राम कृष्ण तत्त्व के शक्ति पुंज
धर्मशास्त्र कहता है कि पिछला जन्म दुराचरण से जुड़ा है, तो बीमारियां, कर्ज, बुराईयां कदम कदम पर मिलती रहती हैं। वहीं पिछला जन्म नारी शक्ति के प्रति धर्ममय, पवित्रता से ओतप्रोत होने पर स्वयं का आचरण धार्मिक और सेवामय बन जाता है और उस व्यक्ति के जीवन से संकट दूर रहते हैं। आचरण की प्रमाणिकता नारी के प्रति हमारे व्यवहार-सोच से भी स्पष्ट होती है। नारी ने अपने में अनेक संबंधों में गूँथ कर रखा है।
सनातन धर्म में महिलाओं का स्थान बहुत महत्वपूर्ण रहा है। महिलाएं सनातन धर्म के साथ संबंधित धार्मिक गतिविधियों में भाग लेती थीं और धर्म के विभिन्न क्षेत्रों में अपनी भूमिका निभाती रही हैं । हालांकि, समाज में कुछ स्थानों पर महिलाओं को वैदिक परंपराओं से बाहर रखा जाता था और वे पुरुषों से अलग रखी जाती थीं । अधिकतर स्थानों पर संवेदनशील विषयों जैसे श्राद्ध, पंचांग आदि में धर्मों में चाहे कितनी भी नारियों की उपेक्षित स्थिति बताई गई हो परन्तु सच्चाई तो यही है कि मानव जीवन क¢ विकास के लिए नारी ही उत्तरदायी है अर्थात मानव जीवन की संपूर्णता एवं अस्तित्व को बनाए रखने हेतु नारी का सर्वोच्च स्थान रहा है। नारी चाहे स्वतंत्र हो या पराधीन परन्तु मानव के अस्तित्व को बनाए रखने हेतु जितना पुरूष का उत्तरदायित्व है उससे बढ़कर नारी का उच्च और सराहनीय योगदान है। अतः पुरूष और नारी एक-दूसरे के पूरक हैं | एक के बिना दूसरे की कल्पना नहीं की जा सकती| यही एकमात्र सच्चाई है जो मानव जीवन के अस्तित्व को बनाये रखने हेतु महत्वपूर्ण और अटूट कड़ी है।
सनातन धर्म में महिलाओं का सम्मान किया जाता है और उन्हें शक्ति और समानता का अधिकार दिया जाता है। महिलाएं सनातन धर्म के उपदेशों का पालन करती हैं और समाज के लिए अपनी भूमिका का पूरा निर्वहन करती हैं। वैदिक समाज में, महिलाएं धर्म के विभिन्न कार्यक्रमों जैसे पूजा, उत्सव और समारोहों में भाग लेती रही हैं। महिलाओं का धर्म के लिए उत्साह, शक्ति और प्रेम का अनुभव होता है। शास्त्रों और पुराणों में भी महिलाओं को धर्म के प्रति समर्पित होने की प्रोत्साहना दी गई है।
नारी के संकल्प, संस्कार एवं स्वाभिमान के सहारे परिवार में देवमय संतानें गढ़ी जाती हैं, जिससे समाज में देवमय वातावरण का निर्माण सम्भव बनता है, ऐसी शास्त्रों की मान्यता है। वैदिक काल से हमारा भारत देश नारी सम्मान, नारी के प्रति पवित्र दृष्टि, सनातन परम्पराओं से ओतप्रोत नारी चेतना को पुनः-पुनः प्रतिष्ठापित करता रहा है। जीवन के प्रत्येक आयामों में उसे गौरवान्वित ढंग से प्रतिष्ठित करने की आवश्यकता है। हर नागरिक को अपने चरित्र-चिंतन व व्यवहार में नारी शक्ति की दिव्यता-पवित्रता की अनुभूति जगाने की जरूरत है। दुर्गा, सीता, पार्वती, लक्ष्मी, काली, जैसी देवियों से लेकर रानी चैनम्मा, अहिल्याबाई होल्कर, रानी लक्ष्मी बाई जैसी राष्ट्रविदुषियों को अपने घर-आंगन में