अनुवादक को जानिये सेतु पवन या भोर
अब हम चलते हैं पुस्तक की ओर जहाँ शुभकामनाओं वाले पृष्ठ से आगे अनुवादक मैथिली राव जी के वक्तव्य हैं। उनका वक्तव्य आरम्भ होता है सुपरिचित कवि जयशंकर प्रसाद जी की प्रेरक पंक्तियों से। उसके बाद वे लिखती हैं कि मूल लेखक डॉ. डी वी गुरु प्रसाद जी ने पुलिस महानिदेशक पद पर रहकर देश को अपनी सेवा प्रदान की है। लेखक का यह सफर कठिनाइयों से भरा था जिसे आज की पीढ़ी के सामने अवश्य आना चाहिए जिससे वे संघर्षों से घबराएं नहीं। मैथिली जी ने उनकी आत्मकथा को सर्वसुलभ करवाया, इसके लिए वे साधुवाद की पात्र हैं।

भारतवर्ष साहित्य में आदिकाल से ही समृद्ध है। पहले मौखिक, फिर भोजपत्रों पर हस्तलिखित, आगे पन्नों पर प्रकाशित होकर सुधि पाठकों के बीच आते रहे हैं।
अपने अपने क्षेत्र के अनुसार भाषा, बोली और लिपि के कई स्वरूप सामने आए। विचारों से समृद्ध विद्वानों ने जब कागज़ पर मसि का प्रयोग किया तो विभिन्न लिपियों में शब्द उकेरे गए। अपनी मातृभाषा के अतिरिक्त अन्य भाषाओं के व्याकरण भी सामने आए। तब ज्ञानी सुधीजनों ने उन्हें सीखने का प्रयास किया और वे कई भाषाओं और लिपियों के जानकार बन गए। बहुभाषी विद्वानों ने तब अनुवाद का महत्वपूर्ण कार्य आरम्भ किया। एक लिपि को दूसरी लिपि में अनुदित करके पाठकों को उपलब्ध करवाया। अनुदित करते समय लेखक के भाव को पकड़ना बेहद आवश्यक है जिससे वह पाठकों के सामने सही स्वरूप ल सके। इसके लिए साधना की आवश्यक होती है और यह कार्य किया है मैथिली पी राव जी ने। कन्नड़ में लिखी गयी डॉ. डी वी गुरुप्रसाद जी की आत्मकथा हिन्दी पाठकों को उपहार के रूप में दिया। `सपना जो न हुआ अपना' हिन्दी शीर्षक से अनुवादक की सद्य-प्रकाशित पुस्तक आयी है जो अति महत्वपूर्ण है। जीवन है तो संघर्ष है...जिसने संघर्ष कर लिया, फिर तो हर्ष ही हर्ष है।
मुझे यह पुस्तक मैथिली जी के ही करकमलों से उपहारस्वरूप मिली है। सर्वप्रथम मैं अनुवादक के लिए दो कुंडलियाँ लिख रही हूँ, उसके उपरांत पुस्तक पर आती हूँ।
मिलते सेतु बिना नहीं, नदिया के दो छोर।
अनुवादक को जानिये, प्राची में की भोर।
प्राची में की भोर, सृष्टि को चमकाती।
सुरभित होते पुष्प, सुगंध पवन से आती।।
द्विभाषिक विद्वान, शब्द अनुदित कर खिलते।
नदियों के दो कूल, सेतु बिना नहीं मिलते।१।
अनुवादक को जानिये, भाषा में समृद्ध।
कन्नड़ का साहित्य अब, हिन्दी में है सिद्ध।।
हिन्दी में है सिद्ध, कायगे तुत्तु की बातें।
कलमवीर हैं `राव', मिली सबको सौगातें।।
मनोयोग का कार्य, सदा करते हैं साधक।
मूल हैं `गुरु प्रसाद', 'मैथिली' जी अनुवादक।२।
अब हम चलते हैं पुस्तक की ओर जहाँ शुभकामनाओं वाले पृष्ठ से आगे अनुवादक मैथिली राव जी के वक्तव्य हैं। उनका वक्तव्य आरम्भ होता है सुपरिचित कवि जयशंकर प्रसाद जी की प्रेरक पंक्तियों से। उसके बाद वे लिखती हैं कि मूल लेखक डॉ. डी वी गुरु प्रसाद जी ने पुलिस महानिदेशक पद पर रहकर देश को अपनी सेवा प्रदान की है। लेखक का यह सफर कठिनाइयों से भरा था जिसे आज की पीढ़ी के सामने अवश्य आना चाहिए जिससे वे संघर्षों से घबराएं नहीं। मैथिली जी ने उनकी आत्मकथा को सर्वसुलभ करवाया, इसके लिए वे साधुवाद की पात्र हैं।
