर बैठकर गई कोकिला कूक बाल न बाँका कर सकी शासन की बंदूक" इसी तरह अपने देश में इंगलैण्ड की महारानी के आने पर स्वागत की धूमधाम देखकर नागार्जुन ने लिखा -
"आओ रानी हम ढ़ोएगें पालकी , यही हुई है राय जवाहर लाल की "।
नामवर सिंह का यह भी मानना है कि ' व्यंग्य की विदग्धता ने ही नागार्जुन की
अनेक तात्कालिक कविताओं को कालजयी बना दिया है। नागार्जुन के रचना- विधान के बारे में प्रख्यात साहित्यकार शमशेर बहादुर सिंह कहते हैं-
" नागार्जुन के यहाँ रूपों की अद्भूत विविधता मिलती है, जितने कथ्य उतने रूप ।इसलिए नागार्जुन की प्रत्येक कविता का रचना - विधान अलग होता है।अनूठा ।"
इस रचना- विधान के अध्ययन से यानी उनकी भाषा और शब्दावली का विश्लेषण करने से ज्ञात होता है कि वे साधारण शब्दों के साथ - साथ तत्सम शब्दों का भी प्रयोग करते हैं और भाषा के सम्पूर्ण स्वरूप का प्रयोग करते हैं।उन्होनें अनेक छंदों और रूपों का प्रयोग किया है। वे अपनी बात अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाना चाहते हैं। इसलिए उनका शिल्प विविध और अपेक्षाकृत सरल है और यही उनके रचना- विधान की सफलता है।उनका शिल्प प्रायः
इतिवृत्तात्मक है।उनकी कविता अधिक से अधिक लोगों की समझ में आने लायक है । उनके बिम्ब भी सुगठित और स्पष्ट हैं।उनकी कविताएं प्रायः छोटी होती हैं , लेकिन उन्होनें कुछ लम्बी कविताएं भी लिखी हैं।'नेवला '' चनाजोरगरम ', ' भस्मासुर ' ,और ' हरिजन गाथा ' लम्बी कविताएं हैं। डा• रामविलास शर्मा लिखते है- ' नागार्जुन ने लोकप्रिय और कलात्मक सौन्दर्य के संतुलन और सामंजस्य की समस्या को जितनी सफलता से हल किया है , उतनी सफलता से बहुत कम कवि हिन्दी से भिन्न भाषाओं में भी कर पाए हैं ' ।
नागार्जुन ने जीवन के कोमल पक्ष : प्रेम और सौन्दर्य का भी बेहतरीन वर्णन अपनी कविताओं में किया है। ' सिदूर तिलकित भाल ' , ' तन गई रीढ़ ' , ' यह तुम थी ', पिछली रात ', 'न आए रात भर ट्रेन ',' एक फांक आँख एक फांक नाक ' इसी श्रेणी की कविताएं हैं। ' तन गई रीढ़ ' की इन पंक्तियों को देखिए -
' आगे से आया
अलकों से तैलाक्त परिमल का झोंका
रग - रग में दौड़ गई बिजली
तन गई रीढ़ '
' न आए रात भर ट्रेन ' की इन
पंक्तियों को देखें-
' लाल किनारी की पीली साड़ी में
बिल्कुल मांगुर मछली सी है उसकी देह की कांति
लगती है कितनी अच्छी
अब क्यों निकलेगें आँखों के डोरे
न आए रातभर मेलट्रेन ! '
' सिंदूर तिलकित भाल ' कविता में जनपद के प्रति गहरी आत्मीयता के साथ- साथ सिंदूर तिलकित भाल की याद आती है।इसमें एक प्रवासी की पीड़ा का मर्मस्पर्शी चित्रण किया गया है।इस कविता की इन पंक्तियों को देखें-
' मरूँगा तो चिता पर दो फूल देगें डाल
समय चलता जाएगा निर्बाध अपनी चाल
सुनोगी तुम तो उठेगी हूक
मैं रहूँगा सामने ( तसवीर में ) पर मूक
सांध्य नभ में पश्चिमांत - समान
लालिमा का जब करूण आख्यान
सुना करता हूँ , सुमुखि उस काल
याद आता है तुम्हारा सिंदूर तिलकित भाल '
अब नागार्जुन की उन तीन कविताओं के बारे में जानें जो नागार्जुन- काव्य की शिखर उपलब्धियों में गिनी जाती हैं। ये तीनों कविताएं एक - दूसरे से बिल्कुल भिन्न भी हैं।'
उनको प्रणाम ' शीर्षक कविता की इन पंक्तियों को देखिए-
' जो नहीं हो सके पूर्ण - काम
मैं उनको करता हूँ प्रणाम!