खेलने का स्वप्न अंदर से जगाने की जरूरत है। पुरुष वर्ग को अपने अंतःकरण से अहंभाव को निकालने के लिए भी नारी की संवेदनशीलता, गरिमा, मर्यादा, ममत्व, प्रेम, दया, करुणा, ममता आदि दिव्य गुणों को अपने अंतःकरण के स्वरूप में, चिंतन व भावना में जगाने की आज बड़ी आवश्यकता है। पर अंतःकरण में सम्पूर्ण नारी समाज के प्रति श्रद्धा उड़ेलने, नारी को ईश्वर का सर्वश्रेष्ठ स्वरूप मानने, उसके जीवन में समाये आध्यात्मिक मूल्यों को अपने अंदर प्रतिष्ठापित करने, हर पल ‘माँ’ की संवेदनशीलता, गौरवगरिमा को धारणा का विषय बनाने से ही यह सब सम्भव हो सकेगा।
दिव्य जीवन के निर्माण में पवित्र सम्बन्ध होना-अनुभव में आया है कि जहां दिव्य जीवन के निर्माण में पिता-पुत्र, मां-बेटी, पति-पत्नी, अन्य कुटुम्बियों के बीच परस्पर पवित्र सम्बन्ध निर्वहन का अपना विशेष महत्व है, वहीं सम्पूर्ण समाज की नारियों के प्रति हमारी भाव संवेदनाओं, उनके प्रति सोच आदि का स्वयं के शरीर, मन एवं आचरण पर भी गहरा प्रभाव पड़ता है। मान्यता है कि जिस व्यक्ति की भावनायें नारी जाति के प्रति श्रेष्ठ होती हैं, उनका व्यक्तित्व रोग रहित, सम्माननीय, यशस्वी, समृद्धि, लोक सम्मान आदि दिव्यताओं से सुसज्जित देखने को मिलता है। इसके विपरीत नारी के प्रति हीनभावनायें रखने वाले का सम्पूर्ण जीवन दुख-कष्ट-कठिनाइयों, बीमारियों, कर्जदारी, अपयशी, दुर्भाग्य जैसी विद्रूपताओं की खान बनता जाता है, वह भले कितना भी कर्मशीलता क्यों न अपना ले। परम पूज्य सुधांशु जी महाराज कहते हैं ‘‘नारी साक्षात देवी-नारायणी है, वह सूक्ष्मरूप से सदैव परमात्मा के आभामंडल के घिरी रहती है। उसके आस-पास हर पल हर क्षण नारायण की सुगंधि बनी रहती है, यही कारण है कि नारी का सम्मान करने वालों के ऊपर नारायण की कृपा सहज बरसने लगती है और वह भौतिक लोक में यशस्वी जीवन जीता ही है, अगला जन्म भी किसी यशस्वी कुल में ही होता है।’’
धर्मशास्त्र कहता है कि पिछला जन्म दुराचरण से जुड़ा है, तो बीमारियां, कर्ज, बुराईयां कदम कदम पर मिलती रहती हैं। वहीं पिछला जन्म नारी शक्ति के प्रति धर्ममय, पवित्रता से ओतप्रोत होने पर स्वयं का आचरण धार्मिक और सेवामय बन जाता है और उस व्यक्ति के जीवन से संकट दूर रहते हैं। आचरण की प्रमाणिकता नारी के प्रति हमारे व्यवहार-सोच से भी स्पष्ट होती है। नारी ने अपने में अनेक संबंधों में गूँथ कर रखा है।
मानस की शुरुआत में पार्वतीजी भगवान् शंकर से डरते-डरते कुछ प्रश्न पूछती हैं, पर अधिकार से नहीं। पार्वती के प्रश्नों से शिव प्रसन्न होते हैं। भक्ति मार्ग में प्रथम बार नारी को अधिकार मिला था। "उमा प्रस्न तब सहज सुहाई।" इसके बाद शिव पार्वती को आदर के साथ रामकथा सुनाते हैं। पार्वती ने पूछा न होता तो रामकथा शिव के मानस में ही रह जाती।
सीता और पार्वती का कार्यक्षेत्र घर की चारदीवारी के बाहर है। सीता, राम से महत्त्वपूर्ण है। पहले सीता, फिर राम। पहले भवानी, फिर शंकर। यहाँ भी तुलसी की उदार और अनोखी नारी-दृष्टि है। वह मंदोदरी और बाली की पत्नी तारा को सम्राज्ञी बनाते हैं।
