Sahitya-Aur-Cinema : साहित्य और सिनेमा
An insightful article exploring the deep connection between literature and cinema, their differences, mutual influence, and how Hindi literature continues to shape Indian cinema through powerful narratives and contemporary writers. साहित्य और सिनेमा के गहरे संबंधों को दर्शाता यह लेख उनके अंतरों, प्रभावों और परस्पर पूरकता पर रोशनी डालता है। यह हिंदी सिनेमा में साहित्य की भूमिका और समकालीन लेखकों की भागीदारी को उजागर करता है।

Sahitya-Aur-Cinema : साहित्य और सिनेमा दोनों अलग-अलग विधाएं हैं। साहित्य एक पठनीय विधा है तो वहीं सिनेमा एक देखने की विधा है। साहित्य संवेदना और अनुभूति प्रधान होता है लेकिन सिनेमा में दर्शकों की मांग का ध्यान रखा जाता है क्योंकि इसका संबंध सीधा व्यवसाय से होता है। इसलिए जो दर्शक पसंद करता है वही सिनेमा दिखाने का प्रयास करता है। साहित्य में जो साहित्यिक सामग्री होती है, वह दर्शकों की रुचि पर आधारित नहीं होती वरन उसमें साहित्यकार की निजी संवेदना निहित होती है, जिसके द्वारा समाज के यथार्थ रूप को समाज के सामने रखने का प्रयास एक साहित्यकार के द्वारा किया जाता है।
सिनेमा कल्पना प्रधान माध्यम है जिसमें भावों की अभिव्यक्ति के लिए ऐसे दृश्यों का निर्माण कर दिया जाता है जो शब्दों के द्वारा संभव नहीं है। वही साहित्य शब्दों के द्वारा जिस परिवेश का निर्माण करता है उसका दृश्यांकन करना फिल्मकार के लिए चुनौती बन जाता है। साहित्य से ली गई सामग्री का ज्यों का त्यों रूपांतरण सदैव संभव नही हो पाता है और यदि संभव भी हो तो वह दर्शकों के लिए बोझिल हो सकता है या उसमें मनोरंजन की रिक्तता हो सकती है। फिल्मकार साहित्य को फिल्म के रूप में प्रस्तुत करना चाहता है परन्तु साहित्य फिल्म के सांचे में पूर्णरूपेण उतार नहीं पाता है और यहीं से साहित्य और सिनेमा के अंतः संबंध में विलगाव उत्पन्न हो जाता है। सिनेमा ने अपनी शैशवावस्था से ही साहित्य को अपनी धात्री के रूप में अपनाकर प्राण तत्व को प्राप्त किया। सिनेमा ने साहित्य की विभिन्न विधाओं को आधार बनाकर अपनी यात्रा प्रारंभ की।
सिनेमा और साहित्य का संबंध उतना ही पुराना है जितना पुराना सिनेमा का इतिहास है। पूरे संसार में फिल्म निर्माता साहित्य से प्रभावित रहे और उन्होंने साहित्यिक कृतियों को सिनेमा के माध्यम से जनमानस तक पहुंचाने का कार्य किया है। दरअसल फिल्मों को क्या चाहिए - एक अच्छी कहानी जो दर्शकों के मन को छू सके, कुछ अच्छा संगीत, कुछ अच्छे गीत और फिल्म का अच्छा छायांकन। हिंदी सिनेमा हिंदी साहित्य के अतिरिक्त अंग्रेजी साहित्य से भी बहुत प्रभावित रहा है। शेक्सपियर से लेकर रस्किन बॉन्ड तक के नाटक और उपन्यासों पर हिंदी फिल्में बनी हैं। साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है। इस आइने में दिखाई देने वाले समाज को सिनेमा जब अपने पर्दे पर दर्शाता है तो वह निश्चित रूप से साहित्य के संसार को विस्तृत करता है। आपको तो याद ही होगा कि भारत की पहली फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ एक मूक फिल्म थी लेकिन यह एक प्रचिलित पौराणिक कथा पर आधारित और जो पहली बोलती फिल्म ‘आलम आरा’ बनी, वह भी ऐतिहासिक पात्रों को लेकर ही बनी थी।
