ये पानी की बूंदें

हैं आँसू भी बहते ज़मीनों के संग संग, हैं अरमान मरते  ज़मीनों के संग संग,

Mar 13, 2024 - 12:28
Mar 13, 2024 - 12:29
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ये पानी की बूंदें
WATER DROPS

ये दरकते पहाड़
ये खिसकती ज़मीनें,
नदियों में बहकर
सिमटती ज़मीनें,
ये पानी की बूंदे 
डराने लगी हैं,
ये जबसे ज़मीं को
बहाने लगी हैं।
.
हैं आँसू भी बहते
ज़मीनों के संग संग,
हैं अरमान मरते 
ज़मीनों के संग संग,
किसानों के आँसू
गरीबों के अरमां,
सुबह शाम मरते
ज़मीनों के संग संग,
के जीवन की चिंता
सताने लगी है,
ये जबसे ज़मीं को
बहाने लगी हैं।
.
हैं बच्चे भी वंचित
न पढ़ पा रहे हैं,
के मुश्किल घड़ी से
न लड़ पा रहे हैं,
हैं सहमे से रहते
शरारत भी बंद है,
ठहर से गए हैं
न बढ़ पा रहे हैं,
के हर एक आहट
डराने लगी है,
ये जबसे ज़मीं को
बहाने लगी हैं।
.
तबाही का मंजर
ही फैला है पग पग,
नहीं साफ कुछ भी
के मैला है पग पग,
ये टूटे से घर हैं
के बिखरी हैं सड़कें,
मिटे सारे सपनों का
रेला है पग पग,
ये खामोश चीखें
सुनाने लगी है
ये जबसे ज़मीं को
बहाने लगी हैं।
.
ये पानी की बूंदें
डराने लगी हैं,
ये जबसे ज़मीं को
बहाने लगी हैं।

मुकेश जोशी 'भारद्वाज'

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