उत्तिष्ठ भारत: मां भारती पुकारती ...
This article reflects the spirit of nationalism, action, and unity on the sacred occasion of India’s Independence Day. It calls for dedication to the motherland, preservation of India’s integrity, and the promotion of Hindi as the language of the nation. Through self-awareness and responsibility, it inspires citizens to ask, “What have I given to my nation?”—urging every Indian to uphold sacrifice, action, and awakening for a stronger, united India. कर्म की गतिशीलता जब प्रबलता से अभिमुखित होती है तो उसमें जोश के साथ होश का समावेश केवल इतना संकेत देता है कि आमजन की सूझ-बूझ पर अभी कोई भी प्रश्न चिन्ह नहीं लगा है और वह अपने व्यक्तित्व एवम कृतित्व के सुदृण स्वरूप को भली–भांति समझता है। हमारे कर्मों में पारदर्शिता की परिणिति ही राष्ट्र के अखंड स्वरूप की रक्षा में अपना योगदान निरूपित कर सकती है।
‘राष्ट्रीयता के बोध से भरे हुए–हम सभी जन क्या ...? स्वतंत्रता दिवस के महान अवसर पर भारत की अखंडता को बनाए रखने के लिए अंतःकरण से इस भाव, विचार एवं आत्म जगत को अभिव्यक्त कर पाएंगे..? जिससे हमारी स्मृतियों में सदैव यह झंकृत स्वरूप में बना रहे कि – आखिर मैंने राष्ट्र को क्या दिया ...? कर्म प्रधान विश्व रचि राखा..; की गरिमा आज मानव–बोध का प्रश्न आखिर क्यों बन गया है ...? राष्ट्र के प्रति जागृत भाव किसी एकांत स्थिति का द्योतक नहीं है बल्कि वह तो जीवन के गुणात्मक स्वरूप को उद्दीप्त करने वाला सफल पक्ष है जो अंतःकरण की परिशुद्धता को मानव हृदय में बसाए रखने का सात्विक साधन बनकर, साध्य के प्रति कल्याणकारी दृष्टिकोण बनाए रखने में मददगार साबित होता है । संपूर्ण विश्व के नवनिर्माण में - ' विश्व गुरु की महानतम `भूमिका का निर्वहन-' भारत भाग्य विधाता...की महान कल्पनाशीलता, सृजनात्मक परंपरा एवं नवाचारी दृष्टिकोण द्वारा ही पूर्णरूपेण संभावित एवं सुनिश्चित है जिसमें - सर्व मानव आत्माओं के उत्कर्ष में `नैसर्गिक जागृति से उन्नतशील-' परिवर्तित, परिमार्जित, परिवर्धित और परिष्कृत ' स्वरूप की व्यावहारिकता में परिणित होकर ही - `हम भारत के भाग्यशाली लोग ...' राष्ट्र उत्थान के परिदृश्य एवं परिवेश में - `राष्ट्रहित के लिए सर्वस्व न्योछावर...`अर्थात स्वयं को आत्मार्पित करते हैं । ’
उज्जवल चरित्र की व्यावहारिक पक्षधरता:-
भारतीय जनतंत्र का अंत:करण सुप्रभात की मंगल बेला में अभिप्रेरणात्मक शक्ति संचार की अनुभूति के साथ–उत्तिष्ट भारत के रहस्य को अपनी मन:स्थितियों से स्वीकार कर चुका है क्योंकि मां भारती की पुकार उसके जीवन तक पहुंच गई है और श्रेष्ठ नागरिक बोध ने अपनी सामर्थ्य शक्ति को समर्पण के मार्ग तक ले जाने का निश्चय कर लिया है क्योंकि यदि अब नहीं जागे तो राष्ट्र का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा और जब हमारी स्वतंत्रता का सबल पक्ष ही धराशाई हो जाएगा तो हम उसके पश्चात जीवन जीकर भी क्या करेंगे? जागृति का व्यावहारिक पक्ष कहीं ना कहीं से हमें कर्तव्यनिष्ठा की ओर ले जाता है जिसमें कर्म के प्रति संचेतना जागृत होना स्वाभाविक है परंतु मानवीय चिंतन का चैतन्य सकारात्मक पहलू, सदा साथ निभाते रहे इसके लिए आवश्यक है कि हम पूर्णत: कर्मनिष्ठ बन जाएं । राष्ट्र प्रेम के प्रति उद्दाम चरित्र की अभिव्यक्ति हमारे कृत्य द्वारा ही संपादित हो सकती है जिसे भावनात्मक पक्ष के सहारे उकेरना संभव प्रतीत नहीं होता क्योंकि भावनाओं के सानिध्य में सैद्धांतिक परिवेश का निर्माण तो किया जा सकता है लेकिन उसका क्रियान्वयन तो हमारे उज्जवल चरित्र का व्यवहार पक्ष ही मुखरित कर सकता है।