-----------------
जो उच्च शिखर की ओर बढ़े
रह- रह नव- नव उत्साह भरे ,
पर कुछ ने ले ली हिम- समाधि
कुछ असफल ही नीचे उतरे!
उनको प्रणाम! '
इस कविता में जय की आकांक्षा , पराजय का स्वीकार , परिस्थितियों की
प्रतिकूलता और भविष्य में विश्वास का एक साथ बेहतरीन वर्णन किया गया है।
' मंत्र ' शीर्षक कविता की इन पंक्तियों को देखें -
' ओं अष्टधातुओं की ईंटों के भट्ठे
ओं महामहिम, महामहो, उल्लू के पट्ठे
ओं दुर्गा दुर्गा दुर्गा, तारा तारा तारा
ओं इसी पेट के अन्दर समा जाए सर्वहारा
हरिः ओम् तत्सत् , हरिः ओम् तत्सत् ।'
इस कविता में हास्य- व्यंग्य , विडम्बना, अराजकता और करूणा का गजब वर्णन है।
' चंदू , मैनें सपना देखा ' कविता की इन पंक्तियों को देखें-
' चंदू , मैनें सपना देखा, इम्तिहान में बैठे हो तुम
चंदू , मैनें सपना देखा , पुलिस - भान में बैठे हो तुम
चंदू , मैनें सपना देखा , तुम हो बाहर, मैं हूँ बाहर
चंदू , मैनें सपना देखा , लाए हो तुम नया कलैंडर
इस कविता में जीवन की घटनाओं पर आधारित मध्यमवर्गीय आकांक्षाओं का बड़ा ही सटीक चित्र कवि ने खींचा है ।
इसके अलावे ' अकाल और उसके बाद ' , ' खुरदरे पैर ' ,
' पछाड़ दिया मेरे आस्तिक ने ', 'मनुष्य हूँ ' , तथा ' कालिदास' इनकी प्रसिद्ध कविताएं हैं।
'कालीदास' कविता की इन पंक्तियों को देखें-
' कालीदास, सच- सच बतलाना !
इंदुमति के मृत्युशोक से
अज रोया या तुम रोये थे ?
कालिदास , सच- सच बतलाना ! '
कवि का कहना है कि रचनाकार के व्यक्तिगत सामाजिक अनुभवों से ही काव्यानुभवों की संरचना निर्मित होती है।
' अकाल और उसके बाद '
कविता की इन पंक्तियों को देखें-
कई दिनों तक चूल्हा रोया ,
चक्की रही उदास
कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त
कई दिनों तक चूहों की हालत रही शिकस्त "
इस कविता में कवि की संवेदना केवल मनुष्य लिए ही प्रकट नहीं होती बल्कि निरन्तर मनुष्य के साथ रहने वाले चूहे , छिपकलियों और कानी कुतिया के लिए भी प्रकट होती है।सम्पूर्ण सृष्टि को एक अखंड सत्ता मानने के कारण ही ऐसा संभव है ।
'हिन्दी साहित्य का इतिहास ' में (डा• नगेन्द्र द्वारा संपादित ) नागार्जुन की कविताओं के सम्बन्ध में इस प्रकार वर्णन किया गया है-
" इनकी कविताएं मुख्यतः तीन तरह की हैं। कुछ कविताएं गंभीर संवेदनात्मक और कलात्मक हैं , जिनमें कवि ने मानव - मन की रागात्मक और सौंदर्यमयी छवियों को अंकित किया है और साथ ही साथ मनुष्य की मानवीय सम्भावनाओं के प्रति आस्था व्यक्त की है। दूसरी कोटि की कविताएं वे हैं जो
सामाजिक कुरूपता , राजनीतिक अव्यवस्था और धार्मिक अन्धविश्वास पर चुभता हुआ व्यंग्य करती है।
