मेरा साया : राज खोसला की ट्रायोलाॅजी की तीसरी परछाई 

पंजाब के गांव से आए राज खोसला को बचपन से ही संगीत का शौक था।उन्होंने शास्त्रीय संगीत की तालीम ली थी और आल इंडिया रेडियो में उनकी पहली नौकरी भी एक संगीतकार के रूप में थी। वह गायक कलाकार बनने के लिए मुंबई के सिनेमाजगत में आए थे। परंतु देव आनंद ने उन्हें अपने दोस्त गुरुदत्त के सहायक के रूप में लगा दिया था और इस तरह राजजी का जीव फिल्म निर्देशन में लग गया। संगीत के शौक के कारण ही उनकी ज्यादातर तमाम फिल्मों में एक गाना ऐसा रहता था, जिसकी धुन लोकसंगीत से प्रेरित होती थी। जैसे कि 'झुमका गिरा रे... (मेरा साया), बिंदिया चमकेगी...और छुप गए सारे नजारे...(दो रास्ते), ना बाबा न बाबा पिछवाड़े बुड्ढा खांसता...(अनिता) और मार दिया जाए के छोड़ दिया जाए...(मेरा गांव मेरा देश)।

Nov 15, 2023 - 18:25
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मेरा साया : राज खोसला की ट्रायोलाॅजी की तीसरी परछाई 
Mera Saaya: The third shadow of Raj Khosla's trilogy

पिछली बार हमने 'मेरा साया' फिल्म के लोकप्रिय गाने 'झुमका गिरा रे बरेली के बाजार...' की बात की थी। माना जाता है कि यह गाना ठग-चोरों की लोकसंस्कृति से आया है। कहा जाता है कि ठग-चोर लोग गांवों के चौराहे पर नाच-गाना का तमाशा कर इसकी आड़ में लोगों के घरों में चोरी करते थे। 1966 में आई इस फिल्म में साधना की दो बहनें, गीता और रैना उर्फ निशा की दोहरी भूमिका थी। छोटी बहन रैना जो एक डाकू गैंग की सदस्य थी, वह एक महफिल में यह गाना गाती है। इस गाने के पीछे जो लोक कहावतें और अफवाहें हैं, उनकी बातें की गई थीं। यह गाना तो लोकप्रिय हुआ ही था, 'मेरा साया' फिल्म भी सफल रही थी। आज हम इसी फिल्म की बात करेंगे।

'मेरा साया' का निर्देशन राज खोसला ने किया था। साधना के साथ उनकी यह तीसरी फिल्म थी। दो साल पहले ही 1964 में मनोज कुमार के साथ सुपरहिट सस्पेंस फिल्म 'वह कौन थी?' बनाई थी। उसमें भी साधना की दो भूमिकाएं थीं। मदन मोहन ने इस फिल्म में अच्छे गाने दिए थे। इसके दो साल पहले 1964 में जाॅय मुखर्जी के साथ साधना को फिल्म 'एक मुसाफिर एक हसीना' निर्देशित की थी। 'मेरा साया' के बाद 1967 में राजजी ने मनोज कुमार और साधना को ले कर सस्पेंस फिल्म 'अनिता' बनाई थी।

पंजाब के गांव से आए राज खोसला को बचपन से ही संगीत का शौक था।उन्होंने शास्त्रीय संगीत की तालीम ली थी और आल इंडिया रेडियो में उनकी पहली नौकरी भी एक संगीतकार के रूप में थी। वह गायक कलाकार बनने के लिए मुंबई के सिनेमाजगत में आए थे। परंतु देव आनंद ने उन्हें अपने दोस्त गुरुदत्त के सहायक के रूप में लगा दिया था और इस तरह राजजी का जीव फिल्म निर्देशन में लग गया। संगीत के शौक के कारण ही उनकी ज्यादातर तमाम फिल्मों में एक गाना ऐसा रहता था, जिसकी धुन लोकसंगीत से प्रेरित होती थी। जैसे कि 'झुमका गिरा रे... (मेरा साया), बिंदिया चमकेगी...और छुप गए सारे नजारे...(दो रास्ते), ना बाबा न बाबा पिछवाड़े बुड्ढा खांसता...(अनिता) और मार दिया जाए के छोड़ दिया जाए...(मेरा गांव मेरा देश)।