पुस्तक चौदह अध्याय में बंटी हुई है। हर अध्याय एक सीख है। लेखक की आत्मकथा उनके प्रारंभिक दिनों अर्थात बचपन से आरम्भ होती है। यह अध्याय संयुक्त परिवार के महत्व को दर्शाती है जहाँ दादी, बुआ ने उनमें आध्यात्मिक एवं नैतिक मूल्यों के बीज बोए। माता-पिता के अनुशासन ने अन्न का सम्मान करना सिखाया। पढ़ाई के मामले में लेखक थोड़ा पीछे रहे। इसका कारण उन्होंने यह दिया कि बच्चों को वही विषय पढ़ने देना चाहिए जिसमें उनकी रुचि। लेखक की रुचि आर्ट्स विषयों में थी जबकि उन्हें साइंस गणित लेने के लिए बाध्य किया गया। आगे विज्ञान में दो तीन असफलताओं को झेलकर स्नातक होने के बाद भी उनका रुझान अंग्रेज़ी साहित्य की ओर रहा। यह ईश्वर की ही मंशा रही होगी कि कई जतन करने के बाद स्नातकोत्तर में नामांकन लेने में सफल रहे और फाइनल में प्रथम रैंक भी आया। लेखन कार्य उसी समय से आरम्भ हो गया और लेखक की रुचि उसमें बढ़ती गयी।
दूसरा अध्याय उस सपना की कहानी है जो हर सम्भव प्रयासों के बाद भी अपना नहीं हो सका। आई ए एस बनना चाहते थे लेखक किन्तु आई पी एस पर ठहराव हुआ। इस अध्याय में मुख्य बात ये रही कि किसी भी प्रतियोगिता को निकालने के लिए पिछले दस वर्षों के प्रश्न पत्र सॉल्व कर लिए जाएँ तो वह सफलता को निश्चित करने की दिशा में सहायक होता है।
तीसरा अध्याय आई पी एस के कड़े प्रशिक्षण पर लिखा गया है। उस दौरान लेखक को भारत के विभिन्न प्रदेशों के प्रशिक्षुओं से मिलकर भारत की विविधता का भान हुआ। विविधता में एकता का संकल्प लेना, ईमानदारी से नौकरी करना, रिश्वत न लेना आदि का संकल्प एक आत्मविश्वास था जिसे अंत तक निभाया गया। इस दौरान सभी विषयों में अच्छा रैंक पाकर भी घुड़सवारी में पीछे रह जाने के कारण प्राप्त रैंक में कमी हो गयी। उस दौरान भारत भ्रमण, प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई का आना, हम्पी के निकट प्राप्त अवशेषों का पता लगाकर १०० से अधिक मूर्तियों को जब्त करना, चंदन की तस्करी रोकना आदि प्रमुख कार्य रहे।
‘नए विभाग नए अनुभव’ में लेखक ने बहुत ही भावपूर्ण अनुभव साझा किए हैं। कतर के राजा की सुरक्षा के दौरान उनके द्वारा दी गयी धनराशि को उन्होंने विनम्रता से लौटाया। राजा बड़े प्रभावित हुए, उन्होंने बाद में भेंटस्वरूप एक घड़ी दी जो गुरु प्रसाद जी को आज भी प्रिय है। आज के भ्रष्टाचार के युग में यह स्वाभिमान और अनुशासन समाज में प्रेरणा का काम करेगा। अनुवादक मैथिली राव जी ने अनुवाद के माध्यम से बहुत बड़े वर्ग तक यह बात पहुंचाई है।
कोडगु जिला के एस पी के रूप में गुरुप्रसाद जी ने म्यान्स कंपाउंड को लोगों से सहयोग माँगकर हॉकी स्टेडियम के रूप में विकसित करवाया जिससे राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय हॉकी प्रतियोगिताएं करवाई जा सकें। यह कहा जा सकता है कि जनता की शौक को महत्व देना गुरुप्रसाद जी की सूक्ष्म दृष्टि का परिचायक है। इसके अतिरिक्त कुख्यात तस्कर वीरप्पन का भी जिक्र है जो हाथी की तस्करी के लिए उन्हें मार डालता था। फिल्मों के प्रति लेखक का रुझान भी पता चलता है। देवानंद साहब की अनुशासनप्रियता का वर्णन प्रेणादायक है। इसके अतिरिक्त गाइड फ़िल्म में कहानी के बदलाव पर लेखक का प्रश्न, उम्र सम्बंधित उनकी पत्नी का प्रश्न और देव साहब का उत्तर पढ़ने लायक है।
लेखक का गुलबर्गा जिले में स्थानांतरण होना कर्नाटक शास्त्रीय संगीत के लिए सौभाग्यपूर्ण रहा। कभी कभी स्वयं के कारण कहीं चयन न हो तो मन कैसे आहत होता है इसे स्वीकार कर लेना बड़प्पन का काम है। व्यायाम न करके शारीरिक आकर को सुदृढ़ रखने में लेखक असफल हो गए तो बहुत अच्छी पोस्ट भी हाथ से जाती रही। इस असावधानी को अपराध के रूप में स्वीकार किया जाना बड़ी बात है। इसी दौरान टैलर्स मंजिल अतिथिगृह में ब्रिटिश औरत के भूत से रु-ब-रु होना भी रोमांचक संस्मरण रहा।