नागार्जुन की तीसरी कोटि की कविताएं उद्बोधनात्मक हैं किन्तु काव्य - तत्व की दृष्टि से हलकी हैं।' बादल को घिरते देखा है', ' पाषाणी ', ' चन्दना '
'रवीन्द्र के प्रति', 'सिंदूर तिलकित भाल', 'तुम्हारी दंतुरित मुस्कान ' आदि कविताएं इनकी उत्तम प्रगतिवादी कविताएं हैं " । नागार्जुन एक कवि के साथ - साथ प्रसिद्ध उपन्यासकार भी हैं। प्रख्यात साहित्यकार विजय बहादुर सिंह ने ' नागार्जुन के रचना- संसार ' कृति में लिखा है-" समाज -सजग लेखक होने के नाते उनके ये उपन्यास हमारे सामाजिक और राजनीतिक जीवन के महत्वपूर्ण दस्तावेज कहे जा सकते हैं।
डा• बच्चन सिंह ने अपने इतिहास में ग्राम- कथाकार की श्रेणी में रखते हुए उन्हें प्रेमचन्द और यशपाल परम्परा की मध्यभूमि पर प्रतिष्ठत करना चाहा है।डा• रामविलास शर्मा ने तो उन्हें 'ग्राम कवि' की ही संज्ञा दे डाली है।लेकिन वास्तविकता यह है कि नागार्जुन ग्राम - कथाकार न होकर भारतीय समाज के कथाकार हैं।वे अपने उपन्यासों में आर्थिक और सामाजिक समस्याओं को उनकी जटिल संश्लिष्टता में उठाते हैं।उनके उपन्यास नए भारत की स्वातन्त्रयोत्तर अपेक्षाओं के संदर्भ में लिखे गए हैं ।साधारण आबादी को लेकर उनके मन में कुछ सपने हैं और ये तभी पूरे होगें जब जनता खुद उनके लिए सचेष्ट
होंगी।दूसरों के बूते पर आम जनता का स्वर्गयुग नहीं आ सकता" ।
आगे वे लिखते हैं-" नागार्जुन राजनीतिक दृष्टि सजग लेखक हैं।राजनीतिक दृष्टि से सजग लेखक की पहली जिम्मेदारी है कि उसकी प्रतिबद्धता जनता के प्रति है न कि जनवादी मुखौटेवाली राजनीति के प्रति ।
नागार्जुन ऐसे ही लेखक है। कह सकते हैं कि नागार्जुन अधूरी दुनिया के लेखक नहीं हैं।अतः न तो वे कोरे आर्दशवादी हैं और न ही कोरे यथार्थवादी ।उनके उपन्यास किसी निश्चित राजनीति या सामाजिक चिन्ता से जन्म लेते हैं और किसी स्पष्ट इशारे के साथ खत्म होते हैं "। वे सत्ता के क्रीत - दास नहीं थे ।उन्हें कोई प्रलोभन कभी डिगा नहीं सका । वे केवल कलम के मजदूर और योद्धा थे ।वे केवल जनता के कवि और उपन्यासकार थे।उन्होनें जनता पार्टी के शासन में चन्द्रशेखर द्वारा दिए गए राज्य सभा के प्रस्ताव को ठुकराने में देरी नहीं की ।उनका मानना था कि साहित्यकारों को सदा मशाल लेकर राजनीति के आगे चलना चाहिए ।शोषण मुक्त और समतामूलक समाज की स्थापना के लिए सदैव वे अपनी रचनाओं के माध्यम से प्रयत्नशील रहे।1965 ईस्वी में
साहित्य अकादमी पुरस्कार उनकी मैथिली कृति ' पत्रहीन नग्न गाछ ' के लिए उन्हें प्रदान किया गया । उन्हें 1994 ईस्वी में साहित्य अकादमी फेलो के रूप में नामांकित कर सम्मानित किया गया । 5 नवम्बर 1998 ईस्वी को इनका निधन हो गया।
लेखक - अरूण कुमार यादव
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