महानगरीय नारी और मातृत्व का मोह भंग

मैंने देखा सुषमा कुछ परेशान सी दिख रही थी। पूछते ही बिफर सी पड़ी-  क्या बताऊँ आज कल के बच्चों की सोच से बड़ी परेशानी हो रही है। देखो बेटे की शादी के अब पांच वर्ष होने को है लेकिन अभी तक फैमिली प्लानिंग में ही लगे हैं बच्चे का तो सोच ही नहीं रहे हैं। पूछने पर कहते हैं अभी इस बारे में कुछ सोचा नहीं है अभी तो हमारा अपने करिअर पर ध्यान है। अरे एक तो शादी देर से करते हैं और जब सोचेंगे तब तक तो उम्र निकल जाएगी। सुषमा की बातों ने तो जैसे सबकी दुखती रग को छू लिया था। मीरा बोल पड़ी– अरे मेरे यहाँ का तो अलग ही पचड़ा है

Jun 6, 2025 - 15:20
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महानगरीय नारी और मातृत्व का मोह भंग
Metropolitan women and the disillusionment of motherhood

कुछ दिनों से मेरा मन बड़ा विचलित है या यों कहिए सवाल जबाव के ताने बाने में उलझा है। बात ही कुछ ऐसी थी। एक दिन सुबह टहलने के बाद मैं पार्क में बैठकर सुस्ता रही थी तभी मेरी चार-पांच सहेलियां भी आ पहुंची। सैर के बाद रोज हमारी आधे घंटे की गोष्ठी जमती थी। एक तो हम सब उम्र के उस दौर से गुजर रहे थे जहां घर की जिम्मेदारियां अगली पीढ़ी ने ले ली थी और दूसरे सुस्ताने के साथ एक दूसरे के हाल चाल भी पूछते और पारिवारिक, सामाजिक और राष्ट्रीय मुद्दों पर भी विमर्श कर लेते।
मैंने देखा सुषमा कुछ परेशान सी दिख रही थी। पूछते ही बिफर सी पड़ी-  क्या बताऊँ आज कल के बच्चों की सोच से बड़ी परेशानी हो रही है। देखो बेटे की शादी के अब पांच वर्ष होने को है लेकिन अभी तक फैमिली प्लानिंग में ही लगे हैं बच्चे का तो सोच ही नहीं रहे हैं। पूछने पर कहते हैं अभी इस बारे में कुछ सोचा नहीं है अभी तो हमारा अपने करिअर पर ध्यान है। अरे एक तो शादी देर से करते हैं और जब सोचेंगे तब तक तो उम्र निकल जाएगी।
सुषमा की बातों ने तो जैसे सबकी दुखती रग को छू लिया था। मीरा बोल पड़ी– अरे मेरे यहाँ का तो अलग ही पचड़ा है बच्चे की जिम्मेदारी ही नहीं लेना चाहते हैं और कहते हैं बच्चे आने से हम बंध जाएंगे हमें तो आजाद रहना है। कमाओ खाओ, घूमो फिरो कोई झमेला या झंझट नहीं। कौन इन्हें समझाए कि बच्चे मुसीबत या परेशानी नहीं हैं।
सब अपनी समस्या बतला रहे थे तभी मैंने देखा नेहा चुप बैठी थी। मैंने सबसे कहा- क्यों नेहा, लगता है तुम्हारे यहाँ सब ठीक है तभी इतनी शांत हो।
`नहीं भाई मैं तो चुप बैठकर अपनी समस्या से तुलना कर रही थी तो लगा कि तुम लोगों की बात तो कुछ भी नहीं है। मुझे बताते हुए शर्म आती है कि मेरा बेटा तो लिव इन में पांच साल से रह रहा है वहां तो इन सब बातों का प्रावधान ही नहीं है। कब वे अलग हो जाएंगे कुछ नहीं कह सकते। हम दोनों पति पत्नी सब कुछ होते भी खाली हाथ हैं।
नेहा की लाचारगी देख हम सब को भी बहुत दुःख हो रहा था। तभी स्वाति ने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा– ज्यादा मत सोचो, साथ रहकर खुश तो हैं न। मेरे यहाँ तो बेटा चाहता है पर बहू नहीं। रिश्ता टूटने की कगार तक आ पहुंचा है।
इन सारी बातों ने मन को झकझोर दिया और मैं सोचने पर मजबूर हो गयी कि समाज किस दिशा की ओर जा रहा है। अगर युवाओं में यह मनोवृति बढ़ने लगेगी तो आनेवाली पीढ़ी अनुपात में बहुत कम होगी। माता-पिता और बच्चों से ही तो परिवार और परिवार से समाज बनता है।
