पहली बोलती फिल्म की खो गई आवाज
उस फिल्म का नाम 'आलम आरा' (विश्व का प्रकाश) है और उस चीज का नाम है बेल एंड होवेल फिल्म प्रिंटिंग मशीन। 1931 में बनी इस फिल्म की प्रिंट इसी मशीन से निकाली गई थी। इस फिल्म से जुड़ी तमाम चीजें और उसकी प्रिंट पूरी तरह से खो गई है। उसके थोड़े-बहुत फोटो और सिर्फ एक मशीन बची है।
भारत की सांस्कृतिक परंपरा में इतिहास को संभाल कर रखने में रुचि या आदत नहीं है। यह आरोप कोई नया भी नहीं है। इसका प्रमाण भी समय-समय पर मिलता रहता है। उदाहरण के रूप में पिछले साल एक समाचार आया था कि भारत की पहली बोलती हिंदी फिल्म के साथ जुड़ी एकमात्र चीज साड़ी बेचने की दुकान में धूल खाती मिली थी।
उस फिल्म का नाम 'आलम आरा' (विश्व का प्रकाश) है और उस चीज का नाम है बेल एंड होवेल फिल्म प्रिंटिंग मशीन। 1931 में बनी इस फिल्म की प्रिंट इसी मशीन से निकाली गई थी। इस फिल्म से जुड़ी तमाम चीजें और उसकी प्रिंट पूरी तरह से खो गई है। उसके थोड़े-बहुत फोटो और सिर्फ एक मशीन बची है।
सौतिक विश्वास नाम के पत्रकार ने 2020 में बीबीसी पर एक जानकारी दी थी कि 'आलम आरा' के निर्देशक अरदेशर ईरानी यह मशीन लाए थे। मुंबई में फिल्म स्टूडियो और लेबोरेटरी चलाने वाले नलिन संपत नाम के एक बिजनेसमैन के दादा ने 1962 में 2,500 रुपए में इस मशीन को खरीदा था। साल 2000 तक वह इस मशीन पर फिल्म डिवीजन की फिल्मों की प्रिंट निकालते थे। इसके बाद डिजिटल फिल्मों की टेक्नोलॉजी आ गई तो वह मशीन बेकार हो गई।
जानकारी के अनुसार मुंबई में फिल्म हेरिटेज फाउंडेशन चलाने वाले शिवेन्द्र सिंह डूंगरपुर नाम के फिल्ममेकर और रिस्टोरर पिछले एक दशक से 'आलम आरा' की कापी खोज रहे थे। फिल्म तो नहीं मिली, पर अचानक यह मशीन मुंबई के दादर इलाके में एक साड़ियों की दुकान से मिल गई थी। यह दुकान पहले सिने फोटो केमिकल वर्क्स के रूप में जानी जाती थी। नलिन संपत इसके मालिक थे। उनके दादा द्वारकादास संपत कोहिनूर फिल्म कंपनी के संस्थापक थे।
मजे की या दुख की बात यह है कि अरदेशर ईरानी जिस समय मुंबई में 'आलम आरा' बना रहे थे, तब उनकी स्टूडियो में ईरानी भाषा में 'लोर गर्ल' नाम की पहली बोलती फिल्म बन रही थी। इस फिल्म में 'आलम आरा' के ही बैकग्राउंड एक्टर और कपड़ों का उपयोग किया गया था। डूंगरपुर ने बीबीसी को बताया था कि 'ईरानी की आर्काइव्स में 'लोर गर्ल' सुरक्षित पड़ी है। पर भारत में 'आलम आरा' खो गई।'
1986 में पुणे के पारसी परिवार में पैदा हुए अरदेशर ईरानी बड़े हो कर अमेरिका की यूनिवर्सल स्टूडियो के प्रतिनिधि बने थे और मुंबई में एलेक्जेंडर सिनेमा चलाते थे। इसमें से ही उन्हें फिल्म बनाने की और कला-कारीगरी आई थी। 1917 में उन्होंने पहली गूंगी फिल्म 'नल दमयंती' बनाई थी। इसी अनुभव के आधार पर उन्होंने 1922 और 1924 में दो फिल्म कंपनियो की हिस्सेदारी में स्थापना की थी।
1925 में उन्होंने अपनी स्वतंत्र प्रोडक्शन कंपनी 'इम्पीरियल फिल्म' की स्थापना की। इस कंपनी ने 62 फिल्में बनाई थीं। 6 साल बाद उन्होंने साउंड टेक्नोलॉजी का उपयोग कर के पहली बोलती फिल्म 'आलम आरा' बनाई। फिल्म 14 मार्च, 1931 को रिलीज हुई थी।