'मेरा साया' साधना के कैरियर की बेहतरीन फिल्मों में एक है। राज खोसला देव आनंद और गुरुदत्त के साथ रह कर सस्पेंस फिल्मों के मास्टर हो गए थे। जिसकी शुरुआत 'सीआईडी' (1956) और 'काला पानी' (1957) से साथ-साथ हुई थी। दोनों में देव आनंद हीरो। राजजी कहानी का तानाबाना बुनने में माहिर थे, जिसमें दर्शकों को शुरुआत से ही संभावित रहस्य का संकेत दिया गया हो, पर जब तक अंतिम ट्वीस्ट न आए तब तक यह न कहा जा सके कि 'यह तो मुझे पहले से ही पता था।'

'मेरा साया' राजघराने के एक ऐसे वंशज ठाकुर राकेश सिंह (सुनील दत्त) की कहानी थी, जो गीता (साधना) नाम की युवती के साथ विवाह कर के वकालत पढ़ने के लिए लंदन जाता है। एक साल बाद पत्नी की बीमारी का समाचार पा कर राकेश वापस आता है और उसकी गोद में गीता दम तोड़ देती है।

पत्नी के गम से राकेश बाहर आता, तभी एक पुलिस इंसपेक्टर आ कर उससे कहता है कि उसने रैना नामकी एक डाकू को पकड़ा है, जो दावा करती है कि वह राकेश की पत्नी है। हूबहू गीता जैसी लड़की देख कर राकेश भी भ्रम में पड़ जाता है, यहां तक कि वह राकेश के साथ बिताए अंतरंग क्षणों को भी बताती है। राकेश को गीता के साथ बिताए दिनों की याद आ जाती है। खोसला ने फ्लैशबैक टेक्निक का उपयोग कर के गीता और राकेश के रोमांस को दिखाया था।

इंटरवल के बाद फिल्म नाट्यात्मक बनती है। राकेश को शक होता है कि उनके साथ कोई खेल खेला जा रहा है। गीता-रैना का मामला कोर्ट में जाता है। वकील होने के नाते राकेश ही रैना से उल्टेसीधे सवाल करता है और सभी के आश्चर्य के बीच रैना सही जवाब देती है। इस सवाल-जवाब से थक कर रैना बीमार हो जाती है और उसे पागलखाने में भर्ती करा दिया जाता है। वह वहां से भाग कर राकेश के घर आ जाती है और सब कुछ सचसच बता देती है।

गीता की एक बहन निशा थी, जो मां की तरह डाकू थी। गीता ने यह बात छुपा कर राकेश के साथ विवाह किया था। एक दिन निशा दयनीय हालत में एक रात के लिए आसरा लेने के लिए गीता के पास आती है। गीता उसके लिए दवा लेने के लिए बाहर जाती है, घर में किसी को शक न हो, इसके लिए निशा को अपने कपड़े और मंगलसूत्र पहना देती है।

गीता बाहर निकलती है तो निशा का पति डाकू सूर्यवर/रणजीत (प्रेम चोपड़ा) उसे निशा समझ कर उठा ले जाते हैं। अब निशा राकेश के घर में गीता बन कर रह जाती है और राकेश वापस आता है तो उसकी गोद में दम तोड़ती है। दूसरी ओर पुलिस रणजीत और गीता को पकड़ती है तो गीता यह साबित करने की कोशिश करती है कि वह निशा नहीं गीता है। अंत में रणजीत भी राकेश के पास आ कर कबूल करता है कि उसने निशा समझ कर गीता का अपहरण किया था।

