जिंदगी की कश्मकश
सुर सुरा सुंदरी से महक रही थी जिंदगी
जिंदगी की कश्मकश में हम सदा झूलते रहे
क्यों आया इस जग में यह सदा भूलते रहे
जिंदगी बीत रही झूठी शान और शौकत में
जिसने भी उंगली उठाई उसको घूरते रहे
सुर सुरा सुंदरी से महक रही थी जिंदगी
अय्याशियों के ढेर पर चढ़े हम फूलते रहे
सन्मार्ग नकार कर कुमार्ग पर चलने लगे
जहां हित अपना दिखा उसी को लुटते रहे
खुदा ने कुकर्मों का लेखा -जोखा सुनाया
पश्चाताप के झरते आंसू खुद पोछते रहे
सविता सक्सेना 'दिशा'
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