हिंदी सिनेमा में सिर्फ हिंदी साहित्य का ही योगदान नहीं रहा है बल्कि इसमें अन्य देशी और विदेशी भाषाओं के साहित्य का भी बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। हमारे देश की भाषाओं की बात करें तो इस में सर्वप्रथम है बांग्ला साहित्य जैसे शरद चंद्र चटर्जी के उपन्यास ‘देवदास’ पर तो कितनी ही बार फिल्म बन चुकी है। भगवती चरण वर्मा के उपन्यास ‘चित्रलेखा’ पर भी इसी नाम से दो बार फिर बन चुकी है। फणीश्वर नाथ रेनू के उपन्यास ‘तीसरी कसम’ पर इसी नाम से फिल्म बनी थी।
विमल मित्र के उपन्यास ‘साहब, बीबी और गुलाम’, रविंद्र नाथ की कहानी ‘काबुलीवाला’, आर के नारायण के उपन्यास पर बनी फिल्म ‘गाइड’ राजेंद्र यादव के उपन्यास ‘सारा आकाश’, यू आर अनंतमूर्ति के उपन्यास ‘संस्कार’, मोहन राकेश के नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’, मन्नू भंडारी की कहानी ‘यही सच है’ पर आधारित फिल्म ‘रजनीगंधा’ विजय तेंदुलकर के नाटक पर आधारित ‘घासीराम कोतवाल’, प्रेमचंद की कहानी पर ‘शतरंज के खिलाड़ी’, मिर्जा हादी के उपन्यास ‘उमराव जान’ पर इसी नाम से फिल्म, अमृता प्रीतम के उपन्यास ‘पिंजर’ पर आधारित फिल्में भी बन चुकी हैं। इसके अलावा चेतन भगत का उपन्यास ‘फाइव पॉइंट समवन’ पर आधारित ‘३ ईडियट्स’ फिल्म बन चुकी है। हिंदी के दो चर्चित साहित्यकारों उदय प्रकाश और प्रियंवद की कहानियों पर निर्मित ‘महात्मा’ और ‘खरगोश’ जैसी संवेदनशील फिल्में बनी। प्रेमचंद, राजेंद्र सिंह बेदी, मंटो, ख्वाजा अहमद अब्बास, भगवती चरण वर्मा, गोपाल सिंह नेपाली, फणीश्वर नाथ रेणु, शैलेंद्र, नरेंद्र शर्मा, सरस्वती कुमार ‘दीपक’ और साहिर लुधियानवी जैसे हिंदी और उर्दू के मशहूर लेखक फिल्मों से जुड़े रहे हैं। सिनेमा बदलते यथार्थ को कहीं ज्यादा बेहतर तरीके से पकड़ रहा है। ऐसा नहीं है कि वह केवल सतही चित्र ही प्रस्तुत कर रहा है बल्कि वह उसकी परतों में भी घुस रहा है धंस रहा है। उसके अंदर की संवेदना को भी पकड़ रहा है। उसमें निहित विमर्श को भी प्रस्तुत कर रहा है। साहित्य पर आधारित फिल्मों में उपन्यास की गहराई देखने को मिलती है। एक उपन्यास का बड़ा फलक एक खास तरह की गति और उतार-चढ़ाव कई फिल्मों में दिखाई देता है। आज जब निर्माण की तकनीक बदल गई है साहित्य फिर भी सिनेमा को गति प्रदान करता है।
हमारी फिल्मों की जड़ में ही साहित्य है। केवल हिंदी नहीं किसी भी भारतीय भाषा की शुरुआती फिल्मों को देखें तो फिल्में साहित्य के स्तंभ पर ही खड़ी दिखायी देती हैं। साहित्य समाज को प्रतिबिंबित करता है, साहित्य और सिनेमा में साहित्य का काफी प्रभाव है। साहित्य की शिरकत से सिनेमा की गरिमा बढ़ जाती है। प्रश्न यह है कि साहित्य और सिनेमा के संबंध और अंतरसंबंध कौन से हैं? अपने शुद्ध रूप में साहित्य जिस सामाजिक और मानवीय समाज का चित्रण करता है, उसके मुकाबले सभी कलाओं के उत्कृष्ट मिश्रण से तैयार हुआ सिनेमा भी मानवीय समाज का चित्रण करता है।