जैसा ऊपर बताया है कि साधना ने राज खोसला के साथ तीन फिल्मों में काम किया था और तीनों ही फिल्में यादगार साबित हुई थीं। इसमें राज खोसला की कहानी कहने की टेक्निक को पूरे नंबर देने होंगे, पर दूसरा एक कारण साधना खुद थीं। साधना का चेहरे (खास कर आंखें) पर एक प्रकार का रहस्य का भाव रहता था। दुख का भाव हो या सुख का, साधना आंखों से अभिनय करती थीं। रील लाइफ और रियल लाइफ में भी उनका व्यवहार ऐसा रहता था कि लोगों को उनके बारे में जानने की उत्सुकता रहती थी। कहा भी जाता है कि जो रहस्यमय होता है उसका आकर्षण विशेष होता है। साधना के व्यक्तित्व में ऐसे असमंजस और मासूमियत का मिश्रण था, जो सस्पेंस फिल्म के पात्र के लिए एकदम फिट बैठता था। राजजी की इन तीनों फिल्मों में साधना की मंद-मंद मुस्कान मोनालिसा की पेंटिंग के साथ जोड़ी गई थी।

फिल्म 'मेरा साया' में उनकी दोनों भूमिकाएं परस्पर विरोधी थीं। एक ओर समृद्ध वकील की पत्नी गीता के रूप में वह मासूमियत के प्रतीकसमान थीं और दूसरी ओर निशा के रूप में निर्लज्ज डाकू थीं। 'वह कौन थी?' की तरह हो 'मेरा साया' को साधना ने अकेले हाथों से उठा लिया था। यह वह समय था, जब हिंदी फिल्मों में हीरोइनें शोभा के प्रतीक के रूप में सुंदर बन कर लोगों की नजरों को खींचने का करती थीं और कहानी का 'असली माल' हीरो के हिस्से में जाता। साधना तब हीरो जैसी थीं।

राज खोसला जैसे निर्देशकों ने मात्र साधना को ध्यान में रख कर फिल्में बनाई थीं और मनोज कुमार और उसी तरह सुनील दत्त जैसे बड़े हीरो 'साइड' में रहना मंजूर करते थे। जबकि 'मेरा साया' के लिए कहना होगा कि एक ओर पत्नी को खोने वाले और दूसरी ओर गीता बन कर निशा के आगमन से भ्रमित हुए राकेश की भूमिका में सुनील दत्त एकदम फिट थे। दत्त का चेहरा भोलेपन वाला था और राकेश की भूमिका भी ले दे कर बेवकूफ बनने वाली थी। सस्पेंस वाली फिल्मों में इसी तरह दिखाई देने की जरूरत होती है।

'मेरा साया' का दूसरा अहम पहलू उसका संगीत था। आशा भोसले की आवाज में इसका 'झुमका गिरा रे...' गाना लोकप्रिय हुआ ही था, परंतु संगीतकार मदन मोहन और गीतकार राजा मेहंदी अली खान की जुगलबंदी से लता मंगेशकर का टाइटल गीत, 'तू जहां जहां चलेगा, मेरा साया साथ होगा...' भी सदाबहार साबित हुआ था। फिल्म में यह गाना दो बार आया है। एक में तो सुख के दिनों का गाना है और दूसरे में दुखभरी यादों का गाना है। 

राग नंद अथवा राग आनंद कल्याण आधारित यह गाना लताजी के सर्वश्रेष्ठ गानों में शामिल है। लताजी ने देश या विदेश जहां भी काँसर्ट किया, इस गाने की फर्माइश जरूर होती थी। सचिन तेंदुलकर के लिए मुंबई में आयोजित एक कार्यक्रम में मास्टर ब्लास्टर ने खुद इस गाने को गाने के लिए लताजी से आग्रह किया था।

मात्र दो ही दशक के कैरियर के दौरान राजा मेहंदी अली खान ने मदन मोहन के साथ मिल कर अद्भुत गाने दिए हैं। जैसे कि 'आप की नजरों ने समझा...' (अनपढ़, 1962), 'लग जा गले से फिर...' 'और नैना बरसे रिमझिम...'(वह कौन थी?, 1962), 'एक हसीन शाम को...' (दुल्हन एक रात की, 1966) और यही है तमन्ना...'(आप की परछाइयां, 1964) आज भी उतने ही प्रेम से सुने और गाए जाते हैं।

वीरेंद्र बहादुर सिंह

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