चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ : एक युगचेतस साहित्य पुरुष
Chandradhar Sharma ‘Guleeri’ was a pioneering figure in Hindi literature whose work blended intellect, culture, and patriotism. His masterpiece “Usne Kaha Tha” is considered the first psychological story in Hindi, portraying love, sacrifice, and valor with unmatched depth.
हिन्दी साहित्य के स्वर्णिम इतिहास में जिन युगप्रवर्तक व्यक्तित्वों ने भाषा, विचार और शैली को नई दिशा दी, उनमें चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ का स्थान अत्यंत विशिष्ट है। वे केवल एक कथाकार नहीं थे, बल्कि भाषा के मर्मज्ञ, संस्कृति के सच्चे साधक, और विचार के अडिग प्रहरी थे। उनका संपूर्ण साहित्यिक व्यक्तित्व ओज, बौद्धिकता और राष्ट्रीय चेतना से ओत-प्रोत है।
चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ का जन्म ७ जुलाई १८८३ को जयपुर में हुआ। संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, पालि, हिन्दी, अंग्रेज़ी, उर्दू, फारसी और तिब्बती जैसी अनेक भाषाओं में उनकी असाधारण दक्षता थी। उनका जीवन एक तपस्वी विचारक का था, जिसने ज्ञान को केवल अर्जित नहीं किया, बल्कि समाज के हित में संप्रेषित भी किया। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, शांति निकेतन और काशी जैसे ज्ञान-तीर्थों से जुड़कर उन्होंने राष्ट्र की बौद्धिक चेतना को नई धार दी।
‘गुलेरी’ जी की लेखनी की सबसे बड़ी विशेषता थी - संक्षिप्तता में सार भरना। उनकी प्रसिद्ध कहानी ‘उसने कहा था’ को ही लीजिए - हिन्दी की पहली मनोवैज्ञानिक कहानी होने का गौरव पाने वाली यह रचना मात्र कुछ पृष्ठों में एक सम्पूर्ण जीवन-दर्शन की पराकाष्ठा रच देती है।
प्रेम, त्याग, वीरता और कर्तव्य का ऐसा उत्कट समन्वय हिन्दी साहित्य में कम ही देखने को मिलता है। गुलेरी जी का साहित्य ओज से ओतप्रोत है, किंतु यह ओज केवल भाषायी चमत्कार नहीं, बल्कि विचार की तीव्रता, दृष्टि की तीव्रता और आत्मा की गरिमा है।
उनकी भाषा में एक ऐसी ताजगी और निर्भीकता है, जो पाठक के अंतर्मन को झकझोरती है। चाहे आलोचना हो, भाषाविज्ञान हो, ऐतिहासिक विवेचना हो या सामाजिक व्यंग्य – गुलेरी जी ने हर विधा में ओज और सौंदर्य का समन्वय किया। ‘उसने कहा था’ कहानी में केवल प्रेम नहीं है, वह प्रेम के भीतर छिपा कर्तव्य, वीरता, और बलिदान का ऐसा चित्रण है जो कथा को एक वीरगाथा बना देता है। लहना सिंह के चरित्र के माध्यम से गुलेरी जी ने बताया कि सच्चा प्रेम केवल पाने का नहीं, बल्कि निस्वार्थ देने का नाम है। यह ओज है — भावना का, चरित्र का, और अंतःकरण की पवित्रता का। गुलेरी जी की भाषा में जो ठहराव और गरिमा है, वह उस समय की गद्य रचनाओं से बिल्कुल अलग है। उन्होंने हिन्दी गद्य को केवल संवाद का माध्यम नहीं, बल्कि कला का स्वरूप दिया। उनका लेखन कहीं संस्कृतनिष्ठ है तो कहीं उर्दू की मिठास से भीगता है, पर हर वाक्य में एक बौद्धिक तेज़, एक वैचारिक स्पर्श, और एक सांस्कृतिक गरिमा विद्यमान रहती है।
गुलेरी जी केवल रचनात्मक साहित्यकार नहीं थे, एक सजग आलोचक भी थे। उनकी आलोचना की भाषा में कहीं कोई समझौता नहीं हुआ । वे विचारों को संकोच में नहीं बांधते, बल्कि विवेक की छुरी से परखते हैं। यही गुण उन्हें अन्य समकालीन लेखकों से अलग करता है-जहां खरा बोलने की जरूरत हो, वहाँ वे शब्दों को संवारते नहीं, निखारते हैं। गुलेरी जी का समूचा लेखन भारतीय संस्कृति की गहराइयों से सिंचित है। वे आधुनिकता को स्वीकार करते हैं, पर जड़ों से कभी नहीं कटते। उनके निबंधों में, उनके लेखों में, उनके व्याख्यानों में एक सजग राष्ट्रप्रेम और सांस्कृतिक गौरव झलकता है।
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वे पश्चिम के ज्ञान को अपनाते हैं, पर अपनी भूमि की गरिमा के साथ समझौता नहीं करते।
चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ एक ऐसी दीपशिखा हैं, जिन्होंने हिन्दी साहित्य को दिशा, दृष्टि और गरिमा दी। वे कम लिखकर भी बहुत कहने वाले लेखक थे। उनके विचार आज भी गूंजते हैं-अपनी सादगी में, अपनी स्पष्टता में, और अपने ओज में।
हिन्दी साहित्य को उन्होंने केवल एक नई कहानी नहीं दी, बल्कि नया संस्कार दिया — सोचने का, कहने का, और जीने का।
उनकी ओजस्विता में वह स्वाभाविक तेज है, जो आज भी युवाओं को वैचारिक प्रज्वलन देने में सक्षम है। हिन्दी साहित्य के आकाश में उनका नाम एक उज्ज्वल नक्षत्र की तरह सदा चमकता रहेगा।
वह केवल `उसने कहा था' के लेखक नहीं थे,
वह वह थे, जिन्होंने हिन्दी से `कहना' सिखाया।
रश्मि प्रभा
ठाणे, महाराष्ट्र
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