नींद
मैं न मनचाही कभी भी नींद सोया। नित्य कच्ची नींद जागा और रोया। साक्ष्य मेरे जागरण का है सितारे, इक अधूरे स्वप्न में दिन रात खोया।

बंद पलकों की सलोनी देहरी पर,
अनमनी सी नींद दस्तक दे रही है।
मैं न मनचाही कभी भी नींद सोया।
नित्य कच्ची नींद जागा और रोया।
साक्ष्य मेरे जागरण का है सितारे,
इक अधूरे स्वप्न में दिन रात खोया।
लक्ष्य पूरा कर चुका मैं जागरण का,
रात मुझको शयन का हक़ दे रही है।
है निशा निस्तब्ध, गहरी है उदासी।
बंद आँखों में उतर आई अमा सी।
एक गह्वर में समाता जा रहा मन,
चाँदनी को पी रही है रूह प्यासी।
लुप्त होती जा रही है चेतना भी,
एक तंद्रा दृश्य भ्रामक दे रही है।
मैं अगर सो भी गया तो क्या रुकेगा।
कामनाओं का शिखर क्यों कर झुकेगा।
किंतु सबके ़क़र्ज़ हैं मुझको चुकाने,
नींद का ऋण तो शयन से ही तो चुकेगा।
मैं अकेला ही नहीं जो थक गया हो,
ज़िंदगी क्यों दोष नाहक दे रही है।
दृष्टि बोझिल है, न तुम इस पल सताओ।
रूठना अब छोड़ दो, नज़दीक आओ।
क्लांत है मन और तन में भी थकन है,
थपकियाँ देकर मुझे फिर से सुलाओ।
ये मुझे अनुमान है तुम हो निकट ही,
यह पता अब गंध मोहक दे रही है।
जगदीश मोहन रावत
जयपुर (राजस्थान)
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