दिल्ली में रहने का अनुभव यह बताता है कि सभी शहरों में एक तरह की सुविधा नहीं मिलती। दिल्ली में सभी नागरिक समान हैं और उन्हें विशेष सुविधा या प्रमुखता नहीं दी जाती। उसके आगे लेखक की विदेशी प्रशिक्षण के दौरान लंदन यात्रा की बात है। यहाँ पर लंदन स्थित वेकफील्ड नामक स्थान गुरुप्रसाद जी को इसलिए पसन्द आया क्योंकि बचपन में इसी नाम का कस्टर्ड लोकप्रिय था। यह बात जाने कितने पाठकों को भावविभोर कर देगी। अपने कार्यकाल के दौरान गुरुप्रसाद जी ने विभिन्न बड़े नेताओं की सुरक्षा व्यवस्था की जो चुनाव काल के समय भाषण देने आते थे। उस समय एक वाकया रेखांकित करने योग्य है। वह है उप प्रधानमंत्री देवीलाल का गुलबर्गा आना। देवीलाल जी को हर दिन भैंस का शुद्ध दूध पीने की आदत थी। गुलबर्गा में यह इंतज़ाम मुश्किल था तो उप प्रधानमंत्री के साथ उनकी भैंस भी लायी गयी जिसे पुलिस की सुरक्षा में आवास-ए-शाही अतिथि गृह में रखा गया।
पुलिस की नौकरी में अपराधियों से कितने खतरे होते हैं इसे वीरप्पन द्वारा पुलिस अधिकारी हरिकृष्ण के बलिदान के द्वारा लेखक ने बताया है। पुलिस की नौकरी करते हुए अंग्रेज़ी साहित्य में पी एच डी करना यह बताता है कि `जहाँ चाह वहाँ राह'। के. एस. आर. टी. सी. देश के वृहत परिवहन संस्थाओं में एक है। वहाँ के पदाधिकारी बनकर लेखक ने बस टिकट में चल रहे कंडक्टरों के घोटाले पर लगाम लगाई। लेखक ने हुब्बली-धाड़वार की नियुक्ति में बस सर्बिसेज से सम्बंधित कई जानकारियां साझा कीं। कर्नाटक में चलनचित्रोत्सव न हो पाने का दुःख व्यक्त किया क्योंकि इसके लिए काफी तैयारियाँ की गई थीं।
`सपना जो न हुआ अपना', अध्याय में नौकरी में पद को लेकर होने वाली राजनीति का अच्छा चित्र खींचा गया है। वरिष्ठ होते हुए भी प्रमुख का पद देने में टालमटोल करना एक सरकारी षड्यंत्र ही होता है। बहुत प्रयास के बावज़ूद भी प्रमुख न पाना लेखक के जीवन की विडंबना बनी जो कसक बनकर मन में विराजमान हो गयी। उसपर कुछ दैवी लीला भी इस प्रकार रही कि सेवानिवृति के समय दुर्घटनाग्रस्त होने के कारण बिस्तर पर से ही अपना पद छोड़कर आगामी अधिकारी को पद सौंपना पड़ा। पुस्तक का सार `निवाला हाथों में होकर भी मुँह तक न पहुँचे तो ये कौन तय करता है। पुरुषार्थ के साथ प्रारब्ध भी होना चाहिए तभी मनचाहा प्राप्त हो सकता है। ३५ वर्षों की पुलिस सेवा में स्वयं को ईमानदार, कर्मठ, अनुशासित, विनम्र बनाये रखना और ससम्मान सेवानिवृत्ति लेना बहुत महत्वपूर्ण बात है। अच्छे ईमानदार लोग सबकी नजर में रहते हैं। ऐसा ही हुआ लेखक के साथ जब सेवानिवृत्ति के उपरांत उन्हें गोकुल फाउंडेशन से प्रशासनिक पद पर कार्य हेतु बुलाया गया। इस प्रकार उनकी दूसरी पारी का शुभरम्भ हुआ। उसी दौरान कोविड में घर में रहने पर उनकी अन्य पुस्तकें भी आईं।
मैथिली पी राव जी ने इस महत्वपूर्ण प्रेरणादायी पुस्तक का अनुवाद किया, इसके लिए हिन्दी साहित्य जगत आपका सदैव ऋणी रहेगा। आगे भी उनके द्वारा अनुदित पुस्तकों का लाभ मिलता रहे इसके लिए हार्दिक शुभकामनाएं!!
ऋता शेखर 'मधु’
बंगलुरू
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