भगवान के बाद इस सृष्टि को आगे चलाने में जिस शक्ति का नाम आता है, वो सशक्त नाम है नारी! जो कि समाज मे एक ऐसे वृक्ष की तरह है जिसकी शाखा उसके भिन्न-भिन्न रूपों का वर्णन करती हें! नारी जो कभी माँ के रूप में हमारे ऊपर अपनी ममतामयी छाया को न्योछावर करती है, नारी जो कभी पत्नी के रूप में हमें फलों की मिठास से अभिभूत कराती है, नारी जो कभी बहन के रूप में, कभी बेटी के रूप में उस कठोर तने के अंदर छुपे कोमल अनुभाग जैसी प्रतीत होती है! 
स्त्री की विशिष्ट संरचना, कार्य, व्यवहार के साथ व्यक्ति, परिवार, समाज और फिर राष्ट्र के निर्माण में उसकी अतुलनीय भूमिका के कारण ही उसे जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी और यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता कहकर उसकी महत्ता को गर्व के साथ वर्णित किया जाता है। स्त्री संस्कृति और सभ्यता की संवाहक और संतान की प्रथम गुरु है। 
शहरीकरण और आधुनिकीकरण के कारण युवा पीढ़ी में पारंपरिक मूल्यों की जगह नए और अधिक लचीले सामाजिक मानकों को अपनाने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। समाज का स्वरुप और उसकी सोच में अभूतपूर्व बदलाव देखने को मिल रहा है। पुरानी मान्यताएं ढहती जा रही हैं।
खासकर महानगरों में कार्पोरेट और मल्टीनेशनल कंपनियों में काम करनेवाली महिलाएं अपने कैरियर को ज्यादा प्राथमिकता देती हैं और जिसमें बच्चे की जिम्मेदारी लेना शामिल नहीं होता। यह प्रवृत्ति दिनोदिन बढती जा रही है जबकि नारी को ईश्वर ने सृजन करने की शक्ति के साथगढ़ा है। 
समाज का बदलता स्वरुप और नयी सोच हमें इसके पीछे के कारणों पर विचार करने पर विवश कर देती है। कारपोरेट और मल्टीनेशनल कंपनियों में काम करने वाली महिलाएं आर्थिक रूप से स्वतंत्र होती हैं, जिससे उन्हें अपने जीवन के निर्णय लेने में अधिक स्वतंत्रता मिलती है। उच्च शिक्षा प्राप्त महिलाएं अपने करियर को प्राथमिकता देती हैं और बच्चे पैदा करने को स्थगित करती हैं, ताकि वे अधिक आर्थिक स्थिरता प्राप्त कर सकें।
कई महिलाएं अपने कैरियर को प्राथमिकता देती हैं और बच्चा पैदा करने से पहले अपने लक्ष्यों को पूरा करना चाहती हैं। बच्चे की परवरिश के लिए आर्थिक स्थिरता आवश्यक होती है। कुछ महिलाएं आर्थिक स्थिरता प्राप्त करने के बाद ही बच्चा पैदा करने का निर्णय लेती हैं।
आजकल लिव-इन रिलेशनशिप में रहने का भी चलन बढ़ता जा रहा है और लिव-इन रिलेशनशिप में रहने वाली महिलाएं अक्सर अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता को बनाए रखना चाहती हैं, जिसमें बच्चे की जिम्मेदारी लेना शामिल नहीं होता।
पहले महिलाओं पर शादी के तुरंत बाद बच्चा पैदा करने का दबाव होता था। अब यह दबाव कम हो रहा है, और महिलाएं अपने जीवन को अपनी प्राथमिकताओं के अनुसार जीने लगी हैं। कुछ महिलाएं स्वास्थ्य कारणों या शारीरिक समस्याओं के कारण बच्चा पैदा करने से बचती हैं। इसके अलावा, देर से शादी करने से भी बच्चे पैदा करने की संभावना प्रभावित होती है।
महिलाएं अब व्यक्तिगत स्वतंत्रता और जीवनशैली का आनंद लेने को अधिक महत्व देती हैं। यह भी एक कारण है कि वे बच्चा पैदा करने से बचती हैं। कॉर्पोरेट सेक्टर में काम करने वाली महिलाओं को मातृत्व अवकाश (मैटरनिटी लीव) के बाद करियर में बाधाओं का सामना करना पड़ता है। भारत में ७५ज्ञ् कामकाजी माँओं को मातृत्व अवकाश के बाद १-२ साल तक करियर में रुकावट का सामना करना पड़ता है। कई बार वेतन में कटौती, पदोन्नति में कमी, और अस्थायी या कम जिम्मेदारी वाले पद दिए जाते हैं। इस `मातृत्व दंड' के कारण महिलाएँ माँ बनने से हिचकती हैं या करियर को प्राथमिकता देती हैं।
