दोनों भूमिकाओं को निभाने की चुनौती: मातृत्व और उद्यमिता का सँभालना
समाज अक्सर महिलाओं से यह अपेक्षा रखता है कि वे घर और कार्यस्थल दोनों में `परफेक्ट' प्रदर्शन करें। यह दबाव मानसिक स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव डालता है। एक अध्ययन के अनुसार, ६५ज्ञ् माँ-उद्यमियों ने चिंता या अवसाद के लक्षणों की सूचना दी, जिनका कारण इस `डबल बर्डन' को बताया गया। इसके विपरीत, पुरुष उद्यमियों के लिए पारिवारिक ज़िम्मेदारियों को अक्सर `सहायक' के रूप में देखा जाता है, न कि बाधा।

मातृत्व और उद्यमिता- दोनों को ही `पूर्णकालिक' भूमिकाएँ माना जाता है। जब कोई इन दोनों को एक साथ निभाता है, तो यह संतुलन एक ऐसी कला बन जाता है, जिसमें समय प्रबंधन, भावनात्मक लचीलापन और सामाजिक अपेक्षाओं के बीच तालमेल बिठाना पड़ता है। इस संदर्भ में, माताएँ जो अपना व्यवसाय भी चलाती हैं, उनके सामने आने वाली चुनौतियाँ न केवल व्यक्तिगत बल्कि सामाजिक-आर्थिक परिप्रेक्ष्य से भी गहन अध्ययन का विषय है।
समय का अभाव और प्राथमिकताओं का टकराव
उद्यमिता और मातृत्व दोनों ही ऐसे क्षेत्र हैं जहाँ समय की मांग अनिश्चित और अत्यधिक होती है। एक तरफ़ व्यवसाय के लिए ग्राहकों की मीटिंग, प्रोजेक्ट डेडलाइन, और टीम प्रबंधन जैसे कार्य होते हैं, तो दूसरी ओर बच्चे की देखभाल, स्कूल की गतिविधियाँ, और पारिवारिक ज़िम्मेदारियाँ। शोध बताते हैं कि ७८ज्ञ् माँ-उद्यमी `टाइम पॉवर्टी' की स्थिति से जूझती हैं। यह असंतुलन अक्सर `माँ-गिल्ट' या `व्यवसाय-गिल्ट' को जन्म देता है- जहाँ एक भूमिका में समय देने पर दूसरी के प्रति अपराधबोध होता है।
बच्चे की अनिश्चित आवश्यकताएँ
शिशुओं और छोटे बच्चों की दिनचर्या अप्रत्याशित होती है। बुखार, नींद का अनियमित पैटर्न, या अचानक भूख लगना- ये सभी कारक कार्यशैली में व्यवधान उत्पन्न करते हैं। उदाहरण के लिए, एक माँ-उद्यमी ने बताया कि उनकी महत्वपूर्ण वीडियो के दौरान उनके बच्चे ने अचानक रोना शुरू कर दिया, जिससे उन्हें मीटिंग रोकनी पड़ी। ऐसी स्थितियों में लचीलेपन और क्रिएटिव प्रॉब्लम-सॉल्विंग की आवश्यकता होती है।
सामाजिक दबाव और `सुपरमॉम' की छवि
समाज अक्सर महिलाओं से यह अपेक्षा रखता है कि वे घर और कार्यस्थल दोनों में `परफेक्ट' प्रदर्शन करें। यह दबाव मानसिक स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव डालता है। एक अध्ययन के अनुसार, ६५ज्ञ् माँ-उद्यमियों ने चिंता या अवसाद के लक्षणों की सूचना दी, जिनका कारण इस `डबल बर्डन' को बताया गया। इसके विपरीत, पुरुष उद्यमियों के लिए पारिवारिक ज़िम्मेदारियों को अक्सर `सहायक' के रूप में देखा जाता है, न कि बाधा।
लैंगिक भूमिकाओं का प्रभाव
भारतीय संदर्भ में, परिवार के सदस्य अक्सर महिलाओं से यह उम्मीद करते हैं कि वे बच्चे की देखभाल को प्राथमिकता दें। इसका सीधा प्रभाव व्यवसाय के विकास पर पड़ता है। उदाहरण के लिए, वेंचर कैपिटल फर्म्स द्वारा सिर्फ़ १२ महिला-नेतृत्व वाले स्टार्टअप्स को फंडिंग मिलती है- एक कारण यह भी बताया जाता है कि निवेशक `मातृत्व अवकाश' या `काम से अनुपस्थिति' को जोखिम मानते हैं।
संसाधनों और सहायता प्रणाली की कमी
अधिकांश माँ-उद्यमियों को पेशेवर और व्यक्तिगत सहायता का अभाव होता है। चाइल्डकैअर सुविधाओं की उच्च लागत, विश्वसनीय डेकेयर की कमी और परिवार के सदस्यों का समर्थन न मिलना- ये सभी कारक उनकी उत्पादकता को प्रभावित करते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में यह चुनौती और भी गहन है, जहाँ डिजिटल बुनियादी ढाँचे की कमी दूरस्थ कार्य को असंभव बना देती है।
प्रौद्योगिकी की भूमिका