रामकथा में नारी का दूसरा पहलू 'माता' का है। माँ महान् है। मातृ सेवा, सृजन और सहनशीलता का सर्वोत्तम उदाहरण है। रामजन्म में भी कौशल्या की वंदना है, दशरथ की नहीं।
"भये प्रकट कृपाला दीन दयाला, कौशल्या हितकारी।
बंदउं कौसल्या दिसि प्राची। कीरति जासु सकल जग माची॥”
मातृ वंदना तुलसी को प्रिय है। पूरी रामकथा में सुमित्रा की क्या भूमिका है ? एक-दो बार उनका बेजोड़ प्रसंग आता है। राम को वनवास की आज्ञा है। लक्ष्मण सुमित्रा के पास खड़े हैं। उनका चित्त स्थिर नहीं है। माता कारण पूछती हैं। वे बताते हैं कि वे राम के साथ वन जाना चाहते हैं। लक्ष्मण को लगता है, माता इसकी अनुमति नहीं देगी। सुमित्रा झट समझ गईं। कहा, ‘जाओ !पुत्र समूचे जीवन की यही तो शिक्षा है- रामभक्ति की शिक्षा। जाओ, राम-सीता को ही माता-पिता मानो। राम अवध के पर्याय हैं। अवध वहीं है, जहाँ राम।
तुम्हारा जन्म तो सीता-राम की सेवा के लिए ही हुआ है’।
"तात तुम्हारि मातु बैदेही। पिता रामु सब भाँति सनेही ॥”
राम ही क्यों कृष्ण का पूरा जीवन नारी सुरक्षा नारी के लिए धर्म पालन का संदेश देते बीता। अपने चारों और अनेक तरह के नारी संबंधों से घिरे रहे कृष्ण और अंत तक द्रोपदी के मान सम्मान की रक्षा हेतु महाभारत का युद्ध तक जिसका साक्षी है इतिहास। समाज में नारी को सम्मान के साथ रहने के लिए स्थान दिलाया| कृष्ण ने हमेशा नारी को शक्ति बताया |उसके सम्मान के लिए तत्पर रहे| पुरी महाभारत नारी सम्मान के लिए लड़ी| वे मात्र भाव के भूखे थे। फिर चाहे बृज की गोपिकाएं हों या फिर अन्य कोई। जिस किसी ने उन्हें चाहा तो श्रीकृष्ण ने सबका मान रखा। रूक्मिणी का विवाह शिशुपाल से तय हो चुका था लेकिन रूक्मिणी श्रीकृष्ण को चाहती थी। रूक्मिणी ने श्रीकृष्ण को संदेशा भेजा। संदेश पाते ही श्रीकृष्ण यादवों की सेना लेकर निकल पड़े और रूक्मिणी का हरण किया। महिलाओं की रक्षा करना प्रत्येक पुरूष का कर्तव्य है। यह श्रीकृष्ण से हमें सीखने को मिलता है। दुर्योधन की राजसभा में द्रौपदी के चीरहरण के समय जब सभी मूकदर्शक थे तो श्रीकृष्ण ने द्रोपदी के स्वाभिमान की रक्षा की। इसका बदला लेने के लिए उन्होंने महाभारत रचाया। नरकासुर नाम के राक्षस ने 16 हजार महिलाओं का अपहरण कर लिया था। कृष्ण ने नरकासुर का वध कर उन 16 हजार महिलाओं को मुक्त कराया। उसके बाद प्रश्न खड़ा हुआ कि उनके साथ शादी कौन करे। श्रीकृष्ण ने उन सब को अपनाकर समाज में सम्मानपूर्ण जीने का अधिकार दिलाया।
आप जीवन में चाहें जितना उंचे उठ जायें लेकिन अपने मित्रों को नहीं भूलना चाहिए। इसलिए मित्रता में श्रीकृष्ण और सुदामा से बड़ा उदाहरण दूसरा जग में नहीं है।