महानगरों में कामकाजी महिलाओं पर पारंपरिक सामाजिक अपेक्षाएँ और परिवार की जिम्मेदारियाँ भारी पड़ती हैं। घर और कार्यस्थल के बीच संतुलन बनाना मुश्किल होता है, जिससे मानसिक तनाव और दबाव बढ़ता है। महिलाओं को अक्सर घर में बच्चों की देखभाल और घरेलू कार्यों का अधिक बोझ उठाना पड़ता है, जो उनके माँ बनने के निर्णय को प्रभावित करता है।
महानगरों में जीवन की महंगाई, उच्च शिक्षा, और करियर की महत्वाकांक्षा के कारण महिलाएँ माँ बनने को टालती हैं। वे पहले आर्थिक रूप से स्थिर होना चाहती हैं और करियर में अच्छी स्थिति हासिल करना चाहती हैं। इसके अलावा, बच्चे की परवरिश के लिए उचित सुविधाओं (जैसे डेकेयर, हेल्थकेयर) की कमी भी एक बाधा है । 
माँ न बनने की प्रवृत्ति के दूरगामी परिणाम अब परिलक्षित होने लगे हैं। महानगरों में माँ न बनने या माँ बनने में देरी के कारण परिवार की संरचना में बदलाव आ रहा है। परिवार छोटे होते जा रहे हैं  और बुजुर्गों पर बच्चों की देखभाल का बोझ बढ़ता है। इससे पारिवारिक समर्थन प्रणाली कमजोर होती है और सामाजिक एकजुटता पर असर पड़ता है। मातृत्व दंड के कारण महिलाओं को करियर में पिछड़ना पड़ता है। इससे लैंगिक असमानता बढ़ती है और महिलाओं का आर्थिक सशक्तिकरण प्रभावित होता है। कई महिलाएँ करियर और परिवार के बीच चयन करने के दबाव में आती हैं, जो मानसिक तनाव और आत्म-सम्मान में कमी का कारण बनता है।
माँ न बनने या माँ बनने में देरी के कारण महिलाओं में डिप्रेशन, तनाव, और नींद की समस्या बढ़ती है। बांझपन जैसी स्वास्थ्य समस्याएँ भी मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करती हैं। कार्य और पारिवारिक जिम्मेदारियों के बीच संतुलन न बन पाने से मानसिक दबाव और बढ़ता है ।
दूसरी ओर, यह प्रवृत्ति महिलाओं की स्वतंत्रता और स्वायत्तता की ओर भी संकेत करती है। महिलाएँ अब अपने जीवन के फैसलों में अधिक सक्रिय भूमिका निभा रही हैं, जो लैंगिक समानता और महिला सशक्तिकरण के लिए सकारात्मक है। हालांकि, इसके लिए समाज और कार्यस्थल में बेहतर नीतियाँ और समर्थन आवश्यक हैं।
महानगरों और कॉरपोरेट में काम करने वाली महिलाओं में माँ न बनने या माँ बनने में देरी की प्रवृत्ति कई स्वास्थ्य, सामाजिक, आर्थिक और मानसिक कारणों से बढ़ रही है। यह प्रवृत्ति महिलाओं के व्यक्तिगत जीवन और समाज दोनों पर गहरा प्रभाव डाल रही है। मातृत्व दंड, सामाजिक अपेक्षाएँ, स्वास्थ्य समस्याएँ, और आर्थिक दबाव इसके मुख्य कारण हैं। इसके परिणामस्वरूप लैंगिक असमानता बढ़ती है, परिवार की संरचना बदलती है, और मानसिक स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
इस स्थिति को सुधारने के लिए कार्यस्थल पर मातृत्व के बाद महिलाओं के लिए बेहतर समर्थन, सामाजिक सोच में बदलाव, और स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता जरूरी है ताकि महिलाएँ अपनी इच्छानुसार माँ बनने और करियर दोनों को संतुलित कर सकें।

रेणु प्रसाद,
झारखण्ड

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