ऑटोमेशन टूल्स, वर्चुअल असिस्टेंट्स, और क्लाउड-आधारित प्रबंधन प्रणालियों ने कुछ हद तक मदद की है। उदाहरण के लिए, `माइक्रो-स्केज्यूलिंग' (दिन को १५-३० मिनट के ब्लॉक्स में बाँटकर काम करना) जैसी तकनीकों ने समय प्रबंधन में सुधार किया है। हालाँकि, प्रौद्योगिकी तक पहुँच और डिजिटल साक्षरता का अभाव अभी भी बड़ी बाधाएँ हैं।
मानसिक स्वास्थ्य और आत्म-देखभाल
लगातार तनाव और थकान से निपटने के लिए माँ-उद्यमियों को आत्म-देखभाल की रणनीतियाँ विकसित करनी पड़ती हैं। ध्यान (मेडिटेशन), शारीरिक व्यायाम, और सामाजिक समर्थन नेटवर्क जैसे उपायों ने कई महिलाओं को मदद पहुँचाई है। हालाँकि, सांस्कृतिक रूप से `स्वार्थी' समझे जाने के डर से कई महिलाएँ इन संसाधनों का उपयोग नहीं कर पातीं।
सफलता की कहानियों से प्रेरणा
कुछ माँ-उद्यमियों ने इन चुनौतियों को अवसरों में बदल दिया है। उदाहरण के लिए, नैनो टेक्नोलॉजीज की संस्थापक, डॉ. सुमिता दास, ने अपने बच्चे के जन्म के बाद हाइब्रिड वर्क मॉडल विकसित किया, जिससे उनकी टीम की उत्पादकता ४०ज्ञ् बढ़ गई। ऐसी उपलब्धियाँ दिखाती हैं कि लचीलेपन और नवाचार से इस संतुलन को प्राप्त किया जा सकता है।
नीतिगत सुधारों की आवश्यकता
सरकारी और कॉर्पोरेट नीतियाँ अभी भी माँ-उद्यमियों की विशिष्ट आवश्यकताओं के अनुरूप नहीं हैं। उदाहरण के लिए, मातृत्व अवकाश की अवधि बढ़ाना, कार्यस्थल पर चाइल्डकैअर सुविधाएँ उपलब्ध कराना, और लचीले कार्य घंटे अनिवार्य करना- ये कुछ ऐसे कदम हैं जो इस समस्या को कम कर सकते हैं। सिंगापुर और स्वीडन जैसे देशों में ऐसी नीतियों ने महिला उद्यमिता दर में ३०ज्ञ् की वृद्धि की है।
सामुदायिक समर्थन का महत्व
महिला-नेतृत्व वाले व्यवसाय नेटवर्क (जैसे `मॉम्प्रेन्योर इंडिया') ने साथियों की मंडली बनाकर मनोवैज्ञानिक और व्यावहारिक सहायता प्रदान की है। ऐसे समूह संसाधन साझा करने, मेंटरशिप प्रदान करने, और सामूहिक समाधान खोजने में सहायक होते हैं।
मातृत्व और उद्यमिता के बीच संतुलन बनाना कोई `व्यक्तिगत चुनौती' नहीं, बाfल्क एक सामाजिक-आर्थिक मुद्दा है जिसके लिए बहु-स्तरीय हस्तक्षेप की आवश्यकता है। व्यक्तिगत स्तर पर समय प्रबंधन, संस्थागत स्तर पर नीतिगत सुधार, और सामाजिक स्तर पर लैंगिक रूढ़ियों को तोड़ना- ये सभी इस समस्या के समाधान का हिस्सा हैं। जैसा कि एक माँ-उद्यमी ने कहा: ‘यह संघर्ष नहीं, संगीत है- दोनों भूमिकाएँ मिलकर एक अनूठी धुन बनाती हैं।’ आज विज्ञान ने साबित कर दिया है कि माँ बनने पर एक महिला का मस्तिष्क संज्ञानात्मक, भावनात्मक और व्यवहारिक लचीलेपन से गुजरता है, जो उन्हें न केवल नए वातावरण के साथ अनुकूलन करने में मदद करता है, साथ ही उनकी रचनात्मकता और संसाधनपूर्ण सोच को प्रभावित करता है। कुछ माँ-उद्यमियों ने इन चुनौतियों को अवसरों में बदल दिया है। उनकी सफलता की कहानियां प्रेरित करती हैं कि लचीलेपन और नवाचार से संतुलन को प्राप्त किया जा सकता है। आज एक नहीं अनेक ऐसे जीवंत उदाहरण (इंद्रा नूयी जैसी उच्च-शक्ति वाली अधिकारी और किरण मजूमदार शॉ और एडलवाइस एसेट मैनेजमेंट की एमडी और सीईओ राधिका गुप्ता, नैनो टेक्नोलॉजीज की संस्थापक, डॉ. सुमिता दास, ने अपने बच्चे के जन्म के बाद हाइब्रिड वर्क मॉडल विकसित किया, जिससे उनकी टीम की उत्पादकता ४०ज्ञ् बढ़ गई ) मौजूद हैं, जो साबित करते हैं, कि ये उद्यमी माँ अपने बच्चे का उचित पालन पोषण करने के साथ साथ अपने व्यवसाय में ज़्यादा चुनौतीपूर्ण काम करने में सक्षम होती हैं और अपने व्यवसाय को सफलता के सातवें आसमान तक पहुंचा सकती है। यदि मैं यह कहूं कि एक नई माँ अपने बच्चे का पालन पोषण करते समय ऐसी बहुत सी स्किल्स (सुनना, धैर्य, प्रॉबलम सॉल्विंग एटिट्यूड, आउट ऑफ बॉक्स थिंकिंग) सीख जाती है, जो उसके उद्यम में चार चांद लगा उसे उपलब्धियों के शिखर पर आसीन कर देती है, तो कोई अतीश्योक्ति नहीं होगी।
अन्नू गनेरीवाल
आईआईटी बॉम्बे
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