हिंदी फिल्म जगत में जितनी सफलता कवियों और शायरों को मिली उतनी सफलता कथाकार को नहीं मिल पाई। जिसका एक कारण यह भी हो सकता है कि कथाकारों की कथा का कैनवास अत्यधिक विस्तृत होता है और उनमें शब्दों की महत्ता सर्वोपरि होती है जबकि सिनेमा में ऐसा नहीं होता। सिनेमा को अपने संपूर्ण विस्तार को दो से तीन घंटों के अंदर दृश्यों के द्वारा समेटना होता है और यहां शब्द से अधिक महत्वपूर्ण प्रस्तुति और अभिव्यक्ति होती है। नाटक के चारों अवयव वाचिक, सात्विक, कायिक और आहार्य सिनेमा में आकर शब्दों, अलंकारों पर भारी पड़ने लगते हैं। फिल्मी दृष्टि से नाटक और एकांकी ही सिनेमा के सबसे नजदीकी संबंधी नजर आते हैं। कवियों और शायरों पर कोई बंधन नहीं होता। उन्हें तो परिस्थिति के अनुरूप गीत या ग़ज़ल लिखनी होती है। सिनेमा के अन्य आयामों से उन्हें कोई सरोकार नहीं होता।
वर्तमान समय की बात करें तो यह देखना अच्छा लगता है कि हिंदी के अनेक युवा लेखक सिनेमा की ओर बढ़ रहे हैं। हिंदी साहित्य के नवोदित लेखक जैसे मनोज मुंतसिर हिंदी सिनेमा के बड़े गीतकार के रूप में उभरे हैं और कई बड़ी फिल्मों में गीत लिखने के बाद बाहुबली और आदि पुरुष जैसी मेगा बजट फिल्म के संवाद भी लिखे हैं। वही हिंदी के प्रसिद्ध कवि कुमार विश्वास को महारथी कर्ण पर बनने जा रही वासु भगनानी की महत्वाकांक्षी फिल्म की पटकथा, गीत और संवाद लिखने के लिए साइन किया गया है। साथ ही सत्य व्यास के उपन्यास पर जहां वेब सीरीज का प्रसारण हो चुका है वहीं नीलोत्पल मृणाल, नवीन चौधरी तथा दिव्य प्रकाश दुबे आदि और भी कई युवा लेखकों की रचनाओं पर सिनेमाई अनुबंध हुए हैं जो आने वाले समय में सामने आएंगे। अंततः यह कहा जा सकता है कि साहित्य और सिनेमा का अतीत से जो संबंध चला आ रहा है वह आज के इस नए दौर में भी हिंदी साहित्य और सिनेमा की नई तस्वीर गढ़ रहा है जिससे निश्चित रूप से आने वाले समय के लिए एक उम्मीद की किरण जगती है। हिंदी फिल्मों का वर्तमान परिदृश्य परिवर्तित हो चुका है। आज हर तरह की फिल्में बन रही है।
विषयों में इतनी विविधता पहले कभी भी नहीं दिखाई पड़ी। ओटीटी की शुरुआत से छोटे बजट की फिल्मों का बाजार भी फल-फूल रहा है क्योंकि थिएटर में फिल्म रिलीज़ करना एक बड़ा जुएँ जैसा है कि फिल्म चलेगी या नहीं और अपनी लागत निकाल पायेगी या नहीं। आखिर में सिनेमा एक व्यवसाय है जिसमें बहुत पैसा शुरू में ही लग जाता है। हालांकि साहित्यिक कृतियों पर फिल्म बनाने की समझ रखने वाले युवा हिंदी भाषी फिल्मकारों की पंक्ति तैयार हो चुकी है। अब पहले जैसा कला फिल्म और मेन स्ट्रीम सिनेमा जैसा वर्गीकरण समाप्त हो चुका है। आज कला फिल्में भी बहुत पैसा कमा लेती हैं यदि उन्हें अच्छी तरह से बनाया गया हो तो।
आज समाज को साहित्यिक मानसिकता वाले फिल्म निर्माताओं की आवश्यकता है। जिससे समाज का उचित मार्गदर्शन हो सके। आज भी ऐसे अनेक उपन्यास हैं जिन पर यदि फिल्में बनाई जाए तो समाज निश्चित ही सही रास्ता प्राप्त कर सकता है गिरते मूल्यों को बचाने के लिए अच्छे उपन्यासों पर काम होना आवश्यक है। विधा या कला की दृष्टि से साहित्य और सिनेमा अलग-अलग हैं परंतु दोनों यदि साथ-साथ सफर करें तो एक दूसरे के सहायक बनेंगे साथ ही मनुष्य की कलात्मक दृष्टि का विकास भी हो सकेगा।
रचना दीक्षित
ग्रेटर नोएडा
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