वात्सत्य सम्राट सूरदास ने उनकी बाल लीलाओं का बहुत ही अदभुत ढ़ंग से वर्णन किया है। श्रीकृष्ण बचपन में दूध दही घी मक्खन का खूब सेवन करते हैं। उन्हें अपने बाल सखाओं के साथ घूमने और खेलने की भी स्वतंत्रता है। गलती करने पर मां यशोदा उन्हें डांटती हैं तो उन्हें पुचकारती भी हैं। बालक की परवरिश कैसी हो यह भागवत के दशम स्कन्द में वर्णित है | बच्चा जब स्वस्थ नहीं होगा तो उसके मस्तिष्क का विकास ठीक से नहीं होगा। इसके साथकृसाथ बच्चों को पौष्टिक भोजन के साथकृसाथ पारिवारिक परिवेश और स्वच्छंदता भी चाहिए। साथ ही कठोर परिश्रम करने की आदत भी चाहिए।
महाभारत के युद्ध में वह स्वयं सारथी की भूमिका में थे कृष्ण । उन्होंने अपनी भूमिका स्वयं तय की थी। प्रत्येक भारतीय माता अपनी गोद श्रीकृष्ण के बालरूप (गोपालजी) से ही भरना चाहती है और प्रत्येक स्त्री अपने प्रेम में उसी निर्मोही के मोहनरूप की कामना करती है।कृष्ण का चरित्र एक सुंदर हंसी के साथ सामने आता है। स्त्रियों को इस हंसमुख स्वभाव से बेहद प्यार है।
सदियों से अपने हक के लिए लड़ रही स्त्रियां पुरुषों से केवल अच्छा व्यवहार और एक स्वस्थ हंसी ही चाहती हैं और वह भी उन्हें नहीं मिलता। कृष्ण का मनमोहक रुप और उससे झर-झर निसृत सुंदर हंसी कहीं न कहीं स्त्री-हदय को मुग्ध करता है।नन्दरायजी नौ लाख गायों के स्वामी और व्रजराज हैं, फिर भी श्रीकृष्ण स्वयं गाय चराने जाते हैं। श्रीकृष्ण माता यशोदा से कहते हैं–
मैया री! मैं गाय चरावन जैहों।
तूं कहि, महरि! नंदबाबा सौं, बड़ौ भयौ, न डरैहों।।
जो ‘सहस्त्राक्ष’ हैं, सारे संसार पर जिनकी नजर रहती है, उन श्रीकृष्ण को यशोदामाता डिठौना लगाकर नजर उतारती हैं। आसुरीमाया से श्रीकृष्ण की रक्षा के लिए रक्षामन्त्रों से जल अभिमन्त्रित कर उन्हें पिलाती हैं; इतना ही नहीं–
देखा जाए तो राम का चरित्र भी स्त्री को पर्याप्त सम्मान करता है और वह एकपत्नी-व्रत चरित्र भी है स्त्रियां उस चरित्र को ज़्यादा पसंद करती हैं जो समाज की परवाह न करें, जो केवल अपने हृदय की बात मानें, स्त्री-हृदय को पढ़ें, उसे सम्मान करें और ये सारे गुण प्रकटत: कृष्ण-चरित्र में है। कृष्ण-कथा में कृष्ण जिन स्त्रियों के संपर्क में रहते हैं, बात करते हैं सबसे उनका फ्रेंडली रिलेशन दिखाई देता है। स्त्रियां भी अपनी व्यक्तिगत पीड़ाएं और आंतरिक अभिलाषाएं कृष्ण से शेयर करती हैं। वैसे देखा जाए तो स्त्रियों की व्यक्तिगत बातों और पीड़ाओं को राम के चरित्र ने भी सुना और समझा है|राम और कृष्ण दोनों ही चरित्रों में दुष्ट-दलन की शक्ति, शत्रु-निधन-क्षमता इत्यादि गुण देखे जाते हैं। लेकिन दिलचस्प है कि स्त्रियों को इन गुणों से कोई लगाव नहीं है। कारण यह है कि शक्ति, शौर्य आदि से स्त्री आकर्षित नहीं होती। स्त्री सर्वप्रथम विनम्र व्यवहार से मुग्ध होती है जो कृष्ण और राम दोनों चरित्रों में मौजूद है। साथ ही स्त्री सम्मान व मर्यादा की आकांक्षी होती है। वह पुंसवादी रवैया तो बिलकुल नापसंद करती है।
प्रभा पारीक
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