इसमें एक राजा और उसकी दो झगड़ालू रानियों की कहानी थी। इसमें एक फकीर भविष्यवाणी करता है कि एक रानी राजा का वारिस पैदा करेगी। नाराज हो कर राजा की दूसरी रानी राजा के मंत्री से प्यार करने लगती है। पर मंत्री इससे मना कर देता है तो रानी उसे जेल में डाल देती है और बेटी आलम आरा का देशनिकाला कर देती है। आलम आरा बड़ी हो कर वापस आती है और राजकुमार से प्यार करने लगती है। दोनों रानियों की करतूत का खुलासा करती है और मंत्री को जेल से बाहर निकालती है।
फिल्म में मास्टर विट्ठल नाम के एक्टर ने राजकुमार, जुबेदा नाम की ऐक्ट्रेस ने आलम आरा, पृथ्वीराज कपूर ने मंत्री, बिब्बो ने आलम आरा की सहेली और मुहम्मद वजीर ने फकीर की भूमिका की थी। फिल्म में 7 गाने थे। इनमें से दो गाने 'दे दे खुदा के नाम प्यारे' लोकप्रिय हुआ था, जिसे मुहम्मद वजीर ने गाया था।
कहा जाता है की मुंबई आने के बाद पृथ्वीराज कपूर अरदेशर ईरानी से मिलने उनकी स्टूडियो गए थे। वहां उन्होंने रात अफगानी गार्ड के साथ गुजारी थी। सुबह अरदेशर ने देखा तो उन्हें यह लंबा-गोरा पठान पसंद आ गया था और फिल्म आलम आरा में भूमिका दे दी थी।
उस समय की साउंड टेक्नोलॉजी बच्चों के खेल जैसी थी। उस समय रेकॉर्डिंग के साधन नहीं थे। इसलिए एक्टर संवाद बोलते समय अपनी जेब में माइक्रोफोन रखते थे। दूसरे फिल्म की शूटिंग मुंबई की मैजेस्टिक टाॅकीज में की जाती थी, जहां लोकल ट्रेन का आना-जाना रहता था। उन ट्रेनों की आवाज न आए, इसलिए फिल्मों को आधी रात के बाद 1 बजे से 4 बजे के बीच शूट किया जाता था।
ईरानी ने एक पुराने इंटरव्यू में कहा था कि उन्होंने मुंबई आए एक विदेशी विशेषज्ञ मि. डेमिंग से साउंड रेकॉर्डिंग की शुरुआती तकनीक सीखी थी। डेमिंग प्रोड्यूसरों से सौ रुपए रोज का लेकर साउंड रेकॉर्डिंग कर देता था। उस समय सौ रुपए एक बड़ी रकम होती थी। इसलिए ईरानी कोशिश कर के खुद रेकॉर्डिंग करने लगे थे।
फिल्म रिलीज हुई तो उसका विज्ञापन अंग्रेजी में एक लाइन में लिखा गया था- आल लीविंग। ब्रीथिंग। हंड्रेड पर्सेंट टाकिंग। हिंदी में लिखा गया था- 78 मुर्दे इंसान जिंदा हो गए। उन्हें बोलते देखो। इसका अर्थ यह हुआ कि 78 एक्टरों ने आलम आरा में आवाज दी थी।
बोलती फिल्म की बात नई थी। इसलिए 'आलम आरा' सफल रही और इससे प्रेरित हो कर ईरानी ने तमाम बोलती फिल्में बनाईं। 1937 में उन्होंने 'किसान कन्या' नाम की पहली रंगीन फिल्म बनाई थी। डूंगरपुर कहते हैं, 'यह दुख की बात है कि हिंदी फिल्मों में बोलती फिल्मों की असाधारण शुरुआत करने वाली इस फिल्म की एक भी कापी हम संभाल नहीं सके। ताजमहल की तरह उसकी देखभाल होनी चाहिए थी।'
सौकत विश्वास उस जानकारी में लिखते हैं कि 1912 और 1931 के बीच बनी 1,138 से अधिक गूंगी फिल्मों का अतापता नहीं है। पुणे की इंस्टिट्यूट में इनमें से 29 फिल्में सुरक्षित हैं। हम इतने लापरवाह हैं कि इन फिल्मों के प्रिंट्स और नेगेटिव्स दुकानों,घरों, तहखानों, बखारों और थाइलैंड के सिनेमाघरों में पड़ी मिली हैं। फिल्म निर्माता मृणाल सेन 1980 में एक फिल्म की शूटिंग कर रहे थे, तब पुरानी बोलती बंगाली फिल्म का प्रिंट एक पुराने मकान में मिला था।
मुंबई में फिल्म प्रोप्स बेचने का काम करने वाले शहीद हुसेन अंसारी के पास 'आलम आरा' की एक बुकलेट है। उन्होंने बीबीसी से कहा है, 'हमारे पास यह साठ साल से है। मैंने सुना है कि फिल्म की यही एक चीज बची है। ऐसी चीजों की क्या कीमत है, यह किसे पता है।'
वीरेंद्र बहादुर सिंह
What's Your Reaction?