अखंड राष्ट्र की रक्षा में स्वयं का उत्सर्ग :-
मातृत्व की उदारता ने जब हमारे पालन – पोषण में अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया तो उसकी पुकार को कैसे अनसुना किया जा सकता है? क्योंकि भारत मां की पुकार में संपूर्ण अस्तित्व ही समाहित है और उत्सर्ग का सौभाग्य किसी भी कीमत पर छोड़ा नहीं जा सकता। राष्ट्र ने हमें सब कुछ दिया है जिसकी अनुभूति के परिणाम को अंतरमन से हृदय में संजो लेना हम चाहते हैं जिससे कि यह बोध पूर्णतः स्पष्ट हो जाए कि–मैने राष्ट्र को संपूर्ण जीवन काल में क्या दिया है? सुनिश्चित जागृति के पश्चात ही भोर की परिकल्पनाओं को साकार किया जा सकता है जिसमें सौभाग्य का सम्मिश्रण पूर्णत: उस समय सुनिश्चित हो जाता है जबकि मानव द्वारा गतिशीलता को पूरे मन से आत्मसात कर लिया गया हो। संकल्पित हृदय से जब यह स्वीकार कर लिया जाएगा कि–मुझे राष्ट्र की रक्षा में स्वयं का उत्सर्ग करना है तो कोई कारण नहीं कि हम अपने योगदान को निरूपित ना कर पायें। जागृति के लोकतांत्रिक दावों को झुठलाने का प्रयास नहीं किया जाना चाहिए लेकिन पंचों के मुख से परमेश्वर बोलने के यथार्थ को तो स्वीकार करना ही होगा जहां से कुछ ऐसे तथ्य एवं सत्य ऊभरकर सर्व मानव आत्माओ के सम्मुख प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से प्रकट हो जाते हैं जिनके प्रति विकास के तमाम दावों के पश्चात भी कोई फर्क नहीं पड़ने वाली स्थिति आज भी बनी हुई है ।
राष्ट्रीय चेतना का संपूर्ण चैतन्य स्वरूप : –
कर्तव्यनिष्ठा का आत्म संतोष हमारे लिए गौरव की बात बन जाए तब कहीं जाकर राष्ट्र के विकासात्मक परिप्रेक्ष्य में अपनी सहभागिता की सुनिश्चितता संपूर्ण रूप से निर्धारित की जा सकती है । हमारे आत्म तत्व को केवल भारत मां की पुकार ही राष्ट्रीय चेतना के स्वरूप में झंकृत कर सकती है जिसकी अनुभूति न केवल आंतरिक रूप में बल्कि बाह्य क्रियाकलापों में भी सहज ही परिलक्षित होती रहती है। अब प्रश्न उठता है कि राष्ट्र के लिए हमारे समर्पण का स्वरूप क्या हो ? हमें कौन सा पक्ष विशेष रूप से अभिप्रेरित करता है ? क्या हम सोचते हैं कि एक बार में जो है वैसे ही न्योछावर हो जाएं? समर्पण के प्रति हमारी स्वीकृतियां किस सीमा तक जा सकती हैं? क्या अधिकार एवं कर्तव्य के प्रति हमारी सजगता समान रूप से भाव और विचार जगत को प्रस्तुत कर पाती है ? कर्म प्रधान विश्व रचि राखा ..; की गरिमा आज मानव – बोध का प्रश्न आखिर क्यों बन गया है? राष्ट्र के प्रति जागृत भाव किसी एकांत स्थिति का द्योतक नहीं है बल्कि वह तो जीवन के गुणात्मक स्वरूप को उद्दीप्त करने वाला सफल पक्ष है जो अंतःकरण की परिशुद्धता को मानव हृदय में बसाए रखने का सात्विक साधन बनकर, साध्य के प्रति कल्याणकारी दृष्टिकोण बनाए रखने में मददगार साबित होता है। उत्सर्ग के लिए आतुर हृदय कुछ भी समझने को तैयार नहीं है क्योंकि मातृत्व की उदारता ने हमारे निर्माण में सर्वस्व ही न्योछावर कर दिया जिसमें तथाकथित प्रश्नों की बौछार नहीं थी और आज जब मेरी बारी आई तो मैं प्रश्न वाचक चिन्ह की ओट में कैसे छिपकर बैठ जाऊं?
जननी के प्रति उत्तरदायित्वपूर्ण विश्वास का प्रकटीकरण निश्चित ही हमें शक्ति संपन्न बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ेगा केवल राष्ट्र रक्षा के यज्ञ में स्वयं की समिधा को श्रद्धापूर्वक अर्पित करने की आवश्यकता है।
दायित्वबोध द्वारा जिम्मेदारी एवं जवाबदेही :-
राष्ट्रीय परिपेक्ष में- `मातृभाषा , राजभाषा एवं राष्ट्रभाषा..' की उपयोगिता और अनिवार्यता, दीर्घकालीन बोधगम्यता का अनुभूतिगत व्यावहारिक पृष्ठभूमि की पक्षधरता द्वारा-राष्ट्र की संप्रभुता संपन्न, एकता एवं अखंडता को अक्षुण्ण बनाए रखने हेतु -`राष्ट्रभाषा हिंदी' के माध्यम से ही सुरक्षित और संरक्षित किया जा सकता है जिसमें आत्म परिष्कार तथा राष्ट्र गौरव की- `उपलब्धिपूर्ण प्रामाणिक पहचान ' को विश्व समुदाय के मध्य पुरजोर रूप से पुनर्स्थापित करने के लिए - `यही समय है, सही समय है अर्थात समग्रता का अमृत काल है '। भारत विश्व गुरु की महानता के अंतर्गत - `अतीत , आगत एवं अनंत तीनों ही स्वरूप में -' था भी, है भी और सदा रहेगा भी `इसलिए संपूर्ण भारतीयता की मनोभूमि में प्रत्येक जिम्मेदार नागरिक स्वयं की - `सात्विक चेतना के दायित्वबोध' द्वारा जिम्मेदारी और जवाबदेही का क्रियान्वयन- `राष्ट्रहित और आत्म कल्याण' हेतु ईमानदारीपूर्ण व्यवहार से ही शेष जीवन में - `संपूर्ण रीति - नीति से सफलता पूर्वक आत्म जगत के माध्यम से संपन्न किया जाएगा, यह संकल्पबद्धता जीवात्मा से आज हम सभी देशवासी श्रेष्ठ नागरिक के रूप में राष्ट्र की शपथ के साथ जीवन में अंगीकार करते हैं।
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राष्ट्र की आराधना का पवित्रतम आह्वान : -
`राष्ट्रभाषा हिंदी की गौरवशाली ' समृद्ध परंपरा को- `भारत के स्वतंत्रता दिवस के महान अवसर पर संपूर्ण-भारतीय जनमानस अंतर्मन से सदा के लिए स्वीकार करते हैं क्योंकि राष्ट्र के मुखिया द्वारा संप्रेषित - ' मन की बात ' को अंतःकरण से स्वीकारते हुए अमृतकाल में समस्त भारतीयता की राष्ट्रीय अवधारणा के माध्यम से - ' मन, बुद्धि एवं संस्कार ' के साथ निज भाषा की गौरव गाथा - ' राष्ट्रभाषा हिंदी ' को मानव जीवन में संपूर्ण - ' व्यक्तित्व विकास ' की प्राथमिक अनिवार्यता के रूप में अंतर्मन से - ' आदर एवं सम्मान ' पूर्वक आत्मसात करते हुए विकसित राष्ट्र की श्रेणी में स्वयं को रूपांतरित करते हैं। हम- `करें राष्ट्र आराधन...' के पवित्र आह्वान को भारत माता के सच्चे सपूत बनकर - ' संपूर्ण सत्व को अर्पित ' करने का सबूत देने में समर्पित श्रेष्ठता जब - `उत्तिष्ठ भारत: मां भारती पुकारती ' की मंगलकारी ध्वनि की जीवंतता को क्रियान्वित करने में - `राष्ट्र की स्वतंत्रता के लिए अमर बलिदानी ' महान भारतीय सपूतों को - `शत शत नमन... वंदन...एवं अभिनंदन... के साथ सादर प्रणाम... और भावभीनी...श्रद्धांजलि...' अर्पित करते हैं तथा निष्ठापूर्ण रूप से अमर शहीदों की गरिमामयी - ' राष्ट्रभक्ति , श्रद्धा एवं आस्था ' को आत्म जगत से राष्ट्र - ' धर्म , कर्म एवं मर्म ' के उज्जवल स्वरूप में सन्निहित-
`उच्चतम मानदंड' को शेष जीवनकाल में अनुकरण और अनुसरण करने हेतु दृढ़ संकल्प करते हैं ।
संवेदनशील मानवता की गौरवशाली परंपरा :-
कर्म की गतिशीलता जब प्रबलता से अभिमुखित होती है तो उसमें जोश के साथ होश का समावेश केवल इतना संकेत देता है कि आमजन की सूझ – बूझ पर अभी कोई भी प्रश्न चिन्ह नहीं लगा है और वह अपने व्यक्तित्व एवम कृतित्व के सुदृण स्वरूप को भली–भांति समझता है। हमारे कर्मों में पारदर्शिता की परिणिति ही राष्ट्र के अखंड स्वरूप की रक्षा में अपना योगदान निरूपित कर सकती है। राष्ट्रीयता के बोध का आकलन हम अपनी कर्मगत भूमिकाओं से आसानी से लगा सकते हैं जब हमारे ही द्वारा अपनी सात्विक प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाने का दुष्कर्म किया जाता है और हम उस वक्त उफ तक नहीं करते? अहम की टकराहट से जुड़ी मानसिक उद्विग्नता में जब हमसे यह कहलवा देती है कि देश ने मुझे क्या दिया...? तो हमारी मानसिकता का दिवालियापन सिर चढ़कर बोलने का अभिनय करने लगता है। जीवन की परिवर्तनशीलता के लिए हमारे व्यवहार का बोझिल पक्ष उस समय समाप्त हो जाएगा जब हम दोषारोपण के अभिशाप से मुक्त होने का संकल्प कर लेंगे।
राष्ट्रीयता के बोध से भरे हुए हम सभी जन क्या ...? स्वतंत्रता दिवस के महान अवसर पर भारत की अखंडता को बनाए रखने के लिए अंतःकरण से इस भाव , विचार एवं आत्म जगत को अभिव्यक्त कर पाएंगे ..? जिससे हमारी स्मृतियों में सदैव यह झंकृत स्वरूप में बना रहे कि-आखिर मैंने राष्ट्र को क्या दिया...? भारतीय आत्मा की विश्व स्तरीय गौरवशाली समग्रता से समृद्ध बौद्धिक संपदा से परिपूर्ण , संवेदनशील मानवता की ओर से - `श्रेष्ठ, श्रेष्ठतर एवं श्रेष्ठतम ' के सानिध्य में सदा अग्रसर रहते हुए देश की - ' आन , बान और शान ' को अखंड बनाये रखने में आत्मगत चेतना से समर्पित संपूर्ण देशवासियों को - ' भारत के स्वतंत्रता दिवस के महानतम पावन अवसर पर- `विजयी विश्व तिरंगा प्यारा... , सदा झंडा ऊंचा रहे हमारा...' की शुभ भावना से समर्पित स्वरूप में - ' श्रेष्ठ , शुभ एवं पवित्र ' आचार - विचार से ओतप्रोत , आशा और विश्वास की शक्ति से भरपूर, अनेकानेक ......शुभकामनाएं ......एवं ...... हार्दिक .... आत्मिक ...... बधाई .......
जय हिंद......!
डॉ. अजय शुक्ल
देवास, मध्य